छत्तीसगढ़ के मेला-मड़ई
विविधतापूर्ण छत्तीसगढ़ राज्य में विभिन्न स्वरूप के मेलों का लंबा सिलसिला है, इनमें मुख्यतः उत्तर-पूर्वी क्षेत्र यानि जशपुर-रायगढ़ अंचल में जतरा अथवा रामरेखा, रायगढ़-सारंगढ़ का विष्णु यज्ञ- हरिहाट, चइत-राई और व्यापारिक मेला, कटघोरा-कोरबा अंचल का बार, दक्षिणी क्षेत्र यानि बस्तर के जिलों में मड़ई और अन्य हिस्सों में बजार, मातर और मेला जैसे जुड़ाव अपनी बहुरंगी छटा के साथ राज्य की सांस्कृतिक सम्पन्नता के जीवन्त उत्सव हैं। मेला ‘होता’ तो है ही, 'लगता', 'भरता' और 'बैठता' भी है।
विविध मेलों का क्रम -
अगहन माह - बड़े भजन रामनामी मेला (रायपुर - बिलासपुर संभाग)
गीता का उद्धरण है- 'मासानां मार्गशीर्षोऽहं ...', अगहन को माहों में श्रेष्ठ कहा गया है और यह व्याख्या सटीक जान पड़ती है कि खरीफ क्षेत्र में अगहन लगते, घर-घर में धन-धान्य के साथ गुरुवार लक्ष्मी-पूजा की तैयारी होने लगती है, जहां लक्ष्मी वहां विष्णु। इसी के साथ मेलों की गिनती का आरंभ, अंचल की परम्परा के अनुरूप, प्रथम के पर्याय- 'राम' अर्थात्, रामनामियों के बड़े भजन से किया जा सकता है, जिसमें पूस सुदी ग्यारस को अनुष्ठान सहित चबूतरा और ध्वजारोहण की तैयारियां होती हैं, द्वादशी को झंडा चढ़ाने के साथ ही मेला औपचारिक रूप से उद्घाटित माना जाता है, तीसरे दिन त्रयोदशी को भण्डारा होता है, इस हेतु दो बड़े गड्ढे खोदे जाते, जिन्हें अच्छी तरह गोबर से लीप-सुखा कर भंडारण योग्य बना लिया जाता। भक्तों द्वारा चढ़ाए और इकट्ठा किए गए चावल व दाल को पका कर अलग-अलग इन गड्ढों में भरा जाता, जिसमें मक्खियां नहीं लगतीं। यही प्रसाद रमरमिहा अनुयायियों एवं अन्य श्रद्धालुओं में वितरित होता। संपूर्ण मेला क्षेत्र में जगह-जगह रामायण पाठ होता रहता है। नख-शिख 'रामराम' गोदना वाले, मोरपंख मुकुटधारी, रामनामी चादर ओढ़े रमरमिहा स्त्री-पुरूष मेले के दृश्य और माहौल को राममय बना देते हैं।
मेले में परिवेश की सघनता इतनी असरकारक होती है कि यहां प्रत्येक व्यक्ति, समष्टि हो जाता है। सदी पूरी कर चुका यह मेला महानदी के दाहिने और बायें तट पर, प्रतिवर्ष अलग-अलग गांवों में समानांतर भरता है। कुछ वर्षों में बारी-बारी से दाहिने और बायें तट पर मेले का संयुक्त आयोजन भी हुआ है। मेले के पूर्व बिलासपुर-रायपुर संभाग के रामनामी बहुल क्षेत्र से गुजरने वाली भव्य शोभा यात्रा का आयोजन भी किया गया है। इस मेले और समूह की विशिष्टता ने देशी-विदेशी अध्येताओं, मीडिया प्रतिनिधियों और फिल्मकारों को भी आकर्षित किया है।
पौष माह के विभिन्न मेले
रामनामी बड़े भजन के बाद तिथि क्रम में पौष पूर्णिमा अर्थात् छेरछेरा पर्व पर तुरतुरिया, सगनी घाट (अहिवारा), चरौदा (धरसीवां) और गोर्रइया (मांढर) का मेला भरता है। इसी तिथि पर अमोरा (तखतपुर), रामपुर, रनबोर (बलौदाबाजार) का मेला होता है, यह समय रउताही बाजारों के समापन और मेलों के क्रम के आरंभ का होता है, जो चैत मास तक चलता है। जांजगीर अंचल की प्रसिद्ध रउताही मड़ई हरदी बजार, खम्हरिया, बलौदा, बम्हनिन, पामगढ़, रहौद, खरखोद, ससहा है। क्रमशः भक्तिन (अकलतरा), बाराद्वार, कोटमी, धुरकोट, ठठारी की रउताही का समापन सक्ती के विशाल रउताही से माना जाता है। बेरला (बेमेतरा) का विशाल मेला भी पौष माह में (जनवरी में शनिवार को) भरता है। 'मधुमास पुनीता' होते हुए '...ऋतूनां कुसुमाकरः', वसंत ऋतु-रबी फसल तक चलने वाले मेलों के मुख्य सिलसिले का समापन चइत-राई से होता है, सरसींवां और भटगांव के चैत नवरात्रि से वैशाख माह के आरंभ तक चलने वाले चइत-राई मेले पुराने और बड़े मेले हैं। सपोस (चंदरपुर) का चइत-राई भी उल्लेखनीय है। चइत-राई का चलन बस्तर में भी है।
रामराम मेला
