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18 अप्रैल विशेष - महान स्वतंत्रता सेनानी तात्या टोपे का बलिदान

Date : 18-Apr-2024

महान स्वतंत्रता सेनानी तात्या टोपे  का आज बलिदान दिवस है। 18 अप्रैल को उन्हें फांसी दी गई थी। भारत को अंग्रेजों से आजादी दिलाने में उनकी अहम भूमिका रही है। उन्होंने 1857 की क्रांति में अपनी युद्ध करने की नीति से अंग्रेज सैनिकों को खूब छकाया। युद्ध में कभी हार भी मिलती तो वह निराश में नहीं होते बल्कि तुरंत दूसरे युद्ध की तैयारी में जुट जाते। कहा जाता है कि उन्होंने अपने पूरे जीवन में अंग्रेजों के खिलाफ करीब डेढ़ सौ लड़ाइयां लडीं और इस दौरान उन्होंने दुश्मन के लगभग दस हजार सैनिकों को मार गिराया। इस तरह वे अंग्रेजों की नाक में हमेशा दम किए रहते। 


नाम के पीछे दो कहानी
तात्या टोपे का जन्म 16 फरवरी 1814 को महाराष्ट्र के पटौदा जिले में हुआ था। उनका असली नाम रामचंद्र पांडुरंग राव था। प्यार से सभी उन्हें तात्या कहते थे। हालांकि, इस नाम के पीछे दो कहानियां प्रचलित हैं। पहली, जिसके मुताबिक वे किसी तोपखाने में नौकरी करते थे और वहां लोग उन्हें टोपे कहने लगे। दूसरी कहानी जिसके मुताबिक, बाजीराव द्वितीय ने उन्हें एक टोपी दी थी, जिसे वह काफी शान से पहनते थे, इस टोपी के बाद से उन्हें लोग तात्या टोपे पुकारने लगे। उन्होंने शादी नहीं की थी। बचपन से ही युद्ध और सैन्य कार्यों में रूचि थी। उनके पिता पेशवा बाजीराव के यहां अच्छे पद पर थे। एक युद्ध में बाजीराव को अंग्रेजों से हार का सामना करना पड़ा और राज्य छोडक़र जाना पड़ा। इसके बाद वह उत्तर प्रदेश में कानपुर के पास स्थित बिठूर में आकर बस गए। उन्हीं के साथ-साथ तात्या टोपे का परिवार भी बिठूर आ गया था।

1857 की क्रांति 
 
अंग्रेजों के खिलाफ हुई 1857 की क्रांति में तात्या टोपे का भी बड़ा योगदान रहा। जब यह लड़ाई उत्तर प्रदेश के कानुपर तक पहुंची तो वहां नाना साहेब को नेता घोषित किया गया और यहीं पर तात्या टोपे ने आजादी की लड़ाई में अपनी जान लगा दी। इसी के साथ ही उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ कई बार लोहा लिया था। नाना साहेब ने अपना सैनिक सलाहकार भी नियुक्त किया था | 
 
1857 में नाना साहेब पेशवा, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, अवध के नवाब और मुगल शासकों ने बुंदेलखंड में ब्रिटिश शासकों के खिलाफ विद्रोह कर दिया था।
इसका असर दक्षिण भारतीय राज्यों तक भी पहुंचा था। कई ब्रितानी और भारतीय इतिहासकार ये मानते हैं कि ग्वालियर के शिंदे शासक इस विद्रोह में शामिल नहीं थे लेकिन कुछ भारतीय इतिहासकारों के मुताबिक ग्वालियर के शासक भी इस विद्रोह में शामिल हुए थे। कहा जाता था कि बायजाबाई शिंदे ने विद्रोह की तैयारी की थी। कई शासक युद्ध में एक दूसरे की मदद कर रहे थे।
 
तात्या टोपे की भूमिका 
 
तात्या टोपे पेशवा की सेवा में थे। उन्हें सैन्य नेतृत्व का कोई अनुभव नहीं था लेकिन अपनी कोशिशों के चलते उन्होंने यह भी हासिल कर लिया था। 1857 के बाद वे अपने आखिरी पल तक लगातार युद्ध में ही रहे या फिर यात्रा करते रहे।
 
तात्या टोपे के वंशज और तात्या टोपे का 'ऑपरेशन रेड लोटस' के लेखक पराग टोपे के मुताबिक बायजाबाई शिंदे इस विद्रोह के मुख्य प्रेरणा स्रोत थे।
तात्या टोपे को कई भूमिकाओं में रखा जा सकता है, वे नाना साहेब के दोस्त, दीवान, प्रधानमंत्री और सेना प्रमुख जैसे पदों पर रहे थे। 1857 के स्वाधीनता संग्राम के शुरुआती दिनों में तात्या टोपे की योजना काफी कामयाब रही।
 
दिल्ली में 1857 के विद्रोह के बाद लखनऊ, झांसी और ग्वालियर जैसे साम्राज्य 1858 में स्वतंत्र हो गए थे। हालांकि झांसी की रानी को बाद में हार का सामना करना पड़ा था।
 
इसके अलावा दिल्ली, कानपुर, आजमगढ़, वाराणसी, इलाहाबाद, फैजाबाद, बाराबंकी और गोंडा जैसे इलाके भी अंग्रेजों से पूरी तरह मुक्त हो गए थे।
तात्या टोपे ने नाना साहेब की सेना को पूरी तरह संभाल रखा था। इसमें सैनिकों की नियुक्ति, उनका वेतन, प्रशासन और उनकी योजना सब तात्या टोपे ही देख रहे थे।
तात्या टोपे तेजी से फैसला करने के लिए जाने जाते थे और इसी वजह से उन्हें सभी लोगों से काफी सम्मान मिलता था। नाना साहेब के अपने मुख्य सचिव मोहम्मद इसाक और तात्या टोपे के साथ पत्र व्यवहार से यह जाहिर होता है।
 
