जगदलपुर, 22 अप्रैल । विश्व अर्थ दिवस के अवसर पर बस्तर के आदिवासियों की जीवन शैली अनुकरणीय है। उनकी संस्कृति, आर्थिक जीवन, धार्मिक मान्यताएं और सामाजिक व्यवस्थाएं सभी प्रकृति से जुड़ी हैं। यह उनकी पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, वे इसे संरक्षित करने एवं बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
बस्तर के आदिवासी प्रकृति के बारे में गहरा ज्ञान रखते हैं, जो उनके जीवन निर्वाह के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करने में मदद करता है। बस्तर के आदिवासियों का आर्थिक जीवन मुख्य रूप से कृषि, वन संसाधनों और शिल्पकला पर निर्भर करता है। बस्तर के आदिवासियों की धार्मिक मान्यताएं प्रकृति पूजा और ग्राम देवता की पूजा एवं सामाजिक व्यवस्था संयुक्त परिवार प्रणाली और पंचायत व्यवस्था पर आधारित है। बस्तर की कला और संस्कृति में प्रकृति का गहरा प्रभाव है। बस्तर की कलाकृति में प्राकृतिक तत्व जैसे पेड़, जानवर, पक्षी आदि शामिल हैं। बस्तर के आदिवासियों के जीवन में प्रकृति एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।बस्तर के आदिवासी आज भी प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर जीवन जी रहे हैं। उनके दैनिक जीवन की हर छोटी-बड़ी चीजाें में धरती माता के प्रति सम्मान प्रर्दशित करते है।
सुबह से रात तक प्रकृति के साथ कई आदिवासी गांवों में लोग आज भी नीम के दातून उपयोग करते हैं, मिट्टी या राख से बर्तन मांजते हैं, और दोने-पत्तल में भोजन, साबुन की जगह रीठा, शिकाकाई और मुल्तानी मिट्टी का इस्तेमाल आम बात है। ये सारी चीजें पर्यावरण के साथ शरीर के लिए भी फायदेमंद है। बस्तर की महिलाएं बांस की टोकरी, पत्तल-दोना और प्राकृतिक रंगों से चीजें बनाकर शहरों में बेचती हैं। आदिवासी आज भी समाज को प्लास्टिक और अन्य हानिकारक चीजों से बचाव का विकल्प दे रहे हैं। युवा आदिवासी अब सोशल मीडिया का उपयोग कर इस जीवनशैली का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं।
वहीं दूसरी ओर शहरी जीवनशैली में प्लास्टिक, केमिकल्स और प्रदूषण का बोलबाला है। पढ़े-लिखे समाज में आधुनिकता की दौड़ में प्लास्टिक, कैमिकल युक्त उत्पाद और फास्ट फूड जैसी चीजें आम हो गई हैं। इसका सीधा असर पर्यावरण पर दिख रहा है। प्लास्टिक कचरे के पहाड़, प्रदूषित नदियां, और लगातार कम होता भूजल स्तर इसका जीता-जागता उदाहरण है। विडंबना यह है कि जिन्हें आधुनिक और समझदार कहा जाता है, वही लोग धरती को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा रहे हैं। धरती हमारी जननी है, जैसे मां हमें जन्म देती है, वैसे ही धरती हमें जीवन देती है। भोजन, जल, वायु और आश्रय, इसका संरक्षण करना सिर्फ दायित्व नहीं, कर्तव्य और श्रद्धा का विषय है। धरती पर रहने वाले सभी प्राणी–पशु, पक्षी, कीट, जलचरी, नभचर–सभी प्रकृति के अंग हैं। इनके बिना जीवन-चक्र अधूरा है, हमें इनसे सह-अस्तित्व की भावना से व्यवहार करना चाहिए।
आदिवासी समाज बस्तर के जिलाध्यक्ष रुकमणी कर्मा का कहना है कि, आदिवासी परंपराओं मिट्टी, बांस और पत्तों के प्रयोग को सीखना चाहिए। प्लास्टिक का बहिष्कार करें, रोजमर्रा में प्राकृतिक विकल्प अपनाएं। स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा दें, ग्रामीण और पारंपरिक कारीगरों को समर्थन दें। पर्यावरण शिक्षा को व्यवहार में लाकर आने वाली पीढ़ी को बेहतर माहौल दे सकते हैं।
बस्तर के संस्कृति परंपरा एवं इतिहास के जानकार रूद्रनारायण पानीग्राही का कहना है कि, धरती को बचाने के लिए हर व्यक्ति प्रतिवर्ष कम से कम 5 पेड़ लगाए। वनों की अंधाधुंध कटाई रोकी जाए, स्थानीय पेड़ों को प्राथमिकता दी जाए। औद्योगिक अपशिष्टों का सही निपटान करें। वाहनों की संख्या कम करें, सार्वजनिक परिवहन का उपयोग अधिक करें, ध्वनि प्रदूषण रोकें। थैलों में कपड़ा, जूट या कागज का उपयोग करें। डिस्पोजेबल वस्तुओं से बचें, वर्षा जल संचयन करें। पशु-पक्षियों को संरक्षण दें, उनके प्राकृतिक आवासों को नष्ट न करें। हानिकारक कीटनाशकों का कम उपयोग करें। स्कूलों, पंचायतों, समाजिक समूहों में जागरूकता अभियान चलाकर बच्चों को प्रकृति से जोड़ने वाले कार्यक्रम बनाकर हम सबके अच्छे जीवन की परिकल्पना कर सकते हैं।