"धर्मचक्रप्रवर्तन में भगवान् बुद्ध ने कहा - एस धम्मो सनंतनो"
Date : 23-May-2024
"धर्मचक्रप्रवर्तन में भगवान् बुद्ध ने कहा - एस धम्मो सनंतनो"
एक लंबे अरसे से बुद्धि विकार से ग्रस्त तथाकथित सेक्यूलर बौद्ध विद्वान और उनके चिरकुट मौसेरे भाई - बहिन वामपंथी भगवान् बुद्ध के विचारों का प्रकारांतर से छिद्रान्वेषण कर बुद्ध धर्म को सनातन धर्म से पृथक बताने की कुचेष्टा करते रहे हैं और कर रहे हैं, परंतु भगवान् बुद्ध ने जब ‘धर्म-चक्र प्रवर्तन’ किया तो इसका कोई संकेत नहीं दिया कि वह पहले की कोई परंपरा तोड़ रहे हैं।विपरीत उन्होंने कहा-‘एसो धम्मो सनंतनो’। अर्थात यही सनातन धर्म है, जिसे वे पुर्नव्याख्यायित मात्र कर रहे हैं। बुद्ध के संबोधन अपनी वैदिक जड़ों से मजबूती से जुड़े दिखते हैं। ‘हे ब्राह्मणों ’, ‘हे भिक्षुओं’, ‘हे आर्य’, आदि कहकर ही बुद्ध अपनी बातें कहते रहे। आर्य अर्थात भद्र, सभ्य, सज्जन। वस्तुतः सनातन धर्म की हानि रोकना यही भगवान् बुद्ध ने किया जो स्थापित हिंदू चेतना है। जिस तरह पहले भगवान् श्रीराम, भगवान् श्रीकृष्ण, आदि शंकराचार्य, संत रामानंद, संत कबीर या स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने उपदेशों से कोई नया धर्म नहीं चलाया उसी श्रेणी में गौतम बुद्ध का जीवन और कार्य है।
भगवान् विष्णु के अंशावतार "गौतम बुद्ध"(तथागत) का अवतरण वैशाख पूर्णिमा (बुद्ध पूर्णिमा) को हुआ था।आपके द्वारा व्याख्यायित बौद्ध धर्म, सनातन धर्म का ही मूल है। सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध) का अवतरण कपिलवस्तु के लुंबिनी ग्राम(563 ई. पू.) में हुआ। पिताश्री का नाम शुद्धोधन एवं माताश्री का नाम महामाया था। सहधर्मचारिणी यशोधरा एवं पुत्र राहुल थे। महापरिनिर्वाण कुशीनारा (483 ई. पू.)में हुआ।सनातन के मूल निहित स्वर्णिम मध्यम मार्ग के आलोक में "बौद्ध धर्म" के संस्थापक थे। तथागत के जीवन में सम संख्या और विशेषकर चार का विशेष संयोग रहा है -चार पूर्णिमा(जन्म से निर्वाण तक , चार घटनायें जिनके कारण 29 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग किया, चार महत्वपूर्ण जीवन के पड़ाव महाभिनिष्क्रमण अर्थात् गृह त्याग), संबोधि अर्थात् बोध गया में निरंजना नदी के किनारे पीपल के वृक्ष के नीचे छह वर्ष की तपस्या फलीभूत हुई। धर्मचक्रप्रवर्तन अर्थात् सारनाथ में प्रथम उपदेश और निर्वाण, चार आर्य सत्य , चार बौद्ध संगीतियाँ क्रमशः राजगृह, वैशाली, पाटलिपुत्र और कुण्डलवन में हुईं । वैंसे आष्टांगिक मार्ग, जो कि छांदोग्य उपनिषद से लिए गए हैं,और दस शील के सिद्धांत भी सम संख्या हैं, जो सनातन धर्म से उद्भूत है । वहीं त्रिरत्न क्रमशः बुद्ध, धम्म और संघ) तथा त्रिपिटक क्रमशः विनयपिटक, अभिधम्मपिटक,और सुत्तपिटक पालि भाषा में विषम संख्या में अभिव्यक्त हैं, ये संख्या भी सनातन के माहात्म्य का प्रतीक हैं ।
इक्ष्वाकु, मनु के ही ज्येष्ठ पुत्र का वंश है। इसे अमान्य करने और अपने को पृथक करने की घोषणा या उल्लेख भगवान् बुद्ध ने कभी नहीं की। बुद्धिज्म में वैदिक मंत्रों की तरह ही हृदय-सूत्र का पाठ किया जाता है, जिसमें अंत में ‘सोवाका’ अर्थात ‘स्वाहा’ भी कहते हैं, लेकिन कर्म-कांड छोड़ना कोई नई बात नहीं थी जो बुद्ध ने प्रारंभ की। ज्ञान पाने के लिए बुद्ध ने अनेक तरह के प्रयत्न किए, यह उनकी जीवन-गाथा बताती है। किसी चर्या, साधना को स्वीकार करना या छोड़ देने का उपक्रम भारत में कोई नई बात नहीं है। उससे कोई हिंदू नहीं रह जाता, ऐसा कभी नहीं समझा गया है। ज्ञान पाना, बोध होना, ‘बुद्ध’ बनना यह पहले भी हुआ है, इसे गौतम बुद्ध ने भी कहा है।सनातन धर्म की अनंत विमाएं हैं, जो आगे भी पल्लवित पुष्पित होकर विकसित होती रहेंगी, जिसमें गौतम बुद्ध पारिजात (हरसिंगार) पुष्प हैं। वायु पुराण में एक श्लोक लिखा है, कि
लेखक - डॉ आनंद सिंह राणा