चंद्रशेखर आजाद और भगतसिंह की भेंट इन्हीं ने कराई थी
राष्ट्र और संस्कृति को सर्वोपरि मानते थे
सार्वजनिक जीवन या पत्रकारिता में ऐसे नाम विरले हैं जिनका व्यक्तित्व व्यापक है और जो विभिन्न विचारों में समन्वय बिठा कर राष्ट्र और संस्कृति की सेवा में समर्पित रहे हों । ऐसे ही क्राँतिकारी पत्रकार थे गणेश शंकर विद्यार्थी । उन्हे उनके जीवन में और जीवन के बाद भी सब अपना मानते हैं । वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अहिसंक आँदोलन में जहाँ स्वयं सीधे जुड़े थे तो वहीं क्राँतिकारी आँदोलन के बलिदानियों के अज्ञातवास की व्यवस्था करते थे । यह व्यवस्था उनके रुकने से लेकर धन प्रबंध तक होती थी । वे पाँच बार जेल गये । वे राष्ट्र के लिये सामाजिक और साम्प्रदायिक एकता आवश्यक मानते थे और कहते थे कि राष्ट्र का आधार समन्वय और सद्भाव है संस्कृति राष्ट्र पहचान है । पूजा उपासना पद्धति पृथक होने से राष्ट्रीयता नहीं बदलती। इसलिये सबके लिये राष्ट्र और संस्कृति सर्वोपरि होना चाहिए । वे सदैव इसी अभियान में लगे रहे और इसी अभियान में उनका बलिदान भी हुआ ।
विद्यार्थी संस्कृत, हिन्दी, उर्दू फारसी और अंग्रेजी भाषाओं के जानकार थे । उनकी भाषा सरल शुद्ध और मुहावरेदार होती थी । पत्रकारिता में शुद्ध, सरल और मुहाबरे दार भाषा का चलन विद्यार्थी जी ने ही आरंभ किया था । उनका प्रत्येक पल राष्ट्र, संस्कृति और पत्रकारिता के लिये समर्पित था । पर यह जीवन यात्रा दीर्घ जीवी न रह सकी । मात्र 41 वर्ष की आयु में ही उनका बलिदान हो गया । वह 25 मार्च 1931 का दिन था । कानपुर बंद का आयोजन हुआ था । यह बंद क्राँतिकारी भगतसिंह को फाँसी दिये जाने के विरोध में आयोजित था । क्राँतिकारी भगतसिंह को 23 मार्च को फाँसी दी गई थी । गम, गुस्से और विरोध में देश के विभिन्न स्थानों पर बंद का आयोजन हुआ । इसकी पहल विद्यार्थी जी और प्रताप ने की थी । लेकिन मुस्लिम लीग और कुछ संगठन थे जिन्होंने बंद का विरोध किया 24 मार्च से कानपुर में साम्प्रदायिक दंगे शुरु हो गये । विद्यार्थी जी को लगा कि वे दंगाइयो को जाकर समझा सकते हैं कि भगतसिंह का बलिदान इस राष्ट्र की स्वाधीनता के लिये हुआ है । सबको मिलकर विरोध करना चाहिए । हालांकि प्रताप के सहयोगियों ने विद्यार्थी जी को रोकना चाहा पर वे न रुके । विद्यार्थी जी जितने सरल और सहज थे उतने ही अपने निर्णय और लेखन पय दृढ़ रहते थे । वे न माने और समझाने के लिये दंगाइयो के बीच चले गये । वस न लौट सके । दो तीन बाद दंगा थमा तब विद्यार्थी जी को ढूंढने का प्रयत्न हुआ । लेकिन वे कहीं न मिले अंत में 29 मार्च को उनका शव 'अज्ञात शवों' के ढेर में मिल सका । देखकर लगा कि शव के साथ भी अमानुषिकता बरती गयी । शव निकाला और अंतिम संस्कार किया गया । किस गली में प्रहार हुआ किसने किया यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है ।
लेखक - रमेश शर्मा