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किसी भी व्यक्ति की वास्तविक स्थिति का ज्ञान उसके आचरण से होता हैं।

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पुण्यतिथि : सर्वपल्ली राधाकृष्णन

Date : 17-Apr-2024

स्वतंत्र भारत के प्रथम उप-राष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति रहे डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारत की स्वतंत्रता के बाद देश को आधुनिक शिक्षा की दिशा में आगे ले जाने में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत बतौर शिक्षक के रूप में की थी। एक अध्यापक होने के साथ ही राधाकृष्णन प्रसिद्ध दार्शनिक, विचारक और राजनेता भी थे, इसलिए उनके जन्मदिवस के उपलक्ष्य पर हर वर्ष 05 सितंबर को शिक्षक दिवसके रूप में मनाया जाता है।

वर्ष 1909 में राधाकृष्णन ने मद्रास प्रेसीडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर के रूप में अपने करियर की शुरुआत की। इसके बाद वह मैसूर विश्वविद्यालय में भी दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में कार्यरत रहे। यह ब्रिटिश शासन में एक बड़ी उपलब्धि थी जब एक भारतीय को यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर नियुक्त किया गया था। बता दें कि उन्होंने लगभग 40 वर्षों तक अध्यापन का कार्य किया।  

इसके बाद वर्ष 1926 में राधाकृष्णन ने भारत की ओर से अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में इंटरनेशनल कांग्रेस ऑफ फिलॉसफी में CU का प्रतिनिधित्व किया था। उनके ज्ञान और प्रतिभा के कारण उन्हें बाद में इंग्लैंड की विश्वविख्यात ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पूर्वी धर्म और नैतिकता के स्पैल्डिंग प्रोफेसर के रूप में भी नियुक्त किया गया था। 

वर्ष 1931 से 1936 तक राधाकृष्णन आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति रहे जिसके कुछ वर्षों बाद ही उन्हें 1939 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया गया जहाँ वह वर्ष 1948 तक कार्यरत रहे। वहीं राधाकृष्णन को ब्रिटिश शासनकाल में सरकी उपाधि से सम्मानित भी किया गया था। शिक्षा के क्षेत्र में उनके अतुल्नीय कार्यों और उपलब्धियों के कारण ही हर वर्ष उनके जन्मदिवस के अवसर पर शिक्षक दिवस मनाया जाता है।

 

डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन का राजनीतिक जीवन 

राधाकृष्णन एक शिक्षक होने के साथ साथ एक कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। वह वर्ष 1949 से 1952 तक सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक के राजदूत रहे और वर्ष 1952 में भारत के उपराष्ट्रपति पद पर आसीन हुए। इसके कुछ समय बाद ही उन्हें वर्ष 1962 में भारत के दूसरे राष्ट्रपति के रूप में चुना गया। इसी बीच वर्ष 1954 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें ‘भारत रत्न’ की उपाधि से सम्मानित किया। 

इसके अलावा डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को अपने जीवन में कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया जिसमें जर्मनी का पुस्तक प्रकाशन द्वारा ‘विश्व शांति पुरस्कार सबसे खास माना जाता हैं। राधाकृष्णन जी का 17 अप्रैल सन 1975 को 86 वर्ष की उम्र में चेन्नई में लंबी बीमारी के बाद इनका देहांत हो गया। लेकिन एक आदर्श शिक्षक और दार्शनिक के रूप में वह आज भी हम सभी के लिए प्रेरणा का स्त्रोत माने जाते हैं। 

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की प्रकाशित पुस्तकें

  • हिंदू व्यू ऑफ लाइफ
  • आइडियलिस्ट व्यू ऑफ लाइफ
  • रिलिजन एंड सोसाइटी
  • सोर्सबुक इन इंडियन फिलॉसोफी  
  • स्पिरिट ऑफ़ रिलिजन 
  • महात्मा गांधी 
  • फिलॉसोफी ऑफ़ हिंदूज्म 
  • ईस्टर्न रिलिजनस वेस्टर्न थॉट 
  • लिविंग विथ पर्पस 
  • सर्च फॉर ट्रुथ 
  • फिलॉसोफी ऑफ़ डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनमोल विचार 