सिद्धमुनि आश्रम, बेलगहना में साल में दो बार- शरद पूर्णिमा और बसंत पंचमी को मेला भरता है। शरद पूर्णिमा पर ही बरमकेला के पास तौसीर में मेला भरता है, जिसमें अमृत खीर प्रसाद, शरद पूर्णिमा की आधी रात से सूर्योदय तक बंटता है। मान्यता है कि जो तीन साल लगातार यह प्रसाद खाता है वह आजीवन रोगमुक्त रहता है। यह उड़िया-छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक मेल-जोल का मेला है। कुदरगढ़ और रामगढ़, उदयपुर (सरगुजा) में रामनवमी पर बड़ा मेला भरता है। शंकरगढ़ का घिर्रा मेला पूस सुदी नवमी को होता है, जिसमें विभिन्न ग्रामों के रंग-बिरंगे ध्वजों के साथ 'ख्याला' मांगने की परम्परा है। लाठी और ढाल लेकर नृत्य तथा 'कटमुंहा' मुखौटेधारी भी आकर्षण के केन्द्र होते हैं। सरगुजा का 'जतरा' यानि घूम-घूम कर लगने वाला मेला अगहन मास के आरंभ से उमको होता हुआ सामरी, कुसमी, डीपाडीह, भुलसी, दुर्गापुर होकर शंकरगढ़ में सम्पन्न होता है। कुंवर अछरिया (सिंघनगढ़, साजा) और खल्लारी का मेला चैत पूर्णिमा पर भरता है।
भौगोलिक दृष्टि से उत्तरी क्षेत्र में सरगुजा-कोरिया अंचल के पटना, बैकुण्ठपुर, चिरमिरी आदि कई स्थानों में गंगा दशहरा के अवसर पर मेला भरता है तो पुराने रजवाड़े नगरों में, विशेषकर जगदलपुर में गोंचा-दशहरा का मेला प्रमुख है, किन्तु खैरागढ़ के अलावा खंडुआ (सिमगा), ओड़ेकेरा और जैजैपुर में भी दशहरा के अवसर पर विशाल मेला भरता है और भण्डारपुरी में दशहरा के अगले दिन मेला भरता है। सारंगढ़ अंचल के अनेक स्थलों में विष्णु यज्ञों का आयोजन होता है और यह मेले का स्वरूप ले लेता है, जिन्हें हरिहाट मेला कहा जाता है और मकर संक्रांति पर जसपुर कछार (कोसीर), सहजपाली और पोरथ में मेला लगता है। मकर संक्रांति पर एक विशिष्ट परम्परा घुन्डइया मेला, महानदी में बघनई और सूखा नाला के संगम की त्रिवेणी के पास हथखोज (महासमुंद) में प्रचलित है। यहां भक्त स्त्री-पुरुष मनौती ले कर महानदी की रेत पर लेट जाते हैं और बेलन की तरह लोटने लगते हैं फिर रेत का शिवलिंग बना कर उसकी पूजा करते हैं। संकल्प सहित इस पूरे अनुष्ठान को 'सूखा लहरा' लेना कहा जाता है।
क्वांर और चैत्र मास के विभिन्न मेले
क्वांर और चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवरात्रियों पर भी मेला भरने का चलन पिछले सालों में बढ़ा है, इनमें झलमला (बालोद) में दोनों नवरात्रि पर बड़े मेले भरते हैं और रतनपुर में इस अवसर पर प्रज्ज्वलित होने वाले ज्योति कलशों की संख्या दस हजार पार कर जाती है। अकलतरा के निकट दलहा पहाड़ पर नागपंचमी का मेला होता है, जिसमें पहाड़ पर चढ़ने की प्रथा है। विगत वर्षों में कांवड़िया श्रद्धालुओं द्वारा सावन सोमवार पर शिव मंदिरों में जल चढ़ाने की प्रथा भी तेजी से बढ़ी है। पारम्परिक तिथि-पर्वों से हटकर सर्वाधिक उल्लेखनीय कटघोरा का मेला है, जो प्रतिवर्ष राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस पर 26 जनवरी को नियत है। रामकोठी के लिए प्रसिद्ध तेलीगुंडरा, पाटन में भी इसी अवसर पर मेला होता है।
माघ मास के विभिन्न मेले
आमतौर पर फरवरी माह में पड़ने वाला दुर्ग का हजरत बाबा अब्दुल रहमान शाह का उर्स, राजनांदगांव का सैयद बाबा अटल शाह का उर्स, लुतरा शरीफ (सीपत), सोनपुर (अंबिकापुर) और सारंगढ़ के उर्स का स्वरूप मेलों की तरह होता है। रायगढ़ अंचल में पिछली सदी के जनजातीय धार्मिक प्रमुख और समाज सुधारक गहिरा गुरु के मेले चिखली, सूरजगढ़, रेंगापाली, लेंध्रा, बरमकेला आदि कई स्थानों पर भरते हैं, इनमें सबसे बड़ा माघ सुदी 11 को ग्राम गहिरा (घरघोड़ा) में भरने वाला मेला है। इसी प्रकार कुदुरमाल (कोरबा), दामाखेड़ा (सिमगा) में माघ पूर्णिमा पर कबीरपंथी विशाल