"कालयुक्त नव संवत्सर के राजा एवं प्रबंधन के आदि गुरु विश्वव्यापी हनुमान का प्राकट्योत्सव"
(महाबली हनुमान जी का अवतरण जयंती नहीं प्राकट्य है
सर्वकालिक विविध साक्ष्यों और संदर्भों में महाकाल के 11 वें रुद्र अवतारों के रुप में महाबली हनुमान जी विश्व व्यापी हैं। बल और बुद्धि प्रबंधन के आदिगुरु हैं।विश्व में कंबोडिया, थाईलैंड, इंडोनेशिया ,मलेशिया और लाओस में भगवान हनुमान की विधिवत रूप से लोग पूजा करते हैं।अमेरिका के डेलावेयर में स्थापित 25 फीट ऊंची हनुमान जी की प्रतिमा विश्व में आकर्षण का केंद्र है।
प्रबंधन कौशल के रुप एक दृष्टांत उल्लेखनीय है। यद्यपि हनुमान जी शाश्वत एवं शारीरिक रूप से ब्रम्हचारी हैं परंतु उनके विवाह की कहानी उनके एक गूढ़ ज्ञान प्राप्त करने के महाप्रबंधन का हिस्सा है। जिसके लिए उन्होंने महातपस्वी और तेजस्वी सूर्य पुत्री सुवर्चला से विवाह के लिए उनको यह कहते हुए मनाया कि आपको भी पूर्ण ज्ञान तभी प्राप्त होगा जब आप विवाह करेंगी उधर सूर्य देवता ने भी हरी झंडी दे दी। ज्ञान प्राप्ति के बाद देवी सुवर्चला पुनः तपस्या में लीन हो गयीं और हनुमान जी राम की सेवा में आ गये। इसलिए हनुमान सदा शारीरिक रूप से ब्रम्हचारी ही हैं। ये विश्व का सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन कहा जा सकता है। लंका में माता सीता का पता लगाकर उनको संबल देने उपरांत शत्रु के पक्ष को अपना पराक्रम दिखाकर लंका को जलाकर राख करने का उपक्रम हनुमान जी को एक कुशल दूत ही नहीं वरन् अपने स्वामी भगवान् श्रीराम की शक्ति और सामर्थ्य बताने अद्भुत एवं अद्वितीय उपाख्यान है।
ऐतिहासिक और पौराणिक आख्यानों में हनुमान जी प्रलय के प्रभाव से मुक्त हैं क्योंकि माता सीता ने हनुमान जी को अजर अमर होने का वरदान दिया है इसलिए वे चिरंजीवी हैं। अतः हनुमान जी के लिए जन्म अथवा जयंती जैंसे शब्दों का प्रयोग सर्वथा अनुचित है। अतः उनका अवतरण, प्राकट्योत्सव (प्रकटोत्सव, प्रगटोत्सव)है और यही शिरोधार्य होना तर्कसंगत एवं धर्मसम्मत है।
बात प्रारंभ करते हैं गीता से क्योंकि यह भारतीय न्याय व्यवस्था में शपथ के लिए विख्यात है। जब श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि सृष्टि के आरम्भ में यह उपदेश मैंने वैवस्वत सूर्य को दिया (गीता, 4/3) तो अर्जुन कहता है हे हरि! आपने तो वसुदेवपुत्र के रूप में अभी कुछ दिन पहले ही जन्म लिया है फिर यह कैसे संभव है? तब श्रीकृष्ण कहते हैं, प्रिय अर्जुन! मेरे और और तुम्हारे पहले ही कई जन्म हो चुके हैं (गीता, 4/5) जिन्हें मैं जानता हूँ ( परमात्मा होने से) परन्तु तू नहीं जानता (जीवात्मा होने से) अर्थात् , परमेश्वर की जानकारी में सब है, जीवात्मा की जानकारी में नहीं। यद्यपि तपस्या द्वारा सिद्ध पुरुषों को एक सीमा तक यह ज्ञान हो सकता है
आगे चलकर कहा गया है (4/7-8) जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है... मैं स्वयं को सृजित करता हूँ अर्थात् प्रकट या अवतरित करता हूँ।
श्रीमद्भागवत में शौनक आदि ऋषि, इतिहासवेत्ता सूत जी से पूछते हैँ! क्या करने की इच्छा से श्रीकृष्ण अवतरित हुए? (भागवत, 1/1/12) और आप हमें उनके विभिन्न अवतारों और लीलाओं की कथा सुनायें ( भागवत, 1/1/17-18)। यहाँ पर चिंतन किया जाये तो बोध होता है कि अवतार शब्द का प्रयोग परमात्मा के धरा पर आगमन का द्योतक है। और जन्म शब्द जीवात्माओं के लिए अधिक युक्तिसंगत है यद्यपि पहले ही कह चुके हैं कि व्यक्ति के गौरव में वृद्धि का विचार करने के उद्देश्य से उसके लिए भी अवतरण जैसा शब्द प्रयोग करने की प्रवृत्ति बढ़ी है।
श्रीराम के रूप में परब्रह्म के आगमन के लिए इसीलिए रामचरितमानस में इसीलिए कहा गया है -
"भये प्रकट कृपाला दीनदयाला, कौशल्या हितकारी।"
इसलिए देवात्माओं के धरा पर आगमन को प्रकटोत्सव, प्राकट्योत्सव, प्रकाशोत्सव, जैसे गरिमाबोधक शब्दों से इंगित किया जाता है।
इसी तरह जयंती शब्द का प्रयोग होता है, यहाँ यह ध्यान में रखना होगा कि साकार और निराकार दो दृष्टियाँ भारतीय परम्परा में रही हैं और वस्तुत: उनमें भेद भी नहीं है, परंतु मन में उनसे प्रसूत भावों के कारण व्याख्याओं में लोग भेद कर बैठते हैं।
किसी व्यक्ति के कर्म उसे महान् बनाते हैं, ऐसे महापुरुषों के सुयश अथवा कीर्तिपताका का स्मरण करने के लिए उनके जन्मदिन को जयंती शब्द के संबोधित करते हैं जो एक गौरवप्रदाता शब्द है।
उत्तररामचरित में भवभूति, शतकों में भर्तृहरि, शंकरदिग्विजय आदि संदर्भों में अवतार शब्द ईश्वर के धरा पर आगमन के लिए प्रयुक्त है। किसी व्यक्ति का देहावसान दिवस भी गरिमामय बन जाये इसलिए पखवाड़े के चांद्र दिवस की अवसान तिथि के साथ पुण्य लगाकर पुण्यतिथि के रूप में दिवंगत के कीर्ति को याद किया जाता है। वस्तुत: दिव्य आत्माओं की पुण्यतिथि न होकर "लीलासंवरण तिथि" या "लीलासंवरण दिवस"कहना अधिक उपयुक्त हो सकता है।
कुछ शब्द समय के साथ रूढ़ या बहुप्रचलित हो जाते हैं और प्रथा के रूप में प्रयोग किये जाने लगते हैं। निष्कर्षत: " प्राकट्य "शब्द ईश्वर की अपने कला-अंशों के साथ भूलोक में विभिन्न स्वरुपों में अवतरणिका का सूचक है।
लेखक: डॉ.आनंद सिंह राणा