  • पुस्तकें वह माध्यम हैं जिसके द्वारा हम संस्कृतियों के बीच ब्रिज का निर्माण करते हैं।
  • सनातन धर्म सिर्फ एक आस्था नहीं है। यह तर्क और अन्दर से आने वाली आवाज का समागम है, जिसे सिर्फ अनुभव किया जा सकता है, परिभाषित नहीं।
  • शिक्षक वह नहीं जो छात्र के दिमाग में तथ्यों को जबरन ठूंसे, बल्कि चुनौतियों के लिए तैयार करें।
  • किताब पढ़ना, हमें एकांत में विचार करने की आदत और सच्ची खुशी देती है।
  • जीवन को एक बुराई के रूप में देखना और दुनिया को भ्रमित होकर देखना गलत है।
  • धन, शक्ति और दक्षता केवल जीवन के साधन हैं खुद जीवन नहीं।
  • शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है। इसलिए विश्व को एक ही इकाई मानकर शिक्षा का प्रबंधन करना चाहिए।
  • पुस्तकें वो साधन हैं, जिनके माध्यम से हम विभिन्न संस्कृतियों के बीच पुल का निर्माण कर सकते हैं।
  • शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है।
  • भगवान की पूजा नहीं होती बल्कि उन लोगों की पूजा होती है जो उनके नाम पर बोलने का दावा करते हैं।

 

 

 

 

 

हिन्दूवादिता का गहरा अध्ययन

शिक्षा का प्रभाव जहाँ प्रत्येक इन्सान पर निश्चित रूप से पड़ता है, वहीं शैक्षिक संस्थान की गुणवत्ता भी अपना प्रभाव छोड़ती है। क्रिश्चियन संस्थाओं द्वारा उस समय पश्चिमी जीवन मूल्यों को विद्यार्थियों में गहरे तक स्थापित किया जाता था। यही कारण है कि क्रिश्चियन संस्थाओं में अध्ययन करते हुए राधाकृष्णन के जीवन में उच्च गुण समाहित हो गए। लेकिन उनमें एक अन्य परिवर्तन भी आया जो कि क्रिश्चियन संस्थाओं के कारण ही था। कुछ लोग हिन्दुत्ववादी विचारों को हेय दृष्टि से देखते थे और उनकी आलोचना करते थे। उनकी आलोचना को डॉक्टर राधाकृष्णन ने चुनौती की तरह लिया और हिन्दूवादिता का गहरा अध्ययन करना आरम्भ कर दिया। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन यह जानना चाहते थे कि वस्तुतः किस संस्कृति के विचारों में चेतनता है और किस संस्कृति के विचारों में जड़ता है। तब स्वाभाविक अंतर्प्रज्ञा द्वारा इस बात पर दृढ़ता से विश्वास करना आरम्भ कर दिया कि भारत के दूरस्थ स्थानों पर रहने वाले ग़रीब तथा अनपढ़ व्यक्ति भी प्राचीन सत्य को जानते थे। इस कारण राधाकृष्णन ने तुलनात्मक रूप से यह जान लिया कि भारतीय आध्यात्म काफ़ी समृद्ध है और क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा हिन्दुत्व की आलोचनाएँ निराधार हैं। इससे इन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीय संस्कृति धर्म, ज्ञान और सत्य पर आधारित है जो प्राणी को जीवन का सच्चा संदेश देती है।

 

भारतीय संस्कृति

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह जान लिया था कि जीवन छोटा है और इसमें व्याप्त खुशियाँ अनिश्चित हैं। इस कारण व्यक्ति को सुख-दुख में समभाव से रहना चाहिए। वस्तुतः मृत्यु एक अटल सच्चाई है, जो कि अमीर-ग़रीब सभी को अपना ग्रास बनाती है तथा किसी भी प्रकार का वर्ग-विभेद नहीं करती है। सच्चा ज्ञान वही है जो आपके अन्दर के अज्ञान को समाप्त कर सकता है। सादगीपूर्ण संतोषवृत्ति का जीवन अमीरों के अहंकारी जीवन से बेहतर है, जिनमें असंतोष का निवास है। एक शांत मस्तिष्क बेहतर है, तालियों की उन गड़गड़ाहटों से जो संसदों एवं दरबारों में सुनाई देती हैं। इस कारण डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के नैतिक मूल्यों को समझ पाने में सफल रहे, क्योंकि वह मिशनरियों द्वारा की गई आलोचनाओं के सत्य को स्वयं परखना चाहते थे। इसीलिए कहा गया है कि आलोचनाएँ परिशुद्धि का कार्य करती हैं। सभी माताएँ अपने बच्चों में उच्च संस्कार देखना चाहती हैं। इस कारण वे बच्चों को ईश्वर पर विश्वास रखने, पाप से दूर रहने एवं मुसीबत में फंसे लोगों की मदद करने का पाठ पढ़ाती हैं। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह भी जाना कि भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों का आदर करना सिखाया गया है और सभी धर्मों के लिए समता का भाव भी हिन्दू संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। इस प्रकार उन्होंने भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान को समझा और उसके काफ़ी नज़दीक हो गए।