मेले आयाजित होते हैं तथा ऐसे कई अन्य कबीरपंथी जुड़ाव-भण्डारा सरगुजा अंचल में होते रहते हैं। दामाखेड़ा, कबीरपंथियों की महत्वपूर्ण गद्दी है, जबकि कुदुरमाल में कबीरदास जी के प्रमुख शिष्य धरमदास के पुत्र चुड़ामनदास एवं अन्य दो गुरूओं की समाधियां है। मेले के अवसर पर यहां धार्मिक अनुष्ठानों के साथ कबीरपंथी दीक्षा भी दी जाती है। गुरु घासीदास के जन्म स्थान गिरोदपुरी के विशिष्ट और विस्तृत पहाड़ी भू-भाग में फाल्गुन सुदी 5 से भरने वाले तीन दिवसीय विशाल मेले का समापन जैतखंभ में सफेद झंडा चढ़ाने के साथ होता है। एक लोकप्रिय गीत 'तूं बताव धनी मोर, तूं देखा द राजा मोर, कहां कहां बाबाजी के मेला होथे' में सतनामियों के गिरौदपुरी, खडुवापुरी, गुरुगद्दी भंडार, चटुआ, तेलासी के मेलों का उल्लेख है।
रामराम मेला
सिद्धमुनि आश्रम, बेलगहना में साल में दो बार- शरद पूर्णिमा और बसंत पंचमी को मेला भरता है। शरद पूर्णिमा पर ही बरमकेला के पास तौसीर में मेला भरता है, जिसमें अमृत खीर प्रसाद, शरद पूर्णिमा की आधी रात से सूर्योदय तक बंटता है। मान्यता है कि जो तीन साल लगातार यह प्रसाद खाता है वह आजीवन रोगमुक्त रहता है। यह उड़िया-छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक मेल-जोल का मेला है। कुदरगढ़ और रामगढ़, उदयपुर (सरगुजा) में रामनवमी पर बड़ा मेला भरता है। शंकरगढ़ का घिर्रा मेला पूस सुदी नवमी को होता है, जिसमें विभिन्न ग्रामों के रंग-बिरंगे ध्वजों के साथ 'ख्याला' मांगने की परम्परा है। लाठी और ढाल लेकर नृत्य तथा 'कटमुंहा' मुखौटेधारी भी आकर्षण के केन्द्र होते हैं। सरगुजा का 'जतरा' यानि घूम-घूम कर लगने वाला मेला अगहन मास के आरंभ से उमको होता हुआ सामरी, कुसमी, डीपाडीह, भुलसी, दुर्गापुर होकर शंकरगढ़ में सम्पन्न होता है। कुंवर अछरिया (सिंघनगढ़, साजा) और खल्लारी का मेला चैत पूर्णिमा पर भरता है।
दामाखेड़ा का मेला
शिवनाथ नदी के बीच मनोरम प्राकृतिक टापू मदकूघाट (जिसे मनकू, मटकू और मदकूदीप/द्वीप भी पुकारा जाता है), दरवन (बैतलपुर) में सामान्यतः फरवरी माह में सौ-एक साल से भरने वाला इसाई मेला और मालखरौदा का क्रिसमस सप्ताह का धार्मिक समागम उल्लेखनीय है। मदकूदीप में एक अन्य पारम्परिक मेला पौष में भी भरता है। दुर्ग जिला का ग्राम नगपुरा प्राचीन शिव मंदिर के कारण जाना जाता है, किन्तु यहां से तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्राचीन प्रतिमा भी प्राप्त हुई है। पिछले वर्षों में यह स्थल श्री उवसग्गहरं पार्श्व तीर्थ के रूप में विकसित हो गया है। यहां दिसम्बर माह में शिवनाथ उत्सव, नगपुरा नमस्कार मेला का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें जैन धर्मावलंबियों की बड़ी संख्या में उपस्थिति होती है। इसी प्रकार चम्पारण में वैष्णव मत के पुष्टिमार्गीय शाखा के अनुयायी पूरे देश और विदेशों से भी बड़ी तादाद में आते हैं। यह स्थान महाप्रभु वल्लभाचार्य का प्राकट्य स्थल माना जाता है, अवसर होता है उनकी जयंती, वैशाख बदी 11 का।
तिहार-बार मेला
आमतौर पर प्रति तीसरे साल आयोजित होने वाले 'बार' में तुमान (कटघोरा) तथा बसीबार (पाली) का बारह दिन और बारह रात लगातार चलने वाले आयोजन का अपना विशिष्ट स्वरूप है। छत्तीसगढ़ी का शब्द युग्म 'तिहार-बार' इसीसे बना है। इस आयोजन के लिए शब्द युग्म 'तीज-तिहार' के तीज की तरह ही बेटी-बहुओं और रिश्तेदारों को खास आग्रह सहित आमंत्रित किया जाता है। गांव का शायद ही कोई घर छूटता हो, जहां इस मौके पर अतिथि न होते हों। इस तरह बार भी मेलों की तरह सामान्यतः पारिवारिक, सामाजिक, सामुदायिक, आर्थिक आवश्यकता-पूर्ति के माध्यम हैं। इनमें तुमान बार की चर्चा और प्रसिद्धि बैलों की दौड़ के कारण होती है। कटघोरा-कोरबा क्षेत्र का बार आगे बढ़कर, सरगुजा अंचल में 'बायर' नाम से आयोजित होता है। 