भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, समाज सुधारक, प्रखर वक्ता और हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने वाले राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन का जन्म 1 अगस्त 1882 को उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक शहर इलाहाबाद में हुआ था। वे एक बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम, साहित्य, समाज सेवा और राजनीति जैसे अनेक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
उनका राजनीतिक जीवन 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध से प्रारंभ हुआ। उस समय चल रहे बंगभंग आंदोलन में उन्होंने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने का संकल्प लिया। छात्र जीवन में ही वे कांग्रेस से जुड़ गए थे और 1906 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के इलाहाबाद प्रतिनिधि के रूप में कार्य किया। वे लोक सेवक संघ से भी जुड़े रहे। जालियांवाला बाग नरसंहार की जांच के लिए बनी समिति में भी उन्होंने भाग लिया। 1920 और 1930 के दशक में असहयोग आंदोलन और नमक सत्याग्रह में भाग लेने के कारण वे कई बार जेल भी गए। 1931 में जब गांधीजी लंदन में गोलमेज सम्मेलन में थे, तब गिरफ्तार किए गए नेताओं में टंडन जी भी शामिल थे।
वे लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित लोक सेवा बोर्ड के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने कृषक आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई और बिहार क्षेत्रीय किसान सभा के अध्यक्ष भी रहे। वे 1937 से 1950 तक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष पद पर कार्यरत रहे और 1946 में संविधान सभा के सदस्य बनाए गए।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1948 में उन्होंने पट्टाभि सीतारमैया के विरुद्ध कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए। फिर 1950 में उन्होंने आचार्य जे.बी. कृपलानी को हराकर कांग्रेस अध्यक्ष पद प्राप्त किया। हालांकि, प्रधानमंत्री नेहरू के साथ वैचारिक मतभेदों के कारण उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया। 1952 में वे लोकसभा और 1956 में राज्यसभा के सदस्य चुने गए। बाद में स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। 1961 में उन्हें भारत सरकार द्वारा देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान “भारत रत्न” से सम्मानित किया गया।
पुरुषोत्तम दास टंडन का साहित्य के प्रति भी गहरा झुकाव था। उनका मानना था कि विचारों की शक्ति से स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है। वे हिंदी को देश की आत्मा मानते थे। उन्होंने ग्वालियर कॉलेज में हिंदी लेक्चरर के रूप में भी कार्य किया। 10 अक्टूबर 1910 को बनारस (काशी) में हुए पहले हिंदी साहित्य सम्मेलन के दौरान वे महामंत्री नियुक्त हुए। इसके बाद उन्होंने हिंदी साहित्य सम्मेलन के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को गति दी। उन्होंने प्रयाग में हिंदी विद्यापीठ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य हिंदी को शिक्षित वर्ग में स्थापित करना और अंग्रेजी प्रभुत्व को चुनौती देना था।
1949 में जब संविधान सभा में राजभाषा का प्रश्न उठा, तब अधिकांश नेता हिंदुस्तानी भाषा के पक्ष में थे, जबकि टंडन जी शुद्ध हिंदी के समर्थन में थे। उनके नेतृत्व में हुए मतदान में हिंदी को 62 मत और हिंदुस्तानी को 32 मत मिले। परिणामस्वरूप हिंदी को राजभाषा और देवनागरी लिपि को राष्ट्रलिपि घोषित किया गया। वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत का दर्जा दिलाने में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उनका योगदान उल्लेखनीय रहा। वे न केवल हिंदी के प्रखर विद्वान थे, बल्कि अंग्रेजी पर भी उनका असाधारण अधिकार था। जब वे 1950 में कांग्रेस अध्यक्ष बने, तो उन्होंने अपने भाषण का हिंदी में लेखन किया और उसका अंग्रेजी में अनुवाद भी स्वयं ही किया। उन्होंने भाषाई शुद्धता का विशेष ध्यान रखते हुए अनुवाद में कई सुधार भी किए, जिससे यह स्पष्ट होता है कि वे दोनों भाषाओं में पारंगत थे।
पुरुषोत्तम दास टंडन का निधन 1 जुलाई 1962 को हुआ। उनके योगदान के स्मरण में प्रत्येक वर्ष 1 जुलाई को उनकी पुण्यतिथि मनाई जाती है।