 

जीवन दर्शन

डॉक्टर राधाकृष्णन समूचे विश्व को एक विद्यालय मानते थे। उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है। अत: विश्व को एक ही इकाई मानकर शिक्षा का प्रबंधन करना चाहिए। ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में दिये अपने भाषण में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि 'मानव को एक होना चाहिए। मानव इतिहास का संपूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति है। जब देशों की नीतियों का आधार पूरे विश्व में शांति की स्थापना का प्रयत्न हो।' डॉ. राधाकृष्णन अपनी बुद्धि से पूर्ण व्याख्याओं, आनंददायक अभिव्यक्ति और हल्की गुदगुदाने वाली कहानियों से छात्रों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारने की प्रेरणा वह अपने छात्रों को देते थे। वह जिस भी विषय को पढ़ाते थे, पहले स्वयं उसका गहन अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गंभीर विषय को भी वह अपनी शैली से सरल, रोचक और प्रिय बना देते थे।

 

 

रवीन्द्रनाथ टैगोर से भेंट

दर्शन शास्त्र के मर्मज्ञ के तौर पर डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की पहचान क़ायम हो चुकी थी। जुलाई, 1918 में मैसूर प्रवास के समय उनकी भेंट रवीन्द्रनाथ टैगोर से हुई। इस मुलाकात के बाद वह टैगोर से काफ़ी अभिभूत हुए। उनके विचारों की अभिव्यक्ति हेतु डॉक्टर राधाकृष्णन ने 1918 में 'रवीन्द्रनाथ टैगोर का दर्शन' शीर्षक से एक पुस्तक लिखी जो 'मैकमिलन प्रकाशन' द्वारा प्रकाशित हुई। इसके बाद उन्होंने दूसरी पुस्तक ' रीन आफ रिलीजन इन कंटेंपॅररी फिलॉस्फी' लिखी। इस पुस्तक ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दी। इस पुस्तक को भारत के शिक्षार्थियों ने 'आत्मतत्त्व ज्ञान' की पुस्तक के रूप में स्वीकार किया। यही नहीं, इसे इंग्लैण्ड तथा अमेरिका के विश्वविद्यालयों में भी बेहद पसन्द किया गया। एक बार मैसूर में इनके शिक्षार्थियों ने इनसे पूछा था-क्या आप उच्च अध्ययन के लिए विदेश जाना पसन्द करेंगे? तब इनका प्रेरक जवाब था - नहीं, लेकिन वहाँ शिक्षा प्रदान करने के लिए अवश्य ही जाना चाहूँगा।

 

मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध

विद्यार्थियों के साथ राधाकृष्णन के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण रहते थे। जब वह अपने आवास पर शैक्षिक गतिविधियों का संचालन करते थे, तो घर पर आने वाले विद्यार्थियों का स्वागत हाथ मिलाकर करते थे। वह उन्हें पढ़ाई के दौरान स्वयं ही चाय देते थे और साथी की भाँति उन्हें घर के द्वार तक छोड़ने भी जाते थे। राधाकृष्णन में प्रोफेसर होने का रंचमात्र भी अहंकार नहीं था। उनका मानना था कि जब गुरु और शिष्य के मध्य संकोच की दूरी हो तो अध्यापन का कार्य अधिक श्रेष्ठतापूर्वक किया जा सकता है। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के ऐसे मैत्री सम्बन्धों के कारण एक मिसाल भी क़ायम हुई, जो कि बहुत ही अनोखी थी। दरअसल जब उनको कलकत्ता में स्थानान्तरित होना था, तब विदाई का कोई भी कार्यक्रम आयोजित नहीं किया गया। इसके लिए उन्होंने मना कर दिया। इनके विद्यार्थियों ने बग्घी के द्वारा इन्हें स्टेशन तक पहुँचाया था। इस बग्घी में घोड़े नहीं जुते थे, बल्कि विद्यार्थियों के द्वारा ही उस बग्घी को खींचकर रेलवे स्टेशन तक ले जाया गया। उनकी विदाई के समय मैसूर स्टेशन का प्लेटफार्म 'सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जय हो' के नारों से गूँज उठा था। वहाँ पर मौजूद लोगों की आँखों में अश्रु थे। राधाकृष्णन भी उस अदभुत प्रेम के वशीभूत होकर अपने आँसू रोक नहीं पाए थे। गुरु एवं विद्यार्थियों का ऐसा सम्बन्ध वर्तमान युग में कम ही देखने को प्राप्त होता है।

 

आलोचनाओं का सामना

इसके बाद डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कोलकाता में 1921 से 1931 तक समय व्यतीत किया। इन्हें कोलकाता के 'किंग जॉर्ज पंचम विश्वविद्यालय' में मानसिक एवं नैतिक दर्शन शास्त्र का प्रोफेसर नियुक्त किया गया। इस दौरान उन्होंने भारत की शैक्षिक सेवा में अभिवृद्धि करने का भी कार्य किया। यहाँ पर वह गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के सम्पर्क में भी रहे। टैगोर के विचारों का काफ़ी प्रभाव राधाकृष्णन पर पड़ा। कलकत्ता विश्वविद्यालय के सभी संगठनों और विभागों को उन्नत करने के लिए इन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। यूरोप के विद्वान भी इनके दर्शन शास्त्रीय विचारों से काफ़ी प्रभावित हुए। इनके विचारों में विषय की स्पष्टता होती थी। यह सम्बोधन में क्लिष्टता का समावेश नहीं करते थे। इनकी भाषा में विद्यार्जित विद्वत्ता का ऐसा चमत्कार होता था कि श्रोता मंत्रमुग्ध होकर सुनता रह जाता था। लेकिन वर्तमान युग में आलोचना तो संसार के रचयिता की भी होती है। इस कारण डॉक्टर राधाकृष्णन को भी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। इनके आलोचकों का कहना था कि राधाकृष्णन ने दर्शन शास्त्र को नया कुछ भी नहीं दिया है, भारत के आध्यात्मिक दर्शन की प्राचीनता को ही उजागर किया है। पश्चिम के सम्मुख उन्होंने भारतीय आध्यात्म को मात्र अंग्रेज़ी भाषा में उदधृत करने का ही कार्य किया है, लेकिन राधाकृष्णन ने अपने आलोचकों को कभी भी स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता महसूस नहीं की। इसके बाद इनका एक लेख 'एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका' के 14वें संस्करण में प्रकाशित हुआ जो एक बड़ी उपलब्धि थी।

 

राजनीतिक जीवन

यह सर्वपल्ली राधाकृष्णन की ही प्रतिभा थी कि स्वतंत्रता के बाद इन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वह 1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे। इस समय यह विश्वविद्यालयों के चेयरमैन भी नियुक्त किए गए। अखिल भारतीय कांग्रेसजन यह चाहते थे कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी संविधान सभा के सदस्य बनाये जाएं। जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि राधाकृष्णन के संभाषण एवं वक्तृत्व प्रतिभा का उपयोग 14 - 15 अगस्त, 1947 की रात्रि को किया जाए, जब संविधान सभा का ऐतिहासिक सत्र आयोजित हो। राधाकृष्णन को यह निर्देश दिया गया कि वह अपना सम्बोधन रात्रि के ठीक 12 बजे समाप्त करें। उसके पश्चात् संवैधानिक संसद द्वारा शपथ ली जानी थी।

 

