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" लक्ष्य निर्धारण एक सम्मोहक भविष्य का रहस्य है " -टोनी रॉबिंस

Art & Music

नीरज की यादों का कारवां

Date : 27-Nov-2023

एक समय था जब पूरे देश में कवि सम्मेलनों और मुशायरों का आयोजन होता था। इनमें भाग लेने जहां बड़े-बड़े कवि और शायर पहुंचते , वहीं इन्हें देखने और सुनने के लिए हजारों लाखों लोग इकट्ठा होते थे। अनेक कवि और शायर इन मंचों पर अपना परचम लहराने के बाद फिल्मों तक भी पहुंचे और सफल हुए। प्रदीप, जां निसार अख्तर, कैफी आजमी,साहिर लुधियानवी, गोपाल सिंह नेपाली, शैलेंद्र, निदा फाजली, माया गोविंद, राहत इंदौरी, जावेद अख्तर आदि अनेक नाम गिनाए जा सकते हैं। इसमें एक और महत्वपूर्ण नाम गोपालदास नीरज का भी है। उनके लिखे गीत... कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे...। बस यही अपराध में हर बार करता हूं...। शोखियों में घोला जाए थोड़ा सा शबाब...। फूलों के रंग से दिल की कलम से...। खिलते हैं गुल यहां खिल के बिखरने को...। चूड़ी नहीं ये मेरा दिल है... या फिर ऐ भाई जरा देख के चलो...। आज भी बड़ी शिद्दत से सुने जाते हैं।

गोपालदास नीरज के पुत्र मिलन प्रभात "गुंजन " ने हाल ही में उन पर एक पुस्तक नीरज की यादों का कारवां शीर्षक से लिखी है। इसे हिंद पॉकेट बुक्स ने प्रकाशित किया है। इस पुस्तक में उन्होंने उनके अभावग्रस्त बचपन, पूरे जीवन संघर्ष और उनकी काव्य यात्रा उनके कवि सम्मेलनों उनका फिल्मों में पहुंचना, उनके ज्योतिष ज्ञान और अटल बिहारी वाजपेयी जी से उनके खास संबंध और उनके जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं पर भी विस्तार से चर्चा की है।

नीरज का जन्म चार फरवरी, 1925 को पुरावली ( इटावा ,उत्तर प्रदेश) में हुआ था। जब वह छह वर्ष के थे तभी उनके पिता गुजर गए । उनकी मां अपने पिता के पास इटावा चली आईं। आर्थिक हालत ठीक नहीं थे, इसलिए नीरज और उनके बड़े भाई को पढ़ने के लिए उनकी बुआ ने अपने पास एटा बुला लिया । सब ठीक ही चल रहा था लेकिन अचानक किसी रिश्तेदार द्वारा झूठी चोरी का इल्जाम लगाकर उनकी अलमारी की तलाशी लेने से दोनों भाई इतने आहत हुए कि तुरंत एटा छोड़कर साइकिल से ही घर वापस इटावा आ गए।

बाद में गोपालदास को समझा-बुझा कर एटा भेजा गया और उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा यहीं से पूरी की। 1942 में उन्होंने हाई स्कूल पास किया। पिता के प्यार से तो वह पहले से ही अनजान थे पर बचपन में जो मां का , भाइयों एवं परिवार का प्यार मिलना चाहिए था वह परिवार की भलाई के खातिर उनको त्यागना पड़ा। यहीं से उनको अपने जीवन में प्रेम की कमी का एहसास होना शुरू हुआ जो उनके अंतर्मन में एक मनोग्रंथि बनकर विकसित होती गई और आगे चलकर उनकी कविताओं में प्रतिबिंबित भी हुई।

इटावा में जीवनयापन के लिए उन्होंने कचहरी में टाइपिंग का काम किया और फिर दिल्ली में सप्लाई विभाग में टाइपिंग की नौकरी मिलने पर दिल्ली आ गए। उसे समय उनकी तनख्वाह 67 रुपये थी जिसमें से वे 40 रुपये इटावा भेज देते थे। इस बीच वे कवि सम्मेलनों में निरंतर भाग ले रहे थे। किसी कवि सम्मेलन में उनकी कविता सुनकर हफीज जालंधरी जी ने उनको सॉन्ग एंड ड्रामा डिवीजन में 110 रुपये की नौकरी लगवा दी। लेकिन अंग्रेजों के खिलाफ कविता लिखने के कारण यह नौकरी भी जाती रही।

फिर वह कानपुर आ गए और डीएवी कॉलेज में क्लर्क की नौकरी करने लगे। इस बीच 17 नवंबर 1945 को उनकी शादी सावित्री देवी से हुई। अलग-अलग नौकरी करते हुए उन्होंने प्राइवेट इंटर और 1951 में बीए प्रथम श्रेणी में पास कर लिया । इसके बाद मेरठ, कानपुर में कुछ समय नौकरी करने के बाद अंत में वे अलीगढ़ के डीएवी कॉलेज में पढ़ाने लगे। उनका पूरे देश के कवि सम्मेलनों में आना-जाना लगा रहता था और वह खूब चर्चित और पसंद भी किए जाने लगे थे।

