Quote :

"लक्ष्य निर्धारित करना अदृश्य को दृश्य में बदलने का पहला कदम है" -टोनी रॉबिंस

Editor's Choice

डा. हेडगेवार की दूरदृष्टि अतुलनीय थी

Date : 09-Apr-2024

भारत का प्राचीन इतिहास अति वैभवशाली रहा है। पूरे वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत का योगदान 25 प्रतिशत से ऊपर ही बना रहा है। खाद्य सामग्री, इस्पात, कपड़ा एवं चमड़ा आदि पदार्थ तो जैसे भारत ही पूरे विश्व को उपलब्ध कराता था। परंतु, 712 ईसवी में सिंध प्रांत के तत्कालीन राजा श्री दाहिर सेन जी को कपटपूर्ण तरीके से मोहम्मद बिन कासिम द्वारा युद्ध में परास्त कर शहीद करने के उपरांत आक्रांताओं को भारत में प्रवेश करने का मौका मिल गया। हालांकि उस समय आक्रांताओं का मूल उद्देश भारत को लूटना भर था क्योंकि उस समय तक भारत को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। दरअसल, उस खंडकाल तक भारत से वस्तुओं का निर्यात पूरे विश्व को बहुत अधिक मात्रा में होता था इसके एवज में भारत को सोने की मुद्राओं में भुगतान अन्य देशों द्वारा किया जाता था। इससे भारत में स्वर्ण मुद्रा के भंडार जमा हो गए थे, इससे भारत को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाने लगा था। आक्रांतओं ने भारत में आकर देखा कि यहां के राजा तो एक दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं एवं इनमें आपस में भाईचारे का नितांत अभाव है। आक्रांताओं ने राजाओं की आपसी दुश्मनी का फायदा उठाकर कुछ राज्यों पर धीरे धीरे अपनी सत्ता स्थापित करना शुरू किया। वरना, आक्रांतओं ने भारत में प्रवेश तो मुट्ठी भर लोगों के साथ ही किया था परंतु उन्हें कुछ राजाओं को अपने साथ मिलाने में सफलता मिली थी। कालांतर में इसी प्रकार की कार्यशैली अंग्रेजों ने भी अपनाई थी। अंग्रेज़ भी ईस्ट इंडिया कम्पनी नामक संस्था के माध्यम से व्यापार करने के उद्देश्य से भारत में आए थे। परंतु, उस खंडकाल में भी वे भारतीयों को ‘बांटों एवं राज करो’ की नीति का अनुपालन करते हुए आसानी से भारत पर अपना साम्राज्य स्थापित करने में सफल रहे थे। अंग्रेजो ने अर्थव्यवस्था के साथ साथ भारतीय सनातन संस्कृति को भी तहस नहस करने का प्रयास किया। कुछ हद्द तक इसमें उन्हें सफलता भी मिली थी क्योंकि भारतीय अपनी मूल सनातन संस्कृति को ही भूल बैठे थे। 

इसी बीच नागपुर में 1 अप्रेल 1889 को एक बालक केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म हुआ, जो बचपन में ही देश प्रेम की भावना से ओतप्रोत थे। शायद ईश्वर ने ही उन्हें इस धरा पर विशेष उद्देश्य की पूर्ति हेतु ही भेजा था क्योंकि यह उनकी दूरदृष्टि ही थी जिसके चलते उन्होंने वर्ष 1925 में दशहरा के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना इस उद्देश्य से की थी कि देश के नागरिकों में देश प्रेम की भावना जागृत कर समाज में सामाजिक समरसता स्थापित की जाय। मुख्य रूप से भारतीय समाज में इन दोनों कमियों के चलते ही पहिले आक्रांताओं एवं बाद में अंग्रेजो ने भारत पर अपना राज्य स्थापित करने में सफलता हासिल की थी। यह बात परम पूज्य डा. हेडगेवार जी ने बचपन में जान ली थी एवं सनातनी हिंदुओं के बीच व्याप्त सामाजिक बुराईयों को दूर करने का प्रण ले लिया था। डा. साहिब वर्ष 1914 में एमबीबीएस की डिग्री कलकता में प्राप्त करने के उपरांत नागपुर वापिस आ गए थे।

डॉ. हेडगेवार ने कभी पेशेवर डॉक्टर के रूप में कार्य नहीं किया। वे देश की स्वतंत्रता और सेवा हित में चलाये जाने वाले कार्यक्रमों से जुड़कर अध्ययन करते रहे। डॉ. हेडगेवार ने इन वर्षों में भारत के इतिहास, वर्तमान और भविष्य को जोड़कर राष्ट्रीयता के मूल प्रश्न पर विचार किया। जिसके निष्कर्ष में भाऊजी काबरे, अण्णा सोहोनी, विश्वनाथराव केलकर, बाबूराव भेदी और बालाजी हुद्दार के साथ मिलकर 25 सितम्बर, 1925 (विजयादशमी) को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शुरुआत की गयी। उस समय यह सिर्फ संघ के नाम से जाना जाता था। उसमें राष्ट्रीय और स्वयंसेवक शब्दों को छह महीनों बाद यानि 17 अप्रैल, 1926 में सम्मलित किया गया। 
डा. साहिब स्वयं ही स्वयसेवकों से व्यक्तिगत रूप से जुड़े रहते थे। 1935 में एक भाषण के दौरान डॉ. हेडगेवार कहते है, “कोई स्वयंसेवक आज अच्छी तरह से काम कर रहा है और कल वह अपने घर बैठ जाए। यदि किसी दिन कोई स्वयंसेवक शाखा में न उपस्थित न रहा, तो तुरंत उसके घर पहुंचकर वह क्यों नहीं आया इस बात की जानकारी लेनी चाहिए। नहीं तो दूसरे दिन भी वह शाखा में नहीं आएगा. तीसरे दिन उसके संघ स्थान जाने में संकोच होगा. चौथे दिन उसको कुछ डर सा मालूम होगा और पांचवें दिन वह टालमटोल करने लग जायेगा। अतः किसी स्वयंसेवक को शाखा से अनुपस्थित नहीं होने देना चाहिए।” सतारा से नाना काजरेकर पुणे के संघ शिक्षा वर्गों में 1936 से हिस्सा लेने लगा। पेट की बीमारी के चलते वह कुछ कार्यक्रमों से दूर रहने लगा। डॉ. साहब ने स्वयं उसकी समस्या का पता लगाया और उसे चिकित्सा उपलब्ध कराई।
डॉ. हेडगेवार की भाषा और आचरण में सामान्यतः सरलता एवं आत्मीयता थी। चूंकि संघ का कार्य राष्ट्र का कार्य हैं इसलिए उन्होंने सभी को परिवार के सदस्य के रूप माना। परस्पर घनिष्ठता और स्नेह-संबंधों के आधार पर उन्होंने नियमित स्वयंसेवकों को तैयार किया। उनका विचार था कि किन्ही अपरिहार्य कारणों से संघ का कार्य अवरुद्ध न होने पाए। उनका उद्देश्य केवल संख्या बढ़ाने पर नहीं बल्कि वास्तव में हिन्दुओं को संगठित करना था। इसके लिए उन्होंने समझाया कि संघ का कार्य जीवनपर्यंत करना होगा। समाज में स्वाभाविक सामर्थ्य जगाना ही इसका अंतिम लक्ष्य होगा।
स्वयंसेवकों का मनोबल बनाये रखने में डॉ. साहब कोई कसर नहीं छोड़ते थे। वे उनके साथ पारस्परिक चर्चा करते रहते थे। संगठन की चर्चा करते हुए एक बार उन्होंने कहा, “जब संघ का निर्माण हुआ था उस समय भी परिस्थिति इतनी प्रतिकूल थी, कि कार्य करना असंभव सा प्रतीत होता था। जबकि इस प्रकार की अत्यंत कठिन परिस्थिति से न डरते हुए, निर्भीकता के साथ उसका हमने लगातार सामना किया और बराबर कार्य करते रहे, तब आज भी हमारे सामने परिस्थिति की कठिनता का प्रश्न क्यों उठाना चाहिए? आज तक हमारे कार्य करने की जो भी गति थी वह ठीक ही थी। किन्तु अब आगे कैसे होगा? क्या हमने आजतक जो कुछ कार्य किया; उसी को आप पर्याप्त समझते है? मैं निश्चय ही कह सकता हूँ कि प्रत्येक स्वयंसेवक कम-से-कम अपने मन में तो यही उत्तर देगा कि जितना कार्य हो जाना चाहिए था, नहीं हो पाया है।”  

