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ऐसे रंग भरें कि वसंत मुस्कुरा उठा..

Date : 02-Mar-2024

एक बार फिर उनका वसंत आ गया है। एक बार फिर वे बहारों के सहारे लोकतंत्र पर रस बरसाने वाले हैं। अब वे लोकतंत्र के स्तंभों पर एक बार फिर तरह तरह के रंग भरेंगे। वादों के गुलमोहर खिलायेंगे। लोकतंत्र के आसमान में नये नये फुल खिलाने के वादे करेंगे। रंगों की अपनी यात्रा में वे विदेश यात्रा भी करेंगे। विदेश में अपने रंगों की रंगोली के माध्यम से गुल खिलाऐगे। वे पहले भी रंग भरने की दौड़ में भागादौड़ी कर चुके हैं लेकिन अब तक अपनी प्रगाढ़ प्रौढ़ उम्र में भी वसंत नहीं ला पाए हैं। उनके रंगों की इस कलाकारी को देखकर अच्छे अच्छे मुस्कुरा उठे। 

लोकतंत्र के स्तंभों में रंग भरने के मामले में उन्हें पुश्तैनी महारत हासिल है। उनके पूर्वजों ने भी लोकतंत्र के स्तंभों में बहुत रंग भरा है और वसंत का आनंद लेते रहे हैं। उनके पूर्वजों के रंग भरने की कला पर तो वसंत हर पाँच वर्ष में मुस्कराता था और वे वसंत की बहारों का भरपूर आनंद उठाते थे। लोकतंत्र इन्हें बहुत अच्छे से पहचानता है। अब वसंत इनके परिवार व पार्टी की चाल व चलन दोनों से परिचित हो गया है। इसलिए ही ये जैसे ही कोई रंग लोकतंत्र पर छिड़कते हैं, वसंत मधुरमय मुस्कान बिखेर देता है। इनके रंगों को अब तक बहुत कम आम आदमी समझ पाया है। वह हर बार भ्रमित हो जाता है और इनके रंगों के फेर में आकर फ्री में बिक जाता है। 
जैसे जैसे लोकतंत्र का वसंत दस्तक देने शुरू कर रहा है। वे अलग अलग रंगों का मिश्रण फिर बनाने लग गए हैं। कभी लोकतंत्र में रंग भरने के लिए न्याय यात्रा करेंगे तो कभी विदेश में जाकर लोकतंत्र के रंगों पर व्याख्यान देगें। उनके रंगों का रंग भी किसी को आसानी से समझ नहीं आता है। ऐसे हल्के रंग अपने पास रखें है कि किसी पर चढ़ते ही नहीं। ओर उनके रंग से घबराकर लोकतंत्र दिनोंदिन उनसे दूरी बनाता जा रहा है। वे अपने रंगों से अपने ही वफादारों को नाराज करते रहते हैं। 
वैसे रंग भरने की अपनी इस कला से आम आदमी का निरंतर मनोरंजन व रसरंजन होता रहता है। इस योगदान के लिए उन्हें दो-चार राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार तो देना ही चाहिए। उनके रंगीन जीवन में शुरुआत से ही वसंत मुस्कुराता रहा है। वे फागुन में ही खेल कूदकर बड़े हुए है। उनकी यात्रा में हमेशा फागुन फूटता रहता है। इस फागुन यात्रा में रंगों की बहार रहती है । लेकिन बड़े दुख की बात है कि इन रंगों का रंग लोकतंत्र पर नहीं चढ़ रहा है और ना ही लोकतंत्र उनपर फाग बरसा रहा है। 
अपनी इस रंगों की फाग यात्रा में वे अधूरे अधूरे से लगते है। प्रतिदिन फाग यात्री उन्हें छेड़कर व छोड़कर जा रहे हैं। पर फिर भी वे रंग भरने की यात्रा जारी रखेंगे। अपने ही देश में यात्रा का रंग नहीं चढ़ रहा है तो वे रंगों की यात्रा विदेश तक कर आते हैं। “लोकतंत्र के रंग” विषय पर विदेशी विश्वविद्यालयों में लेक्चरर फटकार आते हैं। देश के अखबारों में रंग जमाते है। रंगीन बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसे ही लोकतंत्र के स्तंभों में रंग भरने की यात्रा जारी रहती हैं। लोकतंत्र के चमन में यह सब देखकर वसंत इनके रंगों की यात्रा पर मुस्कुरा उठता है। वसंत अपने रंगों पर मंद मंद हँसता है। वसंत यह सोंच सोंचकर मुस्कुराता है कि लोकतंत्र के चमन में गजब रंगरेज यात्रा कर रहा है....!


लेखक - भूपेन्द्र भारतीय 
 
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