भारत के हर कौने में नरसंहार किये थे अंग्रेजों ने...
आज 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग नरसंहार को एक सौ छै वर्ष हो गये । इसी दिन वैशाखी उत्सव केलिये एकत्रित सहित निर्दोष नागरिकों का सामूहिक नरसंहार हुआ था। इसमें तीन सौ से अधिक लोगों का बलिदान और डेढ़ हजार से अधिक लोग घायल हुये थे । जिन घायलों ने बाद में प्राण त्यागे उनकी तो गणना भी नहीं हुई । बाद के अनुमानों में बलिदानियों की संख्या आठ सौ के पार मानी गई।
भारत में सामूहिक नर संहार का एक लंबा इतिहास है। हर विदेशी आक्रांता ने सामूहिक नरसंहार किये हैं । शवों के शीश काटकर टीले बनाये गये हैं। इतिहास के पन्नों में लगभग हर क्षेत्र में नर संहार का विवरण मिलता है। विदेशी हमलावरों यह खूनी खेल लगभग बारह सौ वर्षो तक चला । शायद ही कोई ऐसा दिन गया हो जब भारत की धरती अपने ही बेटों के रक्त से लाल न हुई हो । सैकड़ो घटनाओं का जिक्र तक नहीँ है । जिनका है उनका एक दो पंक्तियों में मिलता है। यदि सभी सामूहिक नर संहार की गणना की जाये तो लिखने के लिये पन्ने कम पडेंगे । सल्तनतकाल के बाद अंग्रेजीकाल में नरसंहार का सिलसिला थमा नहीं। प्लासी के युद्ध से लेकर 1857 की क्रांति के दमन तक भारत का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहाँ नरसंहार न हुआ हो। अंग्रेजीराज में ऐसे सामूहिक नरसंहार किये जाने की घटनाएँ पचास से अधिक हैं। इनमें हजारों लोगों का बलिदान हुआ। लेकिन जलियाँवाला बाग में हुआ सामूहिक नरसंहार भारतीय इतिहास में नया मोड़ लेकर आया। इस नरसंहार का आदेश देने वाले जनरल डायर को न केवल मौत के उतारा गया अपितु स्वतंत्रता संघर्ष में भी तेजी आई। इससे पहले नागरिक अधिकार और अंतरिम स्वायत्ता की बात तो थी पर पूर्ण स्वतंत्रता की बात खुलकर न आ रही थी। काँग्रेस के कयी अधिवेशनों की आंतरिक चर्चा में पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित ही न हो सकता था। लेकिन जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद वातावरण बदला और आँदोलन में तेजी आई। यह तेजी दोंनो प्रकार के आँदोलन में आई। अहिंसक आँदोलन में भी और सशस्त्र क्राँतिकारी आँदोलन में भी । जलियांवाला बाग सामूहिक नरसंहार के बाद मानों भारतीयों की सहनशक्ति जबाब दे गई थी । यह ठीक वैसा ही है जैसे जल से भरा हुआ प्याला एक बूँद पानी भी पचा नहीं पाता । एक ही अतिरिक्त बूँद और आने पर छलक उठता है । भीतर का पानी भी बाहर फेंकने लगता है। ठीक वैसे ही अंग्रेजों के आतंक से आकंठ डूबे भारतीय जन मानस में एक ज्वार उठ आया । इस घटना के बाद स्वाधीनता संघर्ष को एक नयी गति मिली और पूरा भारत उठ खड़ा हुआ । और यह घटना स्वतंत्रता एवं स्वाभिमान संघर्ष के लिये निमित्त बनीं।
अंग्रेजी सत्ता का दमन प्लासी का युद्ध जीतकर आरंभ हुआ और 1803 में दिल्ली पर अधिकार कर लेने के बाद बहुत तेज हुआ। और निर्दोष नागरिक भी अंग्रेजी क्रूरता का शिकार होने लगे। उसदिन 13 अप्रैल को अपने परिवार सहित लोग जलियाँ वाला बाग में लोग किसी संघर्ष के लिये एकत्र नहीं हुये थे ।वे वैशाखी मनाने एकत्र हुये थे । यदि संघर्ष के लिये एकत्र होते तो महिलाओं और बच्चों को साथ क्यों लेकर आते। वे अपनी संस्कृति और परंपराओं के प्रति जागरूक थे । और उसी के निर्वाहन केलिये वहाँ एकत्र हुये थे । भारत आये आक्रमणकारियों ने अपनी गतिविधियाँ केवल सत्ता स्थापित करने और धन संपदा की लूट तक ही सीमित नहीं रखा। वे भारत की परंपरा और इतिहास को भी नष्ट करना चाहते थे। इसके लिये छल और बल दोनों प्रयोग किये गये। अपनी इसी योजना के चलते अंग्रेज सामूहिक रूप से वैशाखी मनाना रोकना चाहते थे। इसीलिए लोगों के एकत्र होते ही अंग्रेजी फौज ने पूरे बाग को चारों ओर से घेर लिया और बिना किसी चेतावनी अंधाधुंध फायरिंग आरंभ कर दी । शवों के ढेर लग गये। बचने के लिये लोग भागे। वहाँ एक कुँआ बना है लोग बचने के लिये उसमें कूदे। कुछ शव निकले और कुछ घायल। शवों को वहीं छोड़कर सेना रवाना हुई। शव उठाने वाले तक नहीं बचे थे।