'बायर' में ददरिया या कव्वाली की तरह युवक-युवतियों में परस्पर आशु-काव्य के सवाल-जवाब से लेकर गहरे श्रृंगारिक भावपूर्ण समस्या पूर्ति के काव्यात्मक संवाद होते हैं। कटघोरा क्षेत्र के बार में गीत-नृत्य का आरंभ 'हाय मोर दइया रे, राम जोहइया तो ला मया ह लागे' टेक से होता है। बायर के दौरान युवा जोड़े में शादी के लिए रजामंदी बन जाय तो माना जाता है कि देवता फुरमा (प्रसन्न) हैं, फसल अच्छी होगी।
रायगढ़ की चर्चा मेलों के नगर के रूप में की जा सकती है। यहां रथयात्रा, जन्माष्टमी और गोपाष्टमी धूमधाम से मनाया जाता है और इन अवसरों पर मेले का माहौल रहता है। इस क्रम में गणेश चतुर्थी के अवसर पर आयोजित होने वाले दस दिवसीय चक्रधर समारोह में लोगों की उपस्थिति किसी मेले से कम नहीं होती। छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद इसका स्वरूप और चमकदार हो गया है। इसी प्रकार सारंगढ़ का रथयात्रा और दशहरा का मेला भी उल्लेखनीय है। बिलासपुर में चांटीडीह के पारम्परिक मेले के साथ, अपने नए स्वरूप में रावत नाच महोत्सव (शनिचरी) और लोक विधाओं के बिलासा महोत्सव का महत्वपूर्ण आयोजन होता है। रायपुर में कार्तिक पूर्णिमा पर महादेव घाट का पारंपरिक मेला भरता है।
छत्तीसगढ़ राज्य गठन के पश्चात् आरंभ हुआ सबसे नया बड़ा मेला राज्य स्थापना की वर्षगांठ पर प्रतिवर्ष सप्ताह भर के लिए आयोजित होने वाला राज्योत्सव है। इस अवसर पर राजधानी रायपुर के साथ जिला मुख्यालयों में भी राज्योत्सव का आयोजन किया गया है। इसी क्रम में विभिन्न उत्सवों का जिक्र उपयुक्त होगा। भोरमदेव उत्सव, कवर्धा (अप्रैल), रामगढ़ उत्सव, सरगुजा (आषाढ़), लोककला महोत्सव, भाटापारा (मई-जून), सिरपुर उत्सव (फरवरी), खल्लारी उत्सव, महासमुंद (मार्च-अप्रैल), ताला महोत्सव, बिलासपुर (फरवरी), मल्हार महोत्सव, बिलासपुर (मार्च-अप्रैल), बिलासा महोत्सव, बिलासपुर (फरवरी-मार्च), रावत नाच महोत्सव, बिलासपुर (नवम्बर), जाज्वल्य महोत्सव (जनवरी), शिवरीनारायण महोत्सव, जांजगीर-चांपा (माघ-पूर्णिमा), लोक-मड़ई, राजनांदगांव (मई-जून) आदि आयोजनों ने मेले का स्वरूप ले लिया है, इनमें से कुछ उत्सव-महोत्सव वस्तुतः पारंपरिक मेलों के अवसर पर ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों के रूप में आयोजित किए जाते हैं, जिनमें श्री राजीवलोचन महोत्सव, राजिम (माघ-पूर्णिमा) सर्वाधिक उल्लेखनीय है।
राजिम मेला -
राजिम मेले की गिनती राज्य के विशालतम मेलों में है। विगत वर्षों में राजिम मेले का रूप लघु कुंभ जैसा हो गया है और यह 'श्री राजीवलोचन कुंभ' के नाम से आयोजित हो रहा है। मान्यता है कि चारों धाम तीर्थ का पुण्य-लाभ, राजिम पहुंचकर ही पूरा होता है। मेले के दौरान कल्पवास और संत समागम से इसके स्वरूप और आकार में खासी बढ़ोतरी हुई है। माघ-पूर्णिमा पर भरने वाले इस मेले का केन्द्र राजिम होता है, महानदी, पैरी और सोंढुर त्रिवेणी संगम पर नदी के बीचों-बीच स्थित कुलेश्वर महादेव और ठाकुर पुजारी वाले वैष्णव मंदिर राजीवलोचन के साथ मेले का विस्तार पंचक्रोशी क्षेत्र में पटेवा (पटेश्वर), कोपरा (कोपेश्वर), फिंगेश्वर (फणिकेश्वर), चंपारण (चम्पकेश्वर) तथा बम्हनी (ब्रह्मणेश्वर) तक होता है। इन शैव स्थलों के कारण मेले की अवधि पूरे पखवाड़े, शिवरात्रि तक होती है, लेकिन मेले की चहल-पहल, नियत अवधि के आगे-पीछे फैल कर लगभग महीने भर होती थी।
राजिम मेला
