"सच्ची क्षमा: जब दिल से माफ करना बना सबसे बड़ी जीत" | The Voice TV

Quote :

"जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते, तब तक आप भगवान पर भी विश्वास नहीं कर सकते " – स्वामी विवेकानंद

Editor's Choice

"सच्ची क्षमा: जब दिल से माफ करना बना सबसे बड़ी जीत"

Date : 19-Apr-2025

महाकवि जयदेव एक बार तीर्थयात्रा के लिए निकले थे। मार्ग में एक नरेश ने उनका बड़ा सम्मान कर उन्हें बहुत सारा धन दिया। धन के लोभ से कुछ डाकू उनके साथ हो लिए। एकांत स्थान में पहुँचने पर डाकुओ  ने आक्रमण करके जयदेव को पटक दिया और उनके हाथ पैरों को क्षतिग्रस्त कर  उन्हें  एक कुँए में डाल  दिया तथा धन की गठरी लेकर चलते बने


संयोगवश उस कुँए में पानी नही था | जयदेव को जब चेतना लौटी तो वे उस कुँए में  ही भगवन्नाम का कीर्तन करने लगे। उसी दिन उधर से गौडेश्वर राजा लक्ष्मणसेन का काफिला निकला। उन्हें कुँए के भीतर से मनुष्य का स्वर सुनाई पड़ा। नरेश की आज्ञा से जयदेव को बाहर निकाला गया। उन्हें लेकर नरेश राजधानी आये। नरेश पर जयदेव की विद्वत्ता तथा भगवद्भक्ति का इतना प्रभाव पड़ा कि उन्होंने उनको अपनी पंचरत्न सभा का प्रधान बना दिया और सर्वाध्यक्ष का भार भी उन्हें ही सौंप दिया।

 

राजा ने उनके हाथ-पैरों को क्षति पहुंचाने वालों के विषय में जानना चाहा। कवि ने उनका हुलिया तक राजा को बताने में असमर्थता व्यक्त की।

 

समय बीतता गया कि एक बार राजमहल में कोई उत्सव था। बहुत अधिक भिक्षुक, साधु तथा ब्राह्मण भोजन करने के लिए आये थे। उन्हीं में साधु के वेश में जयदेव के हाथ-पैरों को क्षति पहुंचाने वाले डाकू भी आये थे। लूले पंगु जयदेव को वहाँ पर सर्वाध्यक्ष देखकर डाकुओं के प्राण सूख गये। जयदेव ने भी उन्हें पहचान लिया और राजा से बोले- "मेरे कुछ पुराने मित्र आये हैं, आप चाहें तो उन्हें कुछ धन दे दिया जाये।"

 

नरेश ने डाकूरूपी उन मित्रों को अपने पास बुलाया। डाकुओं ने समझा कि अब प्राण नहीं बचेंगे। किन्तु राजा ने उनका बड़ा सत्कार किया, उन्हें बहुत अधिक धन दिया।

 

डाकू वहाँ से शीघ्रातिशीघ्र चले जाना चाहते थे। नरेश ने कुछ सेवक उनके साथ कर दिये, जिससे वे सुरक्षित घर पहुँच सकें।

 

मार्ग में राजसेवकों ने स्वभाववश पूछा "श्री जयदेवजी से आप लोगों का क्या संबंध है?"

 

डाकू बोले- "हम लोग पहले एक राज्य में मिलकर काम करते थे। आपका जो आज सर्वाध्यक्ष बना हुआ है, उसने वहाँ ऐसा कुकर्म किया कि राजा ने इसके प्राण दण्ड की आज्ञा दी। किन्तु हम लोगों ने दया करके इसके हाथ पैर तुड़वाकर जीवित छुड़वा दिया। हम उसका भेद न खोल दें, इस डर से उसने हमारा इतना सम्मान करवाया है।"

 

झूठ और पाप की भी कोई सीमा होती है। प्रकृति का प्रकोप उन डाकुओं पर हुआ। उसी दिन आँधी तूफान आया, पृथ्वी फटी और वे सभी डाकू उसमें समा गये। राजसेवक उस समय उनसे

कुछ दूरी पर थे, वे बच गये और डाकुओं के जिम धन को वहन कर रहे थे वापस ले आये।

 

राजकवि जयदेव को समाचार मिला तो बेचारे बड़े दुःखी हुए। उन्होंने राजा को सारी घटना का यथावत वर्णन कर दिया और बोले "मैंने सोचा था कि ये लोग दरिद्र हैं। धन के लोभ से पाप करते हैं। धन मिल जायेगा तो पाप करने से बच जाएंगे, किन्तु मैं ऐसा अभागा हूँ कि मेरे कारण उन्हें प्राणों से मुक्त होना पड़ा।

 

"भगवान उन्हें क्षमा करें, उनकी सद्गति हो।"

 

राजा ने जयदेव के हाथ पैरों की चिकित्सा करवाई और वे शीघ्र ही ठीक होकर स्वस्थ जीवन व्यतीत करने लगे।

 
RELATED POST

Leave a reply
Click to reload image
Click on the image to reload

Advertisement









Advertisement