रानी लक्ष्मीबाई के साथ संभाला था मोर्चा 
 
कानपुर में अंग्रेजों को पराजित करने के बाद तात्या ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ मिलकर मध्य भारत का मोर्चा संभाला था। क्रांति के दिनों में उन्होंने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और नाना साहब का पूरा साथ दिया था। हालांकि उन्हें कई बार हार का भी सामना भी करना पड़ा था। वे अपने गुरिल्ला तरीके से आक्रमण करने के लिए जाने जाते थे।
 
बताया जाता है कि उन्होंने ब्रिटिश कंपनी में भी काम किया था। कहा जाता है कि कानपुर में ईस्ट इंडिया कम्पनी में बंगाल आर्मी की तोपखाना रेजीमेंट में भी काम किया था और उनके हमेशा अंग्रेजों से मतभेद रहते थे।
 
अंग्रेजों के नाक में कर दिया था दम 
 
भारत के कई हिस्सों में उन्होंने अंग्रेजों के नाक में दम कर दिया और खास बात ये थी कि अंग्रेजी सेना उन्हें पकड़ने में नाकाम रही थी। तात्या ने तकरीबन एक साल तक अंग्रेजों के साथ लंबी लड़ाई लड़ी।
 
हालांकि 8 अप्रैल 1959 को वो अंग्रेजों की पकड़ में आ गए और 15 अप्रैल, 1959 को शिवपुरी में तात्या का कोर्ट मार्शल किया गया। उसके बाद 18 अप्रैल को शाम 5 बजे हजारों लोगों की उपस्थिति में खुले मैदान में फांसी पर लटका दिया गया।
 
इसके बाद लोगों द्वारा उनकी फांसी पर भी कई सवाल उठाए गए थे। तात्या टोपे से जुड़े नए तथ्यों का खुलासा करने वाली किताब 'टोपेज ऑपरेशन रेड लोटस' के लेखक पराग टोपे ने बताया कि शिवपुरी में 18 अप्रैल 1859 को तात्या को फांसी नहीं दी गई थी, बल्कि गुना जिले में छीपा बड़ौद के पास अंग्रेजों से लोहा लेते हुए एक जनवरी 1859 को तात्या टोपे शहीद हो गए थे।
 
 झांसी को कराया था मुक्त 
 
ब्रितानी सैनिकों ने जब झांसी पर कब्जा किया तो उन्होंने झांसी को चारों तरफ से घेर लिया था। ऐसे में झांसी को बचाना जरूरी था, पेशवाओं ने तात्या टोपे को यह अहम जिम्मेदारी सौंपी थी। यह तात्या के जीवन की अहम घटना थी। कानपुर के नजदीक काल्पी से तात्या टोपे अपनी सेना के साथ तेजी से झांसी की ओर बढ़ रहे थे।विष्णुभट गोड़से ने अपनी यात्रा वृतांत 'माझा प्रवास' में लिखा है कि इस युद्ध में तात्या टोपे की सेना बहुत बहादुरी से लड़ी, लेकिन तात्या ये युद्ध नहीं जीत सके थे। उनके शस्त्रों पर भी ब्रिटिशों ने कब्जा कर लिया, लेकिन इस युद्ध ने झांसी के लोग बेहद उत्साहित हो गए थे।
 
आइए जानते है तात्या टोपे के बारे में कुछ विशेष तथ्य:- 
 
पेशवाई की समाप्ति के बाद बाजीराव ब्रह्मावर्त चले गए। वहां तात्या ने पेशवाओं की राज्यसभा का पदभार ग्रहण किया। 1857 की क्रांति का समय जैसे-जैसे निकट आता गया, वैसे-वैसे वे नानासाहेब पेशवा के प्रमुख परामर्शदाता बन गए। 
 
तात्या ने 1857 की क्रांति में अंग्रेजों से अकेले सफल संघर्ष किया।
 
3 जून 1858 को रावसाहेब पेशवा ने तात्या को सेनापति के पद से सुशोभित किया। भरी राज्यसभा में उन्हें एक रत्नजड़ित तलवार भेंट कर उनका सम्मान किया गया था।
तात्या ने 18 जून 1858 को रानी लक्ष्मीबाई के वीरगति के पश्चात गुरिल्ला युद्ध पद्धति की रणनीति अपनाई थी। तात्या टोपे द्वारा गुना जिले के चंदेरी, ईसागढ़ के साथ ही शिवपुरी जिले के पोहरी, कोलारस के वनों में गुरिल्ला युद्ध करने की अनेक दंतकथाएं हैं।
 
7 अप्रैल 1859 को तात्या शिवपुरी-गुना के जंगलों में सोते हुए धोखे से पकड़े गए थे। बाद में अंग्रेजों ने शीघ्रता से मुकदमा चलाकर 15 अप्रैल को 1859 को राष्ट्रद्रोह में तात्या को फांसी की सजा सुनाई थी।
 
18 अप्रैल 1859 की शाम ग्वालियर के पास शिप्री दुर्ग के निकट क्रांतिवीर के अमर शहीद तात्या टोपे को फांसी दे दी गई थी। इसी दिन वे फांसी का फंदा अपने गले में डालते हुए मातृभूमि के लिए न्यौछावर हो गए थे |

 

 
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