इसी बीच बंबई (मुंबई) के बिरला मातुश्री सभागार में 9 फरवरी 1960 को एक प्रोग्राम नीरज गीत गुंजन के नाम से हुआ जिसके मुख्य अतिथि यशवंत राव चौहान थे । इस प्रोग्राम में श्री आर चंद्रा जो कि अलीगढ़ के ही रहने वाले थे ने नीरज जी के कविता पाठ से प्रभावित हो उन्हें फिल्मों में लिखने के लिए मुंबई आमंत्रित किया। इस समय तक चंद्रा जी की एक फिल्म बरसात की रात रिलीज हो चुकी थी जिसमें उनके भाई भारत भूषण हीरो थे। नीरज जी मुंबई रहने के लिए तो नहीं माने लेकिन गीत लिखने के लिए तैयार हो गए वह भी इस शर्त पर कि जब गाने की रिकॉर्डिंग होगी तब वह मुंबई आ जाएंगे। इस तरह नई उमर की नई फसल फिल्म बनी और उसमें उनके मशहूर गीत कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे... का इस्तेमाल किया गया। इस फिल्म की ज्यादातर शूटिंग अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में हुई इसमें तनुजा ने हीरोइन का रोल किया था और चंद्रा के बेटे राजीव को इस फिल्म से लांच किया गया था।

फिल्म के गाने तो बहुत हिट हुए हैं लेकिन फिल्म सफल नहीं हो पाई। नीरज के गाने लोकप्रिय होने के कारण और लोग भी उनको फिल्मों में गीत लिखने के लिए बुलाने लगे। उसके बाद चा चा चा फिल्म के लिए उन्होंने कुछ गीत लिखे और सती नारी का एक गीत भी बहुत लोकप्रिय हुआ। इस तरह मझली दीदी, दुल्हन एक रात की, तू ही मेरी जिंदगी आदि फिल्मों के गीत भी खूब पसंद किए गए। आखिरकार 1966 में नीरज जी मुंबई शिफ्ट हो गए। फिर तो कन्यादान, पहचान, लाल पत्थर उमंग, पतंगा, कल आज और कल, मेरा नाम जोकर जैसी फिल्मों के कालजयी गीत उन्होंने लिखे। 1969 में उन्हें चंदा और बिजली के लिए बेस्ट गीतकार का फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला। उसके बाद देवानंद ने उनसे प्रेम पुजारी के गीत लिखवाए । बाद में देवानंद की तीन और फिल्मों तेरे मेरे सपने, गैंबलर और छुपा रुस्तम के गीत भी उन्होंने लिखे। इनके संगीतकार सचिन देव बर्मन थे । शर्मीली फिल्म में भी सचिन देव बर्मन का ही म्यूजिक था । उनका यह फिल्मी सफर 1972 तक खूब अच्छी तरह चला।

नीरज ने करीब 40 फिल्मों में गीत लिखे और मेघा, गीतांजलि मधुर, मदिर जल जैसे हिंदी शब्दों का प्रयोग किया जिन्हें जनता ने भी बहुत पसंद किया। जब लोगों ने उनसे फिल्म इंडस्ट्री छोड़ने के बारे में पूछा तो उनका कहना था कि मेरे गीत को जो लोग अच्छी तरह से समझते थे उसकी आत्मा को पहचानते थे जैसे सचिन देव बर्मन, शंकर जय किशन के असमय गुजर जाने से में मायूस हुआ हूं। हालांकि उन्होंने बाद में भी कुछ फिल्मों के लिए लिखा। 1996 में महेश भट्ट की फिल्म फरेब में उनके दो गाने काफी लोकप्रिय हुए थे। अपने गीतों के जरिए आम आदमी के जज्बात को जुबान देने वाले लोकप्रिय कवि नीरज की रचनाओं में जमाने का दुख दर्द तो सांस लेता ही था बल्कि प्रेम और प्यार के नए प्रतीक भी सामने आते थे। उन्होंने हमेशा अपने दिल की बात सुनी और कभी भी कविता के स्तर से समझौता नहीं किया। लगातार सात दशकों तक काव्य मंच पर अपनी कामयाब पारी के बाद 19 जुलाई 2018 को वे हमारे बीच नहीं रहे ।

चलते-चलते-

बहुत कम लोगों को पता होगा कि नीरज ने एक फिल्म में अभिनय भी किया है। उन दिनों वे काफी पतले-दुबले थे। फिल्म का नाम था पहचान । फिल्म में चांद उस्मानी एक ऐसी तवायफ बनी थीं जिनके कई आशिक हैं। उन्ही में से एक जो अपना सब कुछ उसके ऊपर लूट चुका है। अब न उसके पास पैसा है। न ही सर छुपाने की जगह। इसलिए वह तवायफ के कोठे के सामने गाकर लोगों को आगाह करता रहता है कि यहां पर मत आओ, क्योंकि यहां सिर्फ पैसा मायने रखता है न की प्रेम। उन पर फिल्माए गए उन्हीं के गीत के बोल थे... पैसे की पहचान यहां इंसान की कीमत कोई नहीं.../ बच के निकल जा इस बस्ती से करता मोहब्बत कोई नहीं ...।

लेखक - अजय कुमार शर्मा
(लेखक, वरिष्ठ साहित्य एवं कला समीक्षक हैं।)

 
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