राजिम मेला के एक प्रसंग से उजागर होता मेलों का रोचक पक्ष यह कि मेले में एक खास खरीदी, विवाह योग्य लड़कियों के लिए, पैर के आभूषण-पैरी की होती थी। महानदी-सोढुंर के साथ संगम की पैरी नदी को पैरी आभूषण पहन कर पार करने का निषेध प्रचलित है। इसके पीछे कथा बताई जाती है कि वारंगल के शासक अन्नमराज से देवी ने कहा कि मैं तुम्हारे पीछे-पीछे आऊंगी, लेकिन पीछे मुड़ कर देखा तो वहीं रुक जाऊंगी। राजा आगे-आगे, उनके पीछे देवी के पैरी के घुंघरू की आवाज दन्तेवाड़ा तक आती रही, लेकिन देवी के पैर डंकिनी नदी की रेत में धंसने लगे। घुंघरू की आवाज न सुन कर राजा ने पीछे मुड़ कर देखा और देवी रुक गईं और वहीं स्थापित हो कर दंतेश्वरी कहलाईं। लेकिन कहानी इस तरह से भी कही जाती है कि देवी का ऐसा ही वरदान राजा को उसके राज्य विस्तार के लिए मिला था और बस्तर से चल कर बालू वाले पैरी नदी में पहुंचते, देवी के पैर धंसने और आहट न मिलने से राजा ने पीछे मुड़ कर देखा, इससे उसका राज्य विस्तार बाधित हुआ। इसी कारण पैरी नदी को पैरी पहन कर (नाव से भी) पार करने की मनाही प्रचलित हो गई। संभवतः इस मान्यता के पीछे पैरी नदी के बालू में पैर फंसने और नदी का अनिश्चित प्रवाह और स्वरूप ही कारण है।
राजिम मेले में कतार से रायपुर के अवधिया-धातुशिल्पियों की दुकान होती। वे साल भर कांसे की पैरी बनाते और इस मेले में उनका अधिकतर माल खप जाता, बची-खुची कसर खल्लारी मेला में पूरी हो जाती। विवाह पर कन्या को पैरी दिया जाना अनिवार्य होने से इस मौके पर अभिभावक लड़की को ले कर दुकान पर आते, दुकानदार पसंद करा कर, नाप कर लड़की को पैरी पहनाता। पसंद आने पर अभिभावक लड़की से कहते कि दुकानदार का पैर छूकर अभिवादन करे, उसने उसे पैरी पहनाया है। लड़की, दुकानदार सहित सभी बड़ों के पैर छूती और दुकानदार उसे आशीष देते हुए पैरी बांध-लपेट कर दे देता, पैरी के लिए मोल-भाव तो होता है लेकिन फिर पैरी पहनाने के एवज में दुकानदार को रकम (मूल्य नहीं) भेंट-स्वरूप दी जाती और यह पैरी अगली बार सीधे लड़की के विवाह पर खोल कर उसे पहनाया जाता। इसी के साथ रायगढ़ अंचल के मेलों के 'मान-जागर' को याद किया जा सकता है। यहां के प्रसिद्ध धातु-शिल्पी झारा-झोरका, अवधियों की तरह ही मोम-उच्छिष्ट (lost-wax) तकनीक से धातु शिल्प गढ़ते हैं। इस अंचल में लड़कियों को विवाह पर लक्ष्मी स्वरूप धन-धान्य का प्रतीक 'पैली-मान' (पाव-आधा सेर माप की लुटिया) और आलोकमय जीवन का प्रतीक 'दिया-जागर' (दीपदान) देना आवश्यक होता, जो झारा बनाते।
राजिम मेला का एक उल्लेखनीय, रोचक विस्तार जमशेदपुर तक है। यहां बड़ी तादाद में छत्तीसगढ़ के लोग सोनारी में रहते हैं। झेरिया साहू समाज द्वारा यहां सुवर्णरेखा और खड़खाई नदी के संगम, दोमुहानी में महाशिवरात्रि पर एक दिन का राजिम मेला-महोत्सव आयोजित किया जाता है। पहले यह आयोजन मानगो नदी के किनारे घोड़ा-हाथी मंदिर के पास होता था, लेकिन 'मैरिन ड्राइव' बन जाने के बाद इस आयोजन का स्थल बदल गया है।
शिवरीनारायण-खरौद का मेला -
शिवरीनारायण-खरौद का मेला भी माघ-पूर्णिमा से आरंभ होकर महाशिवरात्रि तक चलता है। मान्यता है कि माघ-पूर्णिमा के दिन पुरी के जगन्नाथ मंदिर का 'पट' बंद रहता है और वे शिवरीनारायण में विराजते हैं। इस मेले में दूर-दूर से श्रद्धालु और मेलार्थी बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। भक्त नारियल लेकर 'भुंइया नापते' या 'लोट मारते' मंदिर तक पहुंचते हैं, यह संकल्प अथवा मान्यता के लिए किये जाने वाले उद्यम की प्रथा है। प्रतिवर्ष होने वाले खासकर 'तारे-नारे' जैसी लोक विधाओं का प्रदर्शन अब नहीं दिखता लेकिन उत्सव का आयोजन होने से लोक विधाओं को प्रोत्साहन मिल रहा है। छत्तीसगढ़ में शिवरीनारायण की प्रतिष्ठा तीर्थराज जैसी है। अंचल के लोग सामान्य धार्मिक अनुष्ठानों से लेकर अस्थि विसर्जन तक का कार्य यहां सम्पन्न होते हैं। इस अवसर पर मंदिर के प्रांगण में अभी भी सिर्फ ग्यारह रुपए में सत्यनारायण भगवान की कथा कराई जा सकती है।
यह मेला जाति-पंचायतों के कारण भी महत्वपूर्ण है, जहां रामनामी, निषाद, देवार, नायक और अघरिया-पटेल-मरार जाति-समाज की सालाना पंचायत होती है। विभिन्न सम्प्रदाय, अखाड़ों के साधु-सन्यासी और मनोरंजन के लिए मौत का कुंआ, चारोंधाम, झूला, सर्कस, अजूबा-तमाशा, सिनेमा जैसे मेला के सभी घटक यहां देखे जा सकते हैं। पहले गोदना गुदवाने के लिए भी मेले का इंतजार होता था, अब इसकी जगह रंग-छापे वाली मेहंदी ने ले लिया है। गन्ने के रस में पगा लाई का 'उखरा' प्रत्येक मेलार्थी अवश्य खरीदता है। मेले की चहल-पहल शिवरीनारायण के माघ पूर्णिमा से खरौद की शिवरात्रि तक फैल जाती है। ग्रामीण क्षेत्र में पिनखजूर खरीदी के लिए आमतौर पर उपलब्ध न होने और विशिष्टता के कारण, मेलों की खास चीज होती थी।
शिवरी नारायण मेला
उखरा की तरह ही मेलों की सर्वप्रिय एक खरीदी बताशे की होती है। उखरा और बताशा एक प्रकार से कथित क्रमशः ऊपर और खाल्हे राज के मेलों की पहचान भी है। इस संदर्भ में ऊपर और खाल्हे राज की पहचान का प्रयास करना आवश्यक प्रतीत होता है। इसके अलावा एक अन्य प्रचलित भौगोलिक नामकरण 'चांतर राज' है, जो निर्विवाद रूप से छत्तीसगढ़ का मध्य मैदानी हिस्सा है, किन्तु 'ऊपर और खाल्हे' राज, उच्च और निम्न का बोध कराते हैं और शायद इसीलिए, उच्चता की चाह होने के कारण इस संबंध में मान्यता एकाधिक है।
ऐतिहासिक दृष्टि से राजधानी होने के कारण रतनपुर, जो लीलागर नदी के दाहिने स्थित है, को ऊपर राज और लीलागर नदी के बायें तट का क्षेत्र खाल्हे राज कहलाया और कभी-कभार दक्षिणी-रायपुर क्षेत्र को भी पुराने लोग बातचीत में खाल्हे राज कहा करते हैं। बाद में राजधानी-संभागीय मुख्यालय रायपुर आ जाने के बाद ऊपर राज का विशेषण, इस क्षेत्र ने अपने लिए निर्धारित कर लिया, जिसे अन्य ने भी मान्य कर लिया। एक मत यह भी है कि शिवनाथ का दाहिना-दक्षिणी तट, ऊपर राज और बायां-उत्तरी तट खाल्हे राज, जाना जाता है, किन्तु अधिक संभव और तार्किक जान पड़ता है कि शिवनाथ के बहाव की दिशा में यानि उद्गम क्षेत्र ऊपर राज और संगम की ओर खाल्हे राज के रूप में माना गया है।
छत्तीसगढ़ का काशी कहे जाने वाले खरौद के लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर में दर्शन और लाखा चांउर चढ़ाने की परंपरा है, जिसमें हाथ से 'दरा, पछीना और निमारा' गिन कर साबुत एक लाख चांवल मंदिर में चढ़ाए जाने की प्रथा है। इसी क्रम में लीलागर के नंदियाखंड़ में बसंत पंचमी पर कुटीघाट का प्रसिद्ध मेला भरता है। इस मेले में तीज की तरह बेटियों को आमंत्रित करने का विशेष प्रयोजन होता है कि इस मेले की प्रसिद्धि वैवाहिक रिश्तों के लिए 'परिचय सम्मेलन' जैसा होने के कारण भी है। बताया जाता है कि विक्रमी संवत की इक्कीसवीं शताब्दी आरंभ होने के उपलक्ष्य में रतनपुर में आयोजित श्री विष्णु महायज्ञ के पश्चात् इस क्षेत्र में सांकर और मुलमुला के साथ कुटीघाट में भी विशाल यज्ञ आयोजित हुआ जो मेले का स्वरूप प्राप्त कर प्रतिवर्ष भरता आ रहा है।
भौगोलिक दृष्टि से उत्तरी क्षेत्र में सरगुजा-कोरिया अंचल के पटना, बैकुण्ठपुर, चिरमिरी आदि कई स्थानों में गंगा दशहरा के अवसर पर मेला भरता है तो पुराने रजवाड़े नगरों में, विशेषकर जगदलपुर में गोंचा-दशहरा का मेला प्रमुख है, किन्तु खैरागढ़ के अलावा खंडुआ (सिमगा), ओड़ेकेरा और जैजैपुर में भी दशहरा के अवसर पर विशाल मेला भरता है और भण्डारपुरी में दशहरा के अगले दिन मेला भरता है। सारंगढ़ अंचल के अनेक स्थलों में विष्णु यज्ञों का आयोजन होता है और यह मेले का स्वरूप ले लेता है, जिन्हें हरिहाट मेला कहा जाता है और मकर संक्रांति पर जसपुर कछार (कोसीर), सहजपाली और पोरथ में मेला लगता है। मकर संक्रांति पर एक विशिष्ट परम्परा घुन्डइया मेला, महानदी में बघनई और सूखा नाला के संगम की त्रिवेणी के पास हथखोज (महासमुंद) में प्रचलित है। यहां भक्त स्त्री-पुरुष मनौती ले कर महानदी की रेत पर लेट जाते हैं और बेलन की तरह लोटने लगते हैं फिर रेत का शिवलिंग बना कर उसकी पूजा करते हैं। संकल्प सहित इस पूरे अनुष्ठान को 'सूखा लहरा' लेना कहा जाता है।
