राजा राष्ट्रकृतं पापं राज्ञः पापं पुरोहितः ।
भर्ता च स्त्रीकृतं पापं शिष्य पाप गुरुस्तथा ॥
आचार्य चाणक्य यहां कर्म के दूरगामी प्रभाव की चर्चा करते हुए कहते हैं कि राष्ट्र द्वारा किए गए पाप को राजा भोगता है। राजा के पाप को उसका पुरोहित, पत्नी के पाप को पत्ति तथा शिष्य के पाप को गुरु भोगता है।
भाव यह है कि प्रजा का पाप राजा को, राजा का पाप उसके पुरोहित को, स्त्री का पाप उसके पति को तथा शिष्य का पाप उसके गुरु को भुगतना पड़ता है। क्योंकि देखा जाय तो इसका सीधा सम्बन्ध राजा द्वारा अपने कर्तव्यपालन न करने से है। राजा यदि अपने राज्य में कर्तव्यपालन नहीं करता और उदासीन रहता है तो वहां पाप-वृत्तियां बढ़ती हैं, अराजकता आ जाती है, उसका दोष राजा को ही जाता है। पुरोहित का कर्तव्य है कि राजा को अच्छी सलाह दे, उसे सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त करे, उसे सच्ची और खरी बात बताये और अनुचित कर्म करने से रोके। यदि पुरोहित अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता और उसके कारण राजा पापकर्म में प्रवृत्त होता है तो उसका फल उसके पुरोहित अथवा मंत्री को भुगतना पड़ता है क्योंकि राजा को नियंत्रित रखने का दायित्व उन्हीं का है। इसी प्रकार पति का कर्तव्य है कि पत्नी को पापकर्म की ओर प्रेरित न होने दे, उसे अपने नियन्त्रण में रखे। पत्नी यदि कोई गलत काम करती है तो उसका फल अथवा परिणाम पति को ही भोगना पड़ता है। इसी प्रकार गुरु का कर्तव्य है कि शिष्य का सही मार्गदर्शन करे, उसे सत्कर्मों की ओर प्रेरित करे। यदि वह अपने इस कर्तव्य के प्रति सावधान नहीं रहता और शिष्य पापकर्म में प्रवृत्त होता है तो उसका दोष गुरु के सिर पर मढ़ा जाता है। राजा, पुरोहित और पति का कर्तव्य है कि वे प्रजा, राजा, पत्नी व शिष्य को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें।