हमारे भारतीय परिप्रेक्ष्य में, या यूं कहें कि वैश्विक सन्दर्भ में भी “लैंगिक समानता” शब्द ही गलत है। जबकि यह “लैंगिक पूरकता” होना चाहिए। हम कैसा समाज चाहते हैं, हमें इस पर विचार करना ही होगा। लेकिन इसके साथ-साथ हमें यह भी याद रखना होगा कि हम अपनी गौरवशाली संस्कृति और परंपराओं को विस्मृत कर भविष्य के बारे में कैसे सोच पाएंगे। स्त्री-पुरुष को एक-दूसरे के समान नहीं, वरन् एक-दूसरे का पूरक बनना है। लैंगिक समानता की अवधारणा ही गलत है, क्योंकि इससे परस्पर प्रतिस्पर्धा बढ़ती है, एक-दूसरे के प्रति सम्मान में कमी आती है। कौन श्रेष्ठ है, कौन नहीं ऐसे शोध शुरु हो जाते हैं। होना तो यह चाहिए कि स्त्री और पुरूष की पूरकता की बात की जाए। हम एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं, समान नहीं क्योंकि स्त्री के बिना पुरुष और पुरुष के बगैर स्त्री परिवार, कुनबा, कुटुम्ब, समाज, राज्य, राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते।
एच.जी.वैल्स की दी आउट लाइन ऑफ हिस्ट्री तथा मैकमिलन पब्लिशिंग की 1921 न्यूयार्क नाम पुस्तक में यह सामने आता है कि यह विचार रोम के लोगों को प्रभावित करने लगा और मध्यकाल तक संपूर्ण यूरोप में फैल गया। थामस एक्यिनस नामक साधु ने अरस्तु के विचारों को इक्कीस भागों में पेश किया और प्रचारित किया। जब समय बीतने के साथ-साथ पश्चिमी देशों में स्त्रियों को आदर-सम्मान नहीं मिल सका तो उन्होंने विद्रोह का रास्ता अपनाया। नारी ने अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को पाने के लिए संघर्ष किया। लेकिन समय के साथ यही नारी स्वतंत्रता का आंदोलन लैंगिक संघर्ष में बदल गया। यह आंदोलन नारी के अधिकारों का भले ही समर्थक रहा हो, लेकिन नारी को सम्मान कभी नहीं दिला सका। स्त्री पुरूष के इस संघर्ष ने सामाजिक और पारिवारिक ताने-बाने को ही बिगाड़ कर रख दिया।