24 नवम्बर 2006 : स्वामी सत्यानन्द सरस्वती का निधन Date : 24-Nov-2024 गौरक्षा से लेकर राम मंदिर निर्माण तक हर आँदोलन में सहभागी : केरल में सनातन परंपरा प्रतिष्ठित करने का संघर्ष स्वतंत्रता के बाद भी भारत में स्वत्व, सनातन परंपरा और भारत राष्ट्रत्व की पुनर्प्रतिठा का संघर्ष कम नहीं हुआ। भारत के विभिन्न प्राँतों में अनेक ऐसी शक्तियाँ हैं जिनमें कोई वैचारिक साम्य नहीं लैकिन सनातन के विरुद्ध एकजुट रहती हैं। इसकी स्पष्ट झलक केरल प्राँत में है जहाँ मुस्लिम लीग, वामपंथी और मिशनरीज एकजुट होकर रूपांतरण के अभियान में सक्रिय हैं। स्वामी सत्यानंद जी सरस्वती ऐसे ही संन्यासी थे जिन्होंने अपना पूरा जीवन इस गठबंधन के बीच सनातन परंपराओं को पुनर्प्रतिठित करने में समर्पित कर दिया । ऐसे ही क्राँतिकारी संत स्वामी सत्यानन्द सरस्वती का जन्म 22 सितम्बर 1033 को केरल प्राँत के तिरुअनन्तपुरम् के अंतर्गत ग्राम अण्डुरकोणम् में हुआ । परिवार ने उनका नाम शेखरन् पिल्लई रखा। उनका परिवार सनातन परंपराओं के लिये समर्पित था । घर में संस्कृत और मलयालम दोनों भाषाओं का वातावरण था । उनकी आरंभिक शिक्षा अपने गाँव में ही हुई। आगे की शिक्षा केलिये तिरुवनंतपुरम आये । शिक्षा पूरी कर के तिरुवनंतपुरम के माधव विलासम् हाई स्कूल में शिक्षक हो गये। वे बहुत मुग्धता से पढ़ाते थे । अपने विषयों के साथ भारतीय सनातन परंपरा की वैचारिकता और वैश्विकता के बारे में भी समझाते थे । यह समय भारतीय स्वतंत्रता के बाद का आरंभिक काल था । भारत स्वतंत्रता तो हो गया था लेकिन सल्तनतकाल और अंग्रेजीकाल में जो शक्तियाँ भारतीय समाज के रूपांतरण के लिये सक्रिय थीं, केरल में उनका काम यथावत चल रहा था । एक ओर छद्म सेकुरिस्ट थे, कहने केलिये इन्हें नास्तिक कहा जा सकता है लेकिन उनका उद्देश्य केवल सनातन परंपरा के दोष गिनाकर समाज को उसकी जड़ों से दूर करना था । वे अपने कुतर्कों से सनातन नौजवानों में भटकाव पैदा करने के अभियान में लगे थे तो दूसरी ओर कुछ कट्टरपंथी उलेमा एवं मिशनरीज सनातन अनुयायियों को अपने पंथ में रूपान्तरित करने का अभियान चला रहे थे । यद्यपि ये तीनों धाराएँ अलग हैं पर केरल में लगता था इन तीनों प्रकार की शक्तियों में कोई आंतरिक तालमेल हो । एक ओर यह कुचक्र बहुत तेज था लेकिन दूसरी ओर सनातन समाज में आंतरिक मतभेद बहुत थे, अनेक प्रकार के विभाजन थे । ऐसी शक्तियाँ कमजोर थीं जो सनातन को उसकी विशेषता समझाकर एकजुट कर सके । केरल के सामाजिक जीवन के ये दृश्य देखकर युवा शैखरन् पिल्लई का मन बहुत व्यथित रहने लग और इस समस्या के समाधान के लिये संतों से भी चर्चा करते । समय के साथ उनका संपर्क तिरुवनंतपुरम में स्वामी रामदास आश्रम से बना और वे 1964 में विधिवत दीक्षा लेकर आश्रम से जुड़ गए। शेखरन पिल्लई 1966 में हुये इतिहास प्रसिद्ध गौरक्षा आँदोलन के सहभागी बने । लौटे तो केवल शिक्षक न रहे । संन्यास लेकर पूरी तरह सनातन सेवा में लग गये । सन्यास के बाद अब उनका नाम स्वामी सत्यानंद सरस्वती हुआ। संन्यासी के रूप में पूरे केरल प्राँत की पदयात्रा की और पूरे सनातन समाज को एकजुट का अभियान चलाया। इसके लिये केरल में 'हिन्दू ऐक्य वेदी' नामक संगठन तैयार किया और वे संगठन के अध्यक्ष बने । वे बहुत अध्ययनशील थे । इतिहास, संस्कृति और आध्यात्म उनके प्रिय विषय थे । उनके प्रखर भाषणों, तर्कपूर्ण विश्लेषणों से समाज में नई ऊर्जा और एकत्व का संचार हुआ । 1970 के बाद केरल राज्य में विभिन्न हिन्दू संगठनों को एकसूत्र में बाँधने में उनकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही। सामाजिक जागरण के लिये सभा संगोष्ठियों के साथ 'पुण्यभूमि' नामक एक दैनिक समाचार पत्र का प्रकाशन भी आरंभ किया और वे इसके सम्पादक बने। स्वामी जी आयुर्वेद और वनस्पति के औषधीय गुण के भी जानकार थे । उन्होंने 'हर्बल कोला' नामक एक स्वास्थ्यवर्धक पेय बनाया जो अपने समय में बड़ा लोकप्रिय हुआ। उन्होने श्री राम दास मिशन की भी स्थापना की। वे ज्ञान योग, भक्ति योग, राज योग, तथा कर्म योग आदि आध्यात्मिक विषयों पर अद्भुत व्याख्यान देते थे । स्वामी जी श्री रामदास आश्रम चेंगोट्टूकोणम (तिरुअनन्तपुरम्) के पीठाधिपति बने । समय के साथ विश्व हिंदू परिषद से जुड़े और विश्व हिन्दू परिषद के मार्गदर्शक मंडल के सदस्य रहे। उन्होंने देश विदेश में अनेक रामदास आश्रमों की स्थापना की। 'यंग मैन्स हिन्दू ऐसोसियेशन' तथा 'मैथिली मण्डलम्' से उन्होंने बड़ी संख्या में हिंदू परिवारों को जोड़ा। समय के साथ अयोध्या मे राम मंदिर आँदोलन से जुड़े और अयोध्या से अनेक विद्वानों को केरल आमंत्रित कर केल की राजधानी तिरुअनन्तपुरम् में प्रतिवर्ष रामनवमी मेले की परंपरा आरंभ की । अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण आंदोलन की प्रत्येक कारसेवा में स्वामी जी केरल से संतों और रामभक्तों का बड़ा समूह लेकर सहभागी हुये । अपना पूरा जीवन स्वत्व, संस्कार और सनातन परंपराओं को पुनर्प्रतिठित करने केलिये समर्पित रहा । करने वाले स्वामी सत्यानन्द सरस्वती जी ने 73 वर्ष की आयु में 24 नवम्बर 2006 को अपना शरीर त्याग दिया। उनकी स्मृति मेः तिरुवनंतपुरम स्थित उनके आश्रम में मेला लगाता है । इस आश्रम मेः उनके ग्रंथों की पांडुलिपियाँ सुरक्षित हैं । लेखक:- रमेश शर्मा