एक बार फिर उनका वसंत आ गया है। एक बार फिर वे बहारों के सहारे लोकतंत्र पर रस बरसाने वाले हैं। अब वे लोकतंत्र के स्तंभों पर एक बार फिर तरह तरह के रंग भरेंगे। वादों के गुलमोहर खिलायेंगे। लोकतंत्र के आसमान में नये नये फुल खिलाने के वादे करेंगे। रंगों की अपनी यात्रा में वे विदेश यात्रा भी करेंगे। विदेश में अपने रंगों की रंगोली के माध्यम से गुल खिलाऐगे। वे पहले भी रंग भरने की दौड़ में भागादौड़ी कर चुके हैं लेकिन अब तक अपनी प्रगाढ़ प्रौढ़ उम्र में भी वसंत नहीं ला पाए हैं। उनके रंगों की इस कलाकारी को देखकर अच्छे अच्छे मुस्कुरा उठे।
अपनी इस रंगों की फाग यात्रा में वे अधूरे अधूरे से लगते है। प्रतिदिन फाग यात्री उन्हें छेड़कर व छोड़कर जा रहे हैं। पर फिर भी वे रंग भरने की यात्रा जारी रखेंगे। अपने ही देश में यात्रा का रंग नहीं चढ़ रहा है तो वे रंगों की यात्रा विदेश तक कर आते हैं। “लोकतंत्र के रंग” विषय पर विदेशी विश्वविद्यालयों में लेक्चरर फटकार आते हैं। देश के अखबारों में रंग जमाते है। रंगीन बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसे ही लोकतंत्र के स्तंभों में रंग भरने की यात्रा जारी रहती हैं। लोकतंत्र के चमन में यह सब देखकर वसंत इनके रंगों की यात्रा पर मुस्कुरा उठता है। वसंत अपने रंगों पर मंद मंद हँसता है। वसंत यह सोंच सोंचकर मुस्कुराता है कि लोकतंत्र के चमन में गजब रंगरेज यात्रा कर रहा है....!
लेखक - भूपेन्द्र भारतीय