डॉ. साहब 15 वर्षों तक संघ के पहले सरसंघचालक रहे। इस दौरान संघ शाखाओं के द्वारा संगठन खड़ा करने की प्रणाली डॉ. साहब ने विचारपूर्वक विकसित कर ली थी। संगठन के इस तंत्र के साथ राष्ट्रीयता का महामंत्र भी बराबर रहता था। वे दावे के साथ आश्वासन देते थे कि अच्छी संघ शाखाओं का निर्माण कीजिये, उस जाल को अधिक्तम घना बुनते जाइए, समूचे समाज को संघ शाखाओं के प्रभाव में लाइए, तब राष्ट्रीय आजादी से लेकर हमारी सर्वांगीण उन्नति करने की सभी समस्याएं निश्चित रूप से हल हो जायेगी। इन वर्षों में जिससे भी डा. साहिब का संपर्क हुआ उन्होंने डा. साहिब की और उनके कार्यों की हमेशा सराहना की। जिनमें महर्षि अरविन्द, लोकमान्य तिलक, मदनमोहन मालवीय, विनायक दामोदर सावरकर, बी.एस. मुंजे, बिट्ठलभाई पटेल, महात्मा गाँधी, सुभाषचन्द्र बोस, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और के.एम. मुंशी जैसे नाम प्रमुख थे।
डा. हेडगेवार के महाप्रयाण के तेरहवें दिन यानी 3 जुलाई 1940 को नागपुर में डा. साहिब की श्रद्धांजलि सभा आयोजित की गई। सरसंघचालक के नाते श्री गुरुजी ने उन्हें याद करते हुए बताया कि डा. साहिब के कार्य की परिणिति पंद्रह सालों में एक लाख स्वयंसेवकों के संगठित होने में हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संदर्भ में दत्तोपंत ठेंगड़ी जी कहते हैं कि “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का निर्माण किसी भावना या उत्तेजना में आकर नहीं हुआ है। श्रेष्ठ पुरुष जन्मजात देशभक्त डा. जी जिन्होंने बचपन से ही देशभक्ति का परिचय दिया, सब प्रकार का अध्ययन किया और अपने समय चलाने वाले सभी आंदोलनों में, कार्यों में जिन्होंने हिस्सा लिया, कांग्रेस और हिंदू सभा के आंदोलनों में भाग लिया, क्रांति कार्य का अनुभव लेने के लिए बंगाल में जो रहे, उन्होंने गहन चिंतन का पश्चात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजना बनाई।” 
आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक वटवृक्ष के रूप में एवं विश्व के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन के रूप में हमारे सामने खड़ा है। भारत में आज संघ की 73,000 से अधिक शाखाएं लग रही हैं एवं इन शाखाओं में स्वयंसेवकों में राष्ट्रीय भावना जागृति की जाती है ताकि ये स्वयंसेवक समाज में जाकर सज्जन शक्ति के साथ मिलकर भारत को एक बार पुनः विश्व गुरु के रूप में स्थापित कर सके। जिसका सपना डा. हेडगेवार जी ने भी देखा था।  
 
RELATED POST

Leave a reply
Click to reload image
Click on the image to reload









Advertisement