क्वांर और चैत्र मास के विभिन्न मेले
क्वांर और चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवरात्रियों पर भी मेला भरने का चलन पिछले सालों में बढ़ा है, इनमें झलमला (बालोद) में दोनों नवरात्रि पर बड़े मेले भरते हैं और रतनपुर में इस अवसर पर प्रज्ज्वलित होने वाले ज्योति कलशों की संख्या दस हजार पार कर जाती है। अकलतरा के निकट दलहा पहाड़ पर नागपंचमी का मेला होता है, जिसमें पहाड़ पर चढ़ने की प्रथा है। विगत वर्षों में कांवड़िया श्रद्धालुओं द्वारा सावन सोमवार पर शिव मंदिरों में जल चढ़ाने की प्रथा भी तेजी से बढ़ी है। पारम्परिक तिथि-पर्वों से हटकर सर्वाधिक उल्लेखनीय कटघोरा का मेला है, जो प्रतिवर्ष राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस पर 26 जनवरी को नियत है। रामकोठी के लिए प्रसिद्ध तेलीगुंडरा, पाटन में भी इसी अवसर पर मेला होता है।
माघ मास के विभिन्न मेले
आमतौर पर फरवरी माह में पड़ने वाला दुर्ग का हजरत बाबा अब्दुल रहमान शाह का उर्स, राजनांदगांव का सैयद बाबा अटल शाह का उर्स, लुतरा शरीफ (सीपत), सोनपुर (अंबिकापुर) और सारंगढ़ के उर्स का स्वरूप मेलों की तरह होता है। रायगढ़ अंचल में पिछली सदी के जनजातीय धार्मिक प्रमुख और समाज सुधारक गहिरा गुरु के मेले चिखली, सूरजगढ़, रेंगापाली, लेंध्रा, बरमकेला आदि कई स्थानों पर भरते हैं, इनमें सबसे बड़ा माघ सुदी 11 को ग्राम गहिरा (घरघोड़ा) में भरने वाला मेला है। इसी प्रकार कुदुरमाल (कोरबा), दामाखेड़ा (सिमगा) में माघ पूर्णिमा पर कबीरपंथी विशाल मेले आयाजित होते हैं तथा ऐसे कई अन्य कबीरपंथी जुड़ाव-भण्डारा सरगुजा अंचल में होते रहते हैं। दामाखेड़ा, कबीरपंथियों की महत्वपूर्ण गद्दी है, जबकि कुदुरमाल में कबीरदास जी के प्रमुख शिष्य धरमदास के पुत्र चुड़ामनदास एवं अन्य दो गुरूओं की समाधियां है। मेले के अवसर पर यहां धार्मिक अनुष्ठानों के साथ कबीरपंथी दीक्षा भी दी जाती है। गुरु घासीदास के जन्म स्थान गिरोदपुरी के विशिष्ट और विस्तृत पहाड़ी भू-भाग में फाल्गुन सुदी 5 से भरने वाले तीन दिवसीय विशाल मेले का समापन जैतखंभ में सफेद झंडा चढ़ाने के साथ होता है। एक लोकप्रिय गीत 'तूं बताव धनी मोर, तूं देखा द राजा मोर, कहां कहां बाबाजी के मेला होथे' में सतनामियों के गिरौदपुरी, खडुवापुरी, गुरुगद्दी भंडार, चटुआ, तेलासी के मेलों का उल्लेख है।
रामराम मेला
सिद्धमुनि आश्रम, बेलगहना में साल में दो बार- शरद पूर्णिमा और बसंत पंचमी को मेला भरता है। शरद पूर्णिमा पर ही बरमकेला के पास तौसीर में मेला भरता है, जिसमें अमृत खीर प्रसाद, शरद पूर्णिमा की आधी रात से सूर्योदय तक बंटता है। मान्यता है कि जो तीन साल लगातार यह प्रसाद खाता है वह आजीवन रोगमुक्त रहता है। यह उड़िया-छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक मेल-जोल का मेला है। कुदरगढ़ और रामगढ़, उदयपुर (सरगुजा) में रामनवमी पर बड़ा मेला भरता है। शंकरगढ़ का घिर्रा मेला पूस सुदी नवमी को होता है, जिसमें विभिन्न ग्रामों के रंग-बिरंगे ध्वजों के साथ 'ख्याला' मांगने की परम्परा है। लाठी और ढाल लेकर नृत्य तथा 'कटमुंहा' मुखौटेधारी भी आकर्षण के केन्द्र होते हैं। सरगुजा का 'जतरा' यानि घूम-घूम कर लगने वाला मेला अगहन मास के आरंभ से उमको होता हुआ सामरी, कुसमी, डीपाडीह, भुलसी, दुर्गापुर होकर शंकरगढ़ में सम्पन्न होता है। कुंवर अछरिया (सिंघनगढ़, साजा) और खल्लारी का मेला चैत पूर्णिमा पर भरता है।
