पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी यदि सरकारी आयोजन न होते तो पब्लिक इन्हें कब का भुला चुकी होती। लेकिन कुछ ऐसी तिथियां हैं जिन्हें राजनीति तब तक भूलने नहीं देगी जब तक कि इस देश का अस्तित्व है। इन तारीखों में सबसे ऊपर है 25 जून 1975। इस दिन देश में आपातकाल घोषित किया गया था।
74 में मध्यप्रदेश की विधानसभा में दिए गए उनके एक भाषण की प्रति भी हाथ लगी जिसमें उन्होंने जेपी को राष्ट्रद्रोही बताते हुए गिरफ्तार करने की माँग की थी। बाद में एक बार तिवारी जी से मैंने पूछा कि जिन जयप्रकाश नारायण ने जोशी- यमुना- श्रीनिवास का नारा दिया था उन्हें ही बाद में आपने राष्ट्रद्रोही बताया। इस पर तिवारीजी ने जवाब दिया था कि मैं राजनीति में दोहरी प्रतिबद्धता पर यकीन नहीं करता, तब सोशलिस्टी था अब काँग्रेसी हूँ। आपातकाल के सवाल पर अन्य समाजवादी पृष्ठभूमि के कांग्रेसी नेताओं के विपरीत तिवारीजी पूरी ताकत के साथ इंदिरा जी के फैसले के पक्ष में थे।
दूसरे नेता थे यमुनाप्रसाद शास्त्री। वे सिरमौर से अपने ही शिष्य काँग्रेस की टिकट पर मैदान में उतरे राजमणि पटेल के हाथों चुनाव गँवा चुके थे। शास्त्री जी की एक आँख गोवा में पुर्तगालियों के दमन में ही जा चुकी थी दूसरी आँख में भी तकलीफ शुरू हो चुकी थी, उसका इलाज चल रहा था, इसलिए वे गिरफ्तारी से बचे रहे। शास्त्रीजी बीमारी हालत में भी आपातकाल के खिलाफ सक्रिय थे। उनके गृहगाँव सूरा का घर अंडरग्राउंड फरारी काट रहे नेताओं की शरणस्थली रहा। कम लोगों को ही मालूम होगा कि 74-75 में नेपाल के प्रमुख नेता गिरजाप्रसाद कोयराला का पूरा परिवार सूरा में ही शरण लिए हुए था। नेपाल में भी भारत जैसे हालात थे।
शास्त्रीजी के प्रिय शिष्य सोशलिस्ट नेता वृहस्पति सिंह ने मेरी जानकारी दुरुस्त की कि इंदिरा सरकार द्वारा बडोदा डायनामाइट केस के मुजरिम बनाए गए जार्ज फर्नांडिस ने भी यमुनाप्रसाद शास्त्री के गांव वाले घर में कुछ दिनों तक फरारी काटी थी। सूबे के प्रायः सभी सोशलिस्टी और जनसंघी जेल में थे। एक दर्जन से ज्यादा युवा छात्र ऐसे भी थे जो कालेज में फर्स्ट इयर पढ़ रहे थे, जेल भेज दिए गए। कइयों के परिजनों को छह महीने बाद खबर लगी कि वे जेल में हैं।
आपातकाल की गिरफ्तारी में पूरा समाजवाद था, नेता, गुंडे, चोर-उचक्के, कालाबाजारिए सभी जेल में एक भाव थे। बाद में उनमें से कइयो में ऐसा ट्राँसफार्मेशन हुआ कि वे जेल तो गए गुंडे के रूप में निकले नेता बनकर। जिन्हें बाद में टिकट भी मिली और वे फिर नेता बन गए। आज उन सबों को केंद्र व राज्य सरकारें अच्छा खासा पेंशन दे रही हैं।
बहरहाल एक दिन गांव में खबर फैली की रीवा सेंट्रल जेल में गोली चली है और सबके सब मीसाबंदी मार डाले गए। खबर की पुष्टि का कोई आधार भी नहीं था। अखबार साफ-साफ कुछ नहीं लिखते थे। धीरे-धीरे खबर साफ हुई कि जेल में रीवा कलेक्टर धर्मेंद्रनाथ को मीसाबंदियों ने लात जूतों से जमकर पिटाई की। वजह यह कि कलेक्टर ने जेल में अव्यवस्थाओं को लेकर अनशन पर बैठे समाजवादी नेता कौशल प्रसाद मिश्र के साथ बदसलूकी कर दी जिससे गुस्सा कर उनके अनुयायियों ने कलेक्टर की पिटाई कर दी थी।
भला हो उस एसपी का जिसने गोली चलाने के कलेक्टर के आदेश को मानने से मना कर दिया वरना गांव में पहुँची कत्लेआम की वह खबर बिल्कुल ही सच साबित होती। बहरहाल लगभग सभी मीसाबंदियों को कड़ी यातनाएं दी गई। रात को कंबल परेड हुई, दूसरे दिन दुर्दांत अपराधियों की तरह आडा-बेडी लगाकर प्रदेश की दूसरी जेलों में शिफ्ट किया गया। इस घटना का पूरा ब्योरा 1978 में रीवा के ऐतिहासिक व्येंकटभवन में तब सुनने को मिला जब यहां इमरजेन्सी के जुल्मों की सुनवाई करने शाह कमीशन आया था।
