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7 मई जयंती विशेष: रवीन्द्रनाथ टैगोर की उपलब्धियां और योगदान

Date : 07-May-2024

 

रवीन्द्रनाथ ठाकुर अथवा रवीन्द्रनाथ टैगोर एक बांग्ला कवि, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार और चित्रकार थे। भारतीय संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ रूप से पश्चिमी देशों का परिचय और पश्चिमी देशों की संस्कृति से भारत का परिचय कराने में टैगोर की बड़ी भूमिका रही तथा आमतौर पर उन्हें आधुनिक भारत का असाधारण सृजनशील कलाकार माना जाता है।
 
 रवीन्द्रनाथ  टैगोर का जन्म 7 मई, 1861 कलकत्ता में देवेंद्रनाथ टैगोर और शारदा देवी के पुत्र के रूप में एक संपन्न बांग्ला परिवार में हुआ था। बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री टैगोर सहज ही कला के कई स्वरूपों की ओर आकृष्ट हुए जैसे- साहित्य, कविता, नृत्य और संगीत।
 
दुनिया की समकालीन सांस्कृतिक रुझान से वे भली-भाँति अवगत थे। साठ के दशक के उत्तरार्ध में टैगोर की चित्रकला यात्रा शुरू हुई। यह उनके कवित्य सजगता का विस्तार था। हालांकि उन्हें कला की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी उन्होंने एक सशक्त एवं सहज दृश्य शब्दकोश का विकास कर लिया था। श्री टैगोर की इस उपलब्धि के पीछे आधुनिक पाश्चात्य, पुरातन एवं बाल्य कला जैसे दृश्य कला के विभिन्न स्वरूपों की उनकी गहरी समझ थी।
 
 रवीन्द्रनाथ  टैगोर की स्कूल की पढ़ाई प्रतिष्ठित सेंट ज़ेवियर स्कूल में हुई। टैगोर ने बैरिस्टर बनने की चाहत में 1878 में इंग्लैंड के ब्रिजटोन पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने लंदन कॉलेज विश्वविद्यालय में क़ानून का अध्ययन किया लेकिन 1880 में बिना डिग्री हासिल किए ही वापस आ गए।  रवीन्द्रनाथ  टैगोर को बचपन से ही कविताएँ और कहानियाँ लिखने का शौक़ था। 
 
दो-दो राष्ट्रगानों के रचयिता रवीन्द्रनाथ टैगोर के पारंपरिक ढांचे के लेखक नहीं थे। वे एकमात्र कवि हैं, जिनकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं- भारत का राष्ट्र-गान जन गण मन और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बांग्ला गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं। वे वैश्विक समानता और एकांतिकता के पक्षधर थे। ब्रह्मसमाजी होने के बावज़ूद उनका दर्शन एक अकेले व्यक्ति को समर्पित रहा। चाहे उनकी ज़्यादातर रचनाएँ बांग्ला में लिखी हुई हों। एक ऐसे कलाकार जिनकी रगों में शाश्वत प्रेम की गहरी अनुभूति है|
 
अपनी कल्पना के पात्रों के साथ रवीन्द्रनाथ की अद्भुत सहानुभूतिपूर्ण एकात्मकता और उसके चित्रण का अतीव सौंदर्य उनकी कहानी को सर्वश्रेष्ठ बना देते हैं जिसे पढ़कर द्रवित हुए बिना नहीं रहा जा सकता। 
समाज में महिलाओं का स्थान तथा नारी जीवन की विशेषताएँ उनके लिए गंभीर चिंता के विषय थे और इस विषय में भी उन्होंने गहरी अंतर्दृष्टि का परिचय दिया है।


रवीन्द्रनाथ टैगोर की उपलब्धियाँ
 
•रवीन्द्रनाथ टैगोर की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक 1913 की है, जब वह साहित्य के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार जीतने वाले पहले गैर-यूरोपीय बने। 
•1915 में ब्रिटिश सरकार की नजरों में उनके सम्मानजनक स्थान के कारण उन्हें 'नाइटहुड' की उपाधि से सम्मानित किया गया। हालाँकि, चार साल बाद, 1919 में, अंग्रेजों ने 'जलियाँवाला बाग नरसंहार' किया और इस तरह के विद्रोह का विरोध करने के लिए, उन्होंने अपनी नाइटहुड की उपाधि त्याग दी। 
•शांतिनिकेतन की स्थापना - देबेंद्रनाथ टैगोर ने पहले जमीन खरीदी थी, जिसे बाद में वर्ष 1902 में रबींद्रनाथ ने अपने पिता की संपत्ति पर एक प्रायोगिक स्कूल खोलने के लिए 'आश्रम' की स्थापना के लिए स्थानांतरित कर दिया था। 
•वह कविताओं के व्यापक संग्रह वाले एक अच्छे कवि थे। उन्होंने 2200 से अधिक गाने बनाये हैं।
•वह चित्रकला में भी निपुण थे और उनके नाम पर 2300 से अधिक कलाकृतियाँ हैं। इसके अतिरिक्त, वह एक उत्साही यात्री थे। अपने जमाने में उन्होंने लगभग 34 देशों की यात्रा की थी।
•भारत में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने 20 दिसंबर 1915 को एक विशेष दीक्षांत समारोह में उन्हें डॉक्टर ऑफ लिटरेचर की उपाधि देकर सम्मानित किया।
•07 अगस्त 1940 को, भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश सर मौरिस ग्युर को ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि के रूप में शांतिनिकेतन का दौरा करने और उन्हें 'ऑक्सफोर्ड डॉक्टरेट' से सम्मानित करने का गौरव प्राप्त हुआ।   
 
योगदान:
•माना जाता है कि उन्होंने 2000 से अधिक गीतों की रचना की है और उनके गीतों एवं संगीत को 'रबींद्र संगीत’  कहा जाता है।
•उन्हें बंगाली गद्य और कविता के आधुनिकीकरण हेतु उत्तरदायी माना जाता है।
•उनकी उल्लेखनीय कृतियों में गीतांजलि, घारे-बैर, गोरा, मानसी, बालका, सोनार तोरी आदि शामिल हैं, साथ ही उन्हें उनके गीत 'एकला चलो रे’ के लिये भी याद किया जाता है।
•उन्होंने अपनी पहली कविताएं ‘भानुसिम्हा’ उपनाम से 16 वर्ष की आयु में प्रकाशित की थीं।
•उन्होंने न केवल भारत और बांग्लादेश हेतु राष्ट्रगान की रचना की बल्कि श्रीलंका के राष्ट्रगान को कलमबद्ध करने तथा उसकी रचना करने हेतु एक श्रीलंकाई छात्र को प्रेरित किया।
•साहित्यिक उपलब्धियों के अलावा वे एक दार्शनिक और शिक्षाविद भी थे, जिन्होंने वर्ष 1921 में विश्व-भारती विश्वविद्यालय की स्थापना की जिसने पारंपरिक शिक्षा को चुनौती दी।
 
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