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प्राचीन काल में ईरान को 'आर्यान' शब्द से संबोधित करते थे

Date : 02-Mar-2024

ईरान शब्द वास्तव में "आर्य स्थान" शब्द का बिगड़ा हुआ रूप है। प्राचीन काल में इसे 'आर्यान' शब्द से संबोधित किया जाता था। भारतीय 'आर्य' लोग ही ईरान में जाकर आबाद हुए थे। इसी से उस देश का नाम "आर्यान/ आर्य स्थान" पड़ा था जो अब बिगड़ते- बिगड़ते ईरान हो गया।

इतिहास विद डॉ. अखिलेश चंद शर्मा - "विश्व सभ्यताओं का जनक: भारत" में  ( स्वामी विद्यानंद सरस्वती ,सत्यार्थ भास्कर के हवाले से) लिखते हैं कि-  " ईरान में अयातुल्लाह खोमेनी सन 1979 से पूर्व वहां की भूगोल की पुस्तक में पढ़ाया जाता था कि-   चंद हजार साल पेश जमाना मंजीरा बुजुर्गी अज निजाद आर्या अज कोहहय कफ् काज गुजिशत: बर सर जमीने कि इमरोज़ मसकने मास्त कदम निहादंद । ब चू आबो हवाय ई सर जम्रीरा मुआफिक तबअ खुद याफ्तंद दरीं जा मसक्ने गुजिदन्न ब आरा बनाम खेश ईरान खयातनद। "  
ईरान के बादशाह अपने नाम के साथ " आर्य मेहर" की उपाधि लगाते रहे हैं। फारसी में ' मेहर' 'सूर्य' को कहते हैं । ईरान के लोग अपने को सूर्यवंशी आर्य मानते रहे हैं। ईरान के राजा अपने आपको 'पहलवी' ही कहते रहे। सन 1978 तक ईरान के राजा का नाम मोहम्मद रजा शाह पहलव ही था। उल्लेखनीय है कि पल्लव या पहलव लोग भारतीय आर्य क्षत्रिय ही थे। मनुस्मृति में 'पहलव' शब्द का वर्णन इस प्रकार आता है- 
प्राचीन ईरान में अग्नि पूजा होती थी और हिंदू प्रथा परंपराएं प्रचलित थी। पारसी समाज में अग्नि पूजा अभी भी हिंदुओं के अग्निहोत्र की ही तरह प्रचलित है। चंदन का उपयोग और चौक पूरना पूर्णतया भारतीय परंपरा के अनुरूप है। ईरानी जनता पुनर्जन्म पर विश्वास करती थी। श्रद्धा पूर्वक अग्निहोत्र, गौ पूजा ,यज्ञोपवीत धारण करती थी। वहां भारतीय वर्ण व्यवस्था का प्रचलन था। 
ईरान में बसे हुए पारसी लोग वस्तुत भारत से ही गए थे जर्मन विद्वान मैक्स मूलर ने इस तत्व को स्वीकार है और भारतीय मूल के ,भारतीय सभ्यता के अनुयाई के रूप में प्रतिपादित किया है। " नम:जरदुस्त " पारसी धर्म ग्रंथ में महर्षि व्यास हैं । कितने ही संस्कृत शब्द तो फारसी के भारतीय अर्थ में प्रयुक्त होते हैं जैसे इष्टी,गाथा,गन्धर्व,पशु गौ ,रथ, नमस्ते, यव आदि । 
हदीसो में भारत को " हिंदुस्तान जन्नत निशक" अर्थात "स्वर्ग तुल्य भारत" कहकर सम्मानित किया गया है। इस्लाम का एकेश्वरवाद का सिद्धांत व्यास के वेदांत सिद्धांत के प्रकाश में विकसित हुआ माना जाता है। सूफी संप्रदाय पर 'वेदांत' की गहरी छाप है। अरबी में 'वेदपा' की बुद्धिमानी का बार-बार उल्लेख आता है। विश्लेषण कर्ताओं ने 'वेद्पा' का तात्पर्य 'वेद व्यास' को मना है। 
यह सच है कि संसार में अनेक नृवंशो के लोग हैं, जो आपस में एक- दूसरे से नहीं मिलते। जिनके पंथ अलग-अलग हैं। जिनकी आदतों और विचारों में कोई समानता नहीं है । लेकिन दुनिया के मतो, विचारों का गहराई से किया गया सर्वेक्षण उससे बड़े सच को प्रकट करता है।  ये सभी मिलकर किसी एक के प्रति अपना सर सम्मान से झुका रहे हैं। कोई एक जगह ऐसी भी है, जहां सभी विचार अपने सारे विरोध छोड़कर एक होने के लिए लालायित हैं। यह एक जगह कौन सी है ? इस बारे में यदि हम प्रो. मैक्समूलर से सवाल करें तो उन्हीं के शब्दों में उनका जवाब है - " मै सीधा संकेत भारत की ओर करूंगा... क्योंकि नीले आसमान के नीचे यही वह भू-भाग है, जहां विचार समग्र रूप से विकसित हुए हैं। "
युगऋषि ,वेदमूर्ति पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं कि- "   विभिन्न रूपों में -  विभिन्न पद्धतियों में -  विभिन्न देशों में देव संस्कृति के ये सभी चिंतन स्वर जिस एक बात का उद्घोष करते हैं वह है उसका अपनत्व और यही वह पृष्ठभूमि है। जो इसे विश्व संस्कृति का गौरव प्रदान करेगी। संस्कृति का उद्देश्य हृदय पर अधिकार पाना है और हृदय की राह समरभूमि की लाल कीच नहीं, सहिष्णुता का शीतल प्रदेश है ,उदारता का उज्जवल क्षीर समुद्र है। ऋषि -चिंतन की वही ऊर्जस्विता  विश्व मानव को वैचारिक संघर्ष से मुक्ति देगी। कल का भविष्य जिस महानतम आश्चर्य को साकार करेगा वह है संसार की सभी विचारधाराओं का अपने मूल स्वर से सामंजस्य। इसी घटना के साथ विश्व संस्कृति के चिंतन स्वर गूँज उठेंगे " समानोमंत्र: समिति समानी ,समानो मन:सह चित्त मेंषाम्ं " सब लोग एक विचार वाले हो जाएं ,सभी के मन एक समान हो जाएं ,सभी के चित्त में एक से संवेदन उठने लगे । यही वैदिक दर्शन की मान्यता रही है व यही अगले दिनों साकार रूप लेने जा रही है।" 
 
 
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