इस काँड की पूरे पंजाब में व्यापक प्रतिक्रिया हुई। प्रतिशोध लेने की ज्वाला युवाओं के मन में धधक उठी। अनेक युवाओं ने गोलीकांड का आदेश देने वाले जनरल डाॅयर को यमलोक पहुँचाने का संकल्प लिया किंतु सफलता क्राँतिकारी ऊधमसिंह को मिली । उन्होंने लंदन जाकर जनरल डायर को मौत की नींद सुला दिया था ।
जलियांवाला बाग के इस जघन्य हत्याकाँड पर खेद जताने में अंग्रेजों को सौ साल लगे । 2019 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने पहली बार खेद जताया । इससे पहले अंग्रेजों ने इस घटना और इस तरह की तमाम घटनाओं को कभी गंभीरता से न लिया था । वे हर नरसंहार का औचित्य ही प्रमाणित करते रहे । अंग्रेजों अथवा अन्य यूरोपियन्स देशों के लोगों अपनी सत्ता के अहंकार में ऐसे नर संहार केवल भारत में ही नहीं किये हैं । पूरी दुनियाँ में किये हैं । इसका कारण यह है कि वे इस प्रकार के सामूहिक नरसंहार करने के आदि रहें हैं । मध्य एशिया से लेकर यूरोप तक के लोग जिन भी देशों में भी गये, उन देशों में जाकर अपनी सत्ता स्थापित करने या स्थापित सत्ता को सशक्त करने के लिये नर संहार ही किये हैं । ऐसा कोई देश अपवाद नहीं । अमेरिका और अफ्रीका में भी अंग्रेजों द्वारा ऐसे नर संहार किये जाने की घटनाओं से भी इतिहास भरा है । अंग्रेज ही नहीं अन्य यूरोपियन्स समूहों द्वारा भी सामूहिक नरसंहार करना सामान्य बात है । भला यूरोप का ऐसा कौनसा देश है जहाँ यहूदियों का सामूहिक नर संहार न हुआ हो । लाखों यहूदियों का तड़पा तड़पा कर प्राणांत किया है।
भारत में अंग्रेजों के अन्य नरसंहार
जलियांवाला बाग की भाँति ही अंग्रेजों द्वारा सामूहिक दमन और नर संहार से भारत का हर कोना रक्त रंजित है । अंग्रेजों ने एक दर्जन से अधिक नर संहार तो केवल वनवासी क्षेत्रों में किये थे । कौन भूल सकता है गुजरात के साँवरकाठा काँड को । अंग्रेजों ने वनवासियों को समस्या सुनने के बहाने एकत्र किया और गोलियों से मून दिया । इस काँड में भी सैकड़ो वनवासी बलिदान हुये । शव उठाने वाला भी कोई न बचा था । मध्यप्रदेश में सिवनी जिले से लेकर नर्मदापुरम तक की पूरी वनवासी पट्टी पर कितना रक्त बहा कोई देखने वाला तक नहीं, झारखंड में बिहार में क्रूरता और बर्बरता से हुये इन नरसंहारो के विवरण भरे पड़े हैं । जो स्वयं अंग्रेज अधिकारियों ने अपनी डायरियों के पन्नों पर लिखे हैं । 1822 में नागपुर के राजा द्वारा परिवार सहित वन में चले जाने की घटना से अंग्रेज इतने बौखलाये कि नागपुर से लगे पूरे मध्यप्राँत में गाँव के गाँव जलाये गये, सामूहिक नर संहार किये । तब मध्यप्रदेश का महाकौशल भी इसी मध्य प्रांत का एक हिस्सा था । इस पर स्वयं नागपुर के अंग्रेज रेजीडेन्ट ने इस प्रकार गाँव जलाने और सामूहिक नरसंहार को अनुचित बताया था । 