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विश्व संवाद केंद्र- अरावली मोशन की ओर से "बस्तरः द नक्सल स्टोरी" फिल्म का प्रीमियर आयोजित

Date : 14-Mar-2024

विश्व संवाद केंद्र और फिल्म सोसाइटी अरावली मोशन की ओर से 15 मार्च को रिलीज होने जा रही फिल्म 'बस्तर' के प्रीमियर का आयोजन सिने पोलिस, वर्ल्ड ट्रेड पार्क, जयपुर में किया गया। प्रीमियर में फिल्म निर्माताओं का भी सहयोग रहा। फिल्म देखने के लिए फिल्म जगत से जुड़े लोगों के अतिरिक्त मीडिया जगत के लोग भी उपस्थित थे। समाज के बुद्धिजीवी एवं सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों ने भी फिल्म देखी।

फिल्म की पृष्ठभूमि छत्तीसगढ़ के बस्तर में नक्सलवादी गतिविधियों एवं क्षेत्र के वनवासियों की समस्याओं पर आधारित है। फिल्म में दिखाया गया है कि किस प्रकार वहां के आदिवासियों के जीवन में नक्सलवाद के कारण समस्याएं आ रही हैं। फिल्म देखने के बाद दर्शकों ने फिल्म के संबंध में अपने विचार भी रखे। दर्शकों के साथ आयोजनकर्ता विश्व संवाद केंद्र और अरावली मोशन के सदस्य भी उपस्थित रहे। इसी के साथ विभिन्न विषयों पर स्वाध्याय आयोजित करने वाले जयपुर में कार्यरत युवाओं के एक समूह 'सोशल थिंकर' के सदस्य भी कार्यक्रम में उपस्थित रहे।

फिल्म समीक्षक राम मनोहर शर्मा ने बताया कि "बस्तरः द नक्सल स्टोरी" अदाह शर्मा अभिनीत एक शानदार फ़िल्म है, जिसका निर्देशन सुदीप्तो सेन ने किया है। फिल्म की कहानी कोर्टरूम से शुरू होती है और नक्सलवाद के वीभत्स सत्य को दिखाती हुई झोंपड़ीयों से आती रौशनी पर खत्म होती है। 124 मिनट की यह फिल्म भारत के लेफ्ट लिबरल इकोसिस्टम और नक्सली नेक्सस का ऐसा डरावना सच दिखाती है, जिसको आजतक जानबूझकर छिपाया गया है। फिल्म के "सत्ता पर कब्जा करना है तो सिस्टम पर कंट्रोल करना होगा" जैसे डायलॉग और देश के गृहमंत्री से बेबाक बात करती आईपीएस नीरजा माधवन के दृश्य इतने प्रभावशाली है कि पहले 15 मिनट में ही आपको समझ आ जाता है, कि इस फिल्म को देखने के लिए दिमाग को दिमाग की जगह ही रखना पड़ेगा, घुटनों में रखकर देखने से काम नहीं चलेगा।

नक्सलियों द्वारा बस्तर में तिरंगा फहराने पर एक व्यक्ति के हाथ काट देना, उसके बेटे को नक्सली बनाना, छोटे बच्चे को टांग पकड़कर जलते घर की छत पर फेंक देना, एक व्यक्ति के शरीर को उसकी पत्नी के सामने कुल्हाड़ी से छोटे छोटे टुकड़ों में काटकर उसके रक्त से स्तंभ को रंगने के लिए मजबूर करना,नेता को गोलियों से छलनी करके उसको लातों से मारना, 48 घंटे ड्यूटी के बाद थककर सोते हुए 76 सीआरपीएफ के जवानों को गोलियों से भूनने के कुछ दृश्य अत्यंत वीभत्स है, जो नक्सली हिंसा की वास्तविकता को दिखाने के लिए कहानी की मांग है। फिल्म कोर्टरूम में सलवा जुडूम के मामले की सुनवाई से शुरू होती है, और नक्सलियों के लिए काम करने वाले अर्बन नक्सल्स, विदेशी एजेंट्स, राजनेताओ, हथियारों की सप्लाई, और देश में "नक्सल सपोर्ट सिस्टम" की परते खोलते हुए आगे बढ़ती है। फिल्म दिखाती है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रो की जो कहानी हमें आज तक मीडिया, लेफ्ट लिबरल, कम्युनिस्ट नेता और इस विषय पर बनी कुछ फिल्में दिखाती आई है, वास्तविकता ठीक उसके विपरीत है। फिल्म में एक ऐसा मोड़ आता है, जहां एक ब्रेनवॉश्ड बेटा उन्ही नक्सलियों के लिए अपनी मां पर बन्दूक तान देता है, जिन नक्सलियों ने उसके पिता को छोटे छोटे टुकडो में काट दिया था। यह दृश्य रोंगटे खड़े करने वाला है। फिल्म में राजनीति के अच्छे और बुरे दोनों पक्षों को दिखाया गया है, कि कैसे बुरी राजनीति नक्सल समस्या का समाधान नहीं चाहती और अच्छी राजनीति को अपना शिकार बनाती है। फिल्म का एक जबरदस्त सीन है जिसमे भारत के एक बड़े विश्वविद्यालय का नाम लिए बिना सुकमा की नक्सली हिंसा में शहीद 76 सीआरपीएफ जवानों की शहादत पर अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते हुए उत्सव मनाया जाता है। फ़िल्म संविधान के नाम पर दलित राजनीति करने वालों की भी पोल खोलती है। नक्सलियों को मिलने वाली फंडिंग, हथियार, "सिस्टम सपोर्ट", न्यायपालिका आदि विषयों को भी प्रभावी तरीके से फ़िल्म में दिखाया गया है। सारी स्टारकास्ट "फिट टू कैरेक्टर" है। रत्ना के रॉल में इंदिरा तिवारी का अभिनय कई स्थानों पर अदाह शर्मा के अभिनय पर भारी पड़ता है। सुव्रत दत्ता का किरदार भी शानदार है साथ ही नेगेटिव रोल में राइमा सेन का अभिनय भी प्रशंसनीय है। लोकेशन के साथ साथ फ़िल्म का एक एक दृश्य और बैकग्राउंड म्यूजिक इतना परफेक्ट है कि दर्शकों को अपनी कुर्सी से हिलने पर भी अपराध की अनुभूति करा दे। कुलमिलाकर यह एक शानदार फिल्म है जिसको प्रत्येक भारतीय को देखनी चाहिए।

 

 
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