बाँस गीत बाँस गीत के गायक मुख्यत: रावत या अहीर जाति के लोग हैं। छत्तीसगढ़ में राउतों की संख्या बहुत है। राउत जाति यदूवंशी माना जाता है। अर्थात इनका पूर्वज कृष्ण को माना जाता है। ऐसा लगता है कि गाय को जब जगंलों में ले जाते थे चखने के लिए, उसी वक्त वे बाँस को धीरे धीरे वाद्य के रुप में इस्तमाल करने लगे थे। शुरुआत शायद इस प्रकार हुई थी - गाय घास खाने में मस्त रहती थी और राउत युवक या शायद लड़का बाँस के टुकड़े को उठा कर कोशिश करता कि उसमें से कोई धुन निकले, और फिर अचानक एक दिन वह सृजनशील लड़का बजाने लग गया उस बाँस को बड़ी मस्ती से।
छत्तीसगढ़ी लोक गीतों में बाँस गीत बहुत महत्वपुर्ण एक शैली है। यह बाँस का टुकड़ा करीब चार फुट लम्बा होता है। यह बाँस अपनी विशेष धुन से लोगों को मोहित कर देता है।
बाँस गीत में एक गायक होता है। उनके साथ दो बाँस बजाने वाले होते है। गायक के साथ और दो व्यक्ति होते है जिसे कहते है "रागी" और "डेही"।
सबसे पहले वादक बाँस को बजाता है, और जँहा पर वह रुकता है अपनी साँस छोड़ता है, वही से दूसरा वादक उस स्वर को आगे बड़ाता है। और इसके बाद ही गायक का स्वर हम सुनते है। गायक लोक कथाओं को गीत के माध्यम से प्रस्तुत करता है। सिर्फ गायक को ही उस लोक कथा की शब्दावली आती है। "रागी" वह व्यक्ति है जिसे शब्दावली नहीं मालूम है शायद पूरी तरह पर जो गायक के स्वर में साथ देता है। "डेही" है वह व्यक्ति जो गायक को तथा रागी को प्रोत्साहित करता है। जैसे "धन्य हो" "अच्छा" "वाह वाह"। उस गीत के राग को जानने वाला है "रागी"।
छत्तीसगढ़ में मालिन जाति का बाँस को सबसे अच्छा माना जाता है। इस बाँस में स्वर भंग नहीं होता है। बीच से बाँस को पोला कर के उस में चार सुराख बनाया जाता है, जैसे बाँसुरी वादक की उंगलिया सुराखों पर नाचती है, उसी तरह बाँस वादक को उंगलिया भी सुराखों पर नाचती है और वह विशेष धुन निकलने लगती है।