राजनयिक कार्य

सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ऐसा किया और ठीक रात्रि 12 बजे अपने सम्बोधन को विराम दिया। पंडित नेहरू और राधाकृष्णन के अलावा किसी अन्य को इसकी जानकारी नहीं थी। आज़ादी के बाद उनसे आग्रह किया गया कि वह मातृभूमि की सेवा के लिए विशिष्ट राजदूत के रूप में सोवियत संघ के साथ राजनयिक कार्यों की पूर्ति करें। इस प्रकार विजयलक्ष्मी पंडित का इन्हें नया उत्तराधिकारी चुना गया। पंडित नेहरू के इस चयन पर कई व्यक्तियों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि एक दर्शन शास्त्री को राजनयिक सेवाओं के लिए क्यों चुना गया? उन्हें यह संदेह था कि डॉक्टर राधाकृष्णन की योग्यताएँ सौंपी गई ज़िम्मेदारी के अनुकूल नहीं हैं। लेकिन बाद में सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह साबित कर दिया कि मॉस्को में नियुक्त भारतीय राजनयिकों में वह बेहतरीन थे। वह एक गैर परम्परावादी राजनयिक थे। जो मंत्रणाएँ देर रात्रि होती थीं, वह उनमें रात्रि 10 बजे तक ही भाग लेते थे, क्योंकि उसके बाद उनके शयन का समय हो जाता था। जब राधाकृष्णन एक शिक्षक थे, तब वह नियमों के दायरों में नहीं बंधे थे। कक्षा में यह 20 मिनट देरी से आते थे और दस मिनट पूर्व ही चले जाते थे। इनका कहना था कि कक्षा में इन्हें जो व्याख्यान देना होता था, वह 20 मिनट के पर्याप्त समय में सम्पन्न हो जाता था। इसके उपरान्त भी यह विद्यार्थियों के प्रिय एवं आदरणीय शिक्षक बने रहे।

 

सोवियत संघ से विदा

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन को स्टालिन से भेंट करने का दुर्लभ अवसर दो बार प्राप्त हुआ। 14 जनवरी, 1945 के दिन वह पहला अवसर आया, जब स्टालिन के निमंत्रण पर वह उनसे मिले। स्टालिन के हृदय में 'फिलास्फर राजदूत' के प्रति गहरा सम्मान था। इनकी दूसरी मुलाकात 5 अप्रैल, 1952 को हुई। जब भारतीय राजदूत सोवियत संघ से विदा होने वाले थे। विदा होते समय राधाकृष्णन ने स्टालिन के सिर और पीठ पर हाथ रखा। तब स्टालिन ने कहा था तुम पहले व्यक्ति हो, जिसने मेरे साथ एक इंसान के रूप में व्यवहार किया हैं और मुझे अमानव अथवा दैत्य नहीं समझा है। तुम्हारे जाने से मैं दु: का अनुभव कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम दीर्घायु हो। मैं ज़्यादा नहीं जीना चाहता हूँ। इस समय स्टालिन की आँखों में नमी थी। फिर छह माह बाद ही स्टालिन की मृत्यु हो गई।

 

उपराष्ट्रपति

1952 में सोवियत संघ से आने के बाद डॉक्टर राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किए गए। संविधान के अंतर्गत उपराष्ट्रपति का नया पद सृजित किया गया था। नेहरू जी ने इस पद हेतु राधाकृष्णन का चयन करके पुनः लोगों को चौंका दिया। उन्हें आश्चर्य था कि इस पद के लिए कांग्रेस पार्टी के किसी राजनीतिज्ञ का चुनाव क्यों नहीं किया गया। उपराष्ट्रपति के रूप में राधाकृष्णन ने राज्यसभा में अध्यक्ष का पदभार भी सम्भाला। सन् 1952 में वे भारत के उपराष्ट्रपति बनाए गए। बाद में पंडित नेहरू का यह चयन भी सार्थक सिद्ध हुआ, क्योंकि उपराष्ट्रपति के रूप में एक गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति ने सभी राजनीतिज्ञों को प्रभावित किया। संसद के सभी सदस्यों ने उन्हें उनके कार्य व्यवहार के लिए काफ़ी सराहा। इनकी सदाशयता, दृढ़ता और विनोदी स्वभाव को लोग आज भी याद करते हैं। सितंबर, 1952 में इन्होंने यूरोप और मिडिल ईस्ट देशों की यात्रा की ताकि नए राष्ट्र हेतु मित्र राष्ट्रों का सहयोग मिल सके।

 
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