भौगोलिक दृष्टि से उत्तरी क्षेत्र में सरगुजा-कोरिया अंचल के पटना, बैकुण्ठपुर, चिरमिरी आदि कई स्थानों में गंगा दशहरा के अवसर पर मेला भरता है तो पुराने रजवाड़े नगरों में, विशेषकर जगदलपुर में गोंचा-दशहरा का मेला प्रमुख है, किन्तु खैरागढ़ के अलावा खंडुआ (सिमगा), ओड़ेकेरा और जैजैपुर में भी दशहरा के अवसर पर विशाल मेला भरता है और भण्डारपुरी में दशहरा के अगले दिन मेला भरता है। सारंगढ़ अंचल के अनेक स्थलों में विष्णु यज्ञों का आयोजन होता है और यह मेले का स्वरूप ले लेता है, जिन्हें हरिहाट मेला कहा जाता है और मकर संक्रांति पर जसपुर कछार (कोसीर), सहजपाली और पोरथ में मेला लगता है। मकर संक्रांति पर एक विशिष्ट परम्परा घुन्डइया मेला, महानदी में बघनई और सूखा नाला के संगम की त्रिवेणी के पास हथखोज (महासमुंद) में प्रचलित है। यहां भक्त स्त्री-पुरुष मनौती ले कर महानदी की रेत पर लेट जाते हैं और बेलन की तरह लोटने लगते हैं फिर रेत का शिवलिंग बना कर उसकी पूजा करते हैं। संकल्प सहित इस पूरे अनुष्ठान को 'सूखा लहरा' लेना कहा जाता है।
क्वांर और चैत्र मास के विभिन्न मेले
क्वांर और चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवरात्रियों पर भी मेला भरने का चलन पिछले सालों में बढ़ा है, इनमें झलमला (बालोद) में दोनों नवरात्रि पर बड़े मेले भरते हैं और रतनपुर में इस अवसर पर प्रज्ज्वलित होने वाले ज्योति कलशों की संख्या दस हजार पार कर जाती है। अकलतरा के निकट दलहा पहाड़ पर नागपंचमी का मेला होता है, जिसमें पहाड़ पर चढ़ने की प्रथा है। विगत वर्षों में कांवड़िया श्रद्धालुओं द्वारा सावन सोमवार पर शिव मंदिरों में जल चढ़ाने की प्रथा भी तेजी से बढ़ी है। पारम्परिक तिथि-पर्वों से हटकर सर्वाधिक उल्लेखनीय कटघोरा का मेला है, जो प्रतिवर्ष राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस पर 26 जनवरी को नियत है। रामकोठी के लिए प्रसिद्ध तेलीगुंडरा, पाटन में भी इसी अवसर पर मेला होता है।
माघ मास के विभिन्न मेले
आमतौर पर फरवरी माह में पड़ने वाला दुर्ग का हजरत बाबा अब्दुल रहमान शाह का उर्स, राजनांदगांव का सैयद बाबा अटल शाह का उर्स, लुतरा शरीफ (सीपत), सोनपुर (अंबिकापुर) और सारंगढ़ के उर्स का स्वरूप मेलों की तरह होता है। रायगढ़ अंचल में पिछली सदी के जनजातीय धार्मिक प्रमुख और समाज सुधारक गहिरा गुरु के मेले चिखली, सूरजगढ़, रेंगापाली, लेंध्रा, बरमकेला आदि कई स्थानों पर भरते हैं, इनमें सबसे बड़ा माघ सुदी 11 को ग्राम गहिरा (घरघोड़ा) में भरने वाला मेला है। इसी प्रकार कुदुरमाल (कोरबा), दामाखेड़ा (सिमगा) में माघ पूर्णिमा पर कबीरपंथी विशाल मेले आयाजित होते हैं तथा ऐसे कई अन्य कबीरपंथी जुड़ाव-भण्डारा सरगुजा अंचल में होते रहते हैं। दामाखेड़ा, कबीरपंथियों की महत्वपूर्ण गद्दी है, जबकि कुदुरमाल में कबीरदास जी के प्रमुख शिष्य धरमदास के पुत्र चुड़ामनदास एवं अन्य दो गुरूओं की समाधियां है। मेले के अवसर पर यहां धार्मिक अनुष्ठानों के साथ कबीरपंथी दीक्षा भी दी जाती है। गुरु घासीदास के जन्म स्थान गिरोदपुरी के विशिष्ट और विस्तृत पहाड़ी भू-भाग में फाल्गुन सुदी 5 से भरने वाले तीन दिवसीय विशाल मेले का समापन जैतखंभ में सफेद झंडा चढ़ाने के साथ होता है। एक लोकप्रिय गीत 'तूं बताव धनी मोर, तूं देखा द राजा मोर, कहां कहां बाबाजी के मेला होथे' में सतनामियों के गिरौदपुरी, खडुवापुरी, गुरुगद्दी भंडार, चटुआ, तेलासी के मेलों का उल्लेख है।