1857 की क्रान्ति की असफलता और अंग्रेजों ने अपनी जीत के बाद तो मानों सामूहिक नर संहार का अभियान ही चला दिया था सभी क्रांति स्थलों पर जो सामूहिक नर संहार किये । इनमें लखनऊ, कानपुर, कालपी, झाँसी, इंदौर, गौडवाना, भोपाल में गढ़ी अम्बापानी की घटनायें इतिहास में दर्ज हैं । इसी प्रकार दिल्ली पर दोबारा अधिकार करने के बाद अंग्रेजों ने दिल्ली के आसपास पूरी जाट पट्टी में लाशो के ढेर लगा दिये थे । उनका विवरण पढ़ कर रोंगटे खड़े होते हैं । कानपुर में सामूहिक नर संहार करने के लिये अंग्रेजों ने सत्ती चौरा कांड का बहाना लिया । सत्ती चौरा कांड का विवरण अंग्रेजों द्वारा कूट रचित है । भारतीय क्राँतिकारियों ने अंग्रेजों का कोई नर संहार नहीं किया था । कानपुर में क्रांतिकारियों की सफलता के बाद सत्ती चौरा में अंग्रेज समूह एकत्र हो गया था । यह समूह क्राँतिकारियों से घिरा हुआ था । लेकिन क्राँतिकारियों ने किसी को क्षति नहीं पहुँचाई । नाना साहब पेशवा ने अंग्रेज स्त्री बच्चों, पादरियों सहित सभी सामान्य नागरिकों को जाने दिया ।
उन्हें सुरक्षा देकर रवाना कर दिया था । वहाँ जो अंग्रेज मरे ये सभी सैनिक थै और वे थे जिन्होंने आत्म समर्पण नहीं किया था । लेकिन अंग्रेजों ने इस घटना को नर संहार करार दिया । और जब दूसरा दौर आया, अंग्रेजों की अतिरिक्त कुमुक आई । कानपुर पर अंग्रेजों का दोबारा अधिकार हुआ तब उन्होनें किया था सामूहिक नरसंहार । इस नर संहार में न केवल क्राँतिकारियों की ढूंढ ढूंढ कर हत्या की अपितु उन गांवो में भी सामूहिक नरसंहार किये जिन गाँव वालों ने क्राँतिकारियों को छिपने के लिए सहायता की थी । देश भर ऐसे बीभत्स दृश्य उपस्थित हुये जो मानवता को भी शर्मशार करने वाले हैं । 1857 में नर संहार की इन सभी घटनाओं में एक बात सभी स्थानों पर दोहराई गई । वह यह कि अंग्रेजी सेना ने पहले घेरकर क्राँतिकारियों से हथियार डालने को कहा, यह आश्वासन भी दिया कि यदि हथियार डाल कर समर्पण कर दोगे तो माफी दे दी जायेगी । तोप के मुहानों पर, चारों तरफ से घिरे क्राँतिकारी जो भोजन की सामग्री की तंगी तक से जूझ रहे थे, के सामने हथियार डालने के अतिरिक्त कोई रास्ता भी नहीं था ।उन्होंने शस्त्र रख दिये लेकिन जैसे ही क्राँतिकारियों ने हथियार डाले उनके शरीरों को गोलियों से छलनी कर दिया गया । यह कहानी हर जगह दोहराई गई । यह भारतीय मानस का भोलापन है कि वे बार बार धोखा खाते हैं । दूसरे पर जल्दी विश्वास कर लेते हैं । भारत की परतंत्रता की बुनियाद में दो ही बातें हैं । एक भारतीयों का भोलापन, और दूसरे विदेशियों का कुटिल विश्वास घात । जब हम अतीत की किसी भी बड़ी घटना का स्मरण करते हैं तो परिदृश्य में ये बातें ही उभरकर सामने आतीं हैं ।
आज जलियाँ वाला बाग के सामूहिक नरसंहार का स्मृति दिवस है । यह नर संहार ध्यान में आते ही जहाँ हमारा मन उन निर्दोष बलिदानियों के रक्त पात से आहत है तो वहीं इस बात का गर्व भी कि क्रांति कारी ऊधमसिंह ने लंदन जाकर बदला लेने का उदाहरण प्रस्तुत किया । इतिहास की ऐसी घटनाएं केवल स्मरण करने की भर नहीं होतीं । कोई संदेश लेने की भी होती हैं । आखिर अंग्रेज क्या घोषणा कर भारत आये थे । कैसे मीठी बातों से उन्होंने भ्रमित किया, कैसे व्यापार में समृद्धि के सपने दिखाये थे । क्या भारत समृद्ध हो पाया । कहाँ से चल कर कहाँ पहुँचे । अतीत में जो घट गया उसे बदला नहीं जा सकता है । लेकिन उससे सबक लिया जा सकता है । वह सबक दो प्रकार का है । एक तो जो व्यक्ति आया है अपनी बात रख रहा है हमें उसकी बातों पर नहीं उसकी नियत पर ध्यान देना है। उसके उद्देश्य पर ध्यान देना । भाई चारा शाँति जिसके रक्त में ही नहीं है । अतीत में जिसने सदैव धोखा और क्रूरता का ही काम किया है वह कैसे भला मानुष हो सकता है । और दूसरा हमें दुष्टों के साथ सशक्त और संगठित होकर ही व्यवहार करने का मन बना लेना चाहिए । तभी जलियाँ वाला बाग में बलिदान हुये देश वासियों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।
लेखक --रमेश शर्मा