सन् 76 में मैं नवमी पढ़ने गांव से शहर आ गया। रीवा के माडल स्कूल में दाखिला मिल गया। हम देहातियों के लिए यह किसी दून स्कूल से कम न थी। पहली बार जब स्कूल परिसर में घुसा तो उसकी सफेद दीवारों पर वो नारे लिखे पटे थे जो इमरजेंसी में संजयगांधी ब्रिगेड ने गढ़े थे। हर क्लास रूम के बाहर दूर दृष्टि पक्का इरादा.. दिख रहा था। स्कूल में नसबंदी वाले भी नारे लिखे थे। हम छात्र आपस में मजाक करते कि सरकार शादी करने में ही बैन लगा दे- न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी..।
अखबारों में रोज नसबंदी शिविरों की खबरें पढ़ते थे। बढचढ कर आँकड़े आते थे कि संजय गांधी की प्रेरणा से गाँव के गाँव ने नसबंदी करा ली। पटवारी, कानूनों खसरा खतौनी छोड़कर नसबंदी का लक्ष्य हाँसिल करने में भिड़े थे। काँग्रेस के नेता लोग नसबंदी शिविरों का उद्घाटन करते थे और नसकटवाए लोगों के साथ मुसकराते फोटो खिंचवाकर छपवाते थे। अखबारों में पूरा रामराज चल रहा था। पर फुसफुसाहट के साथ ये खबरे आने लगीं कि जबरिया नसबंदी की जा रही है। जिले में ही कई कुँवारों की नसबंदी कर दी गई। मुझे याद है वो वाकया कि मेरे एक परिचित पटवारी के यहां पति-पत्नी पारिवारिक बंटवारे की पुल्ली लेने आए। पटवारी साहब को कुछ रिश्वत देने लगे तो उन्होंने मना करते हुए कहा- पहिले 'कटवारा फेरि बँटवारा'..। याने कि पहले दोनों नसबंदी करवा लो फिर बँटवारा की पुल्ली फोकट में दे देंगे।
संजय गाँधी के पाँच सूत्रीय कार्यक्रम कलेक्टरों के लिए ब्रह्मवाक्य की तरह थे। नसबंदी भी एक सूत्र था। इस सूत्र ने देशभर के हजारों, लाखों कुँवरों और बेऔलादों की नसबंदी करवा दी। एक भय का माहौल पैदा हो गया कि किसी को पकड़कर कहीं भी नसबंदी की जा सकती है। इमरजेंसी को इस सूत्र ने आम जनता के बीच सबसे ज्यादा बदनाम किया। मेरा मानना है कि यदि नसबंदी कार्यक्रम को जनजागरण के साथ तरीके से व्यवहार में लाया जाता तो आम जनता तमाम स्थितियों के बाद भी इंदिरा जी के साथ खड़ी होती। उसे नेताओं की गिरफ्तारी और प्रेस सेंसरशिप से भला क्या लेना देना..। दफ्तर में घूस बंद थी, सब समय पर हो रहा था, रेल बसें टाइम से चलती थीं, गुंडों सरहंगों का भय खत्म था, बनिये लूटने और मिलावटखोरी से डरने लगे थे। प्रारंभ में आम जनमानस में इमरजेंसी ने कुलमिलाकर यही प्रभाव छोड़ा था।
शहरों में अवैध कब्जों के हटाने का अभियान चला। लक्ष्य था कि सार्वजनिक भूमि को सरहंगों और प्रभावशाली व्यक्तियों से मुक्त किया जाएगा। हमारे शहर में जब यह अभियान शुरू हुआ तो सबने प्रशासन के इस कदम को सिरमाथे पर लिया। पर कुछ दिन बाद ही लोग देखने लगे कि प्रभावशाली और काँग्रेस के लोगों के अवैध कब्जे छोड़े जा रहे हैं। गरीब-गुरवे जो ठेला-गुमटी लगाकर पेट पाल रहे थे म्युनिसिपैलिटी के लोग उन्हें उलटाने पलटाने तक सीमित हो गए तो इमरजेंसी का अर्थ कुछ-कुछ समझ में आने लगा। अपने शहर में सड़क को कब्जियाकर किए गए एक पक्का अतिक्रमण इसलिए नहीं तोड़ा जा सका क्योंकि वह प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल और एक बड़े कांग्रेस नेता के रिश्तेदार का था। जनता को धीरे-धीरे ये बातें समझ में आने लगीं और वह व्यवस्था के खिलाफ मन मसोसने लगी।
ऊपर से लेकर नीचे तक काँग्रेस के नेता मस्त थे कि जनता उनके साथ है। अखबार उनकी पार्टी की सरकार की जयजयकार कर रहे है। देवकांत बरुआ का नारा 'इंदिरा इज इंडिया' चौतरफा गूँज रहा था। कांग्रेस की बड़ी रैलियां और सभाएं होतीं। वही भीड़ अखबारों में छपती पर वो भीड़ कहाँ से जुटती थी नौवीं पढ़ते हुए यह मेरी अपनी आप बीती थी।
लेखक: जयराम शुक्ल
(शेष कल के अंक में पढ़िये)..