सांस्कृतिक विरासत: छत्तीसगढ़ में अलग - अलग संस्कृति और सभ्यता के लोग रहते हैं | यदि बात बस्तर की करें तो यहां की संस्कृति हजारों साल पुरानी है | आज भी बस्तर के आदिवासी अपनी पुरानी रीति रिवाज और संस्कृति को आने वाली पीढ़ियों को सौंप रहे हैं| बस्तरिया आदिवासियों की परंपरा सिर्फ छत्तीसगढ़ में ही नहीं बल्कि देश विदेश में भी जानी जाती है | फिर भी आधुनिकता की चादर पुरानी रीति रिवाजों को धीरे - धीरे ढक रही है | जिसे बचाने के लिए बस्तर के युवाओं द्वारा कई प्रयास किए जाते हैं |
यहां के लोग अपनी संस्कृति को आगे लेकर जाना चाहते हैं ताकि लोग उसे याद रखें.लोग डीजे डांस जैसी प्रतियोगिता रखते हैं. लेकिन हमारी जो मंडरी नृत्य है लोग उसे भूल रहे हैं. इसलिए हमारे समाज के युवा अपनी संस्कृति को बचाने के लिए इस प्रतियोगिता में हिस्सा लेते हैं.''
धनकुल : आदिवासी इलाकों में धार्मिक आयोजनों में धनकुल बजाने की परंपरा है.धनकुल धनुष, सूप और मटके से बना वाद्य यंत्र है. जगार गीतों में इसे बजाया जाता है. आदिवासी महिलाएं कुल की समृद्धि एवं धन- धान्य में बढ़ोत्तरी के लिए माता की आराधना के वक्त इसे बजाती हैं. धनकुल हल्बा समुदाय के मातृशक्तियों द्वारा गायी जाने वाली प्रकृति के प्रति आभार और उसके शक्तियों के बखान करने वाला गीत है. इस गीत में धरती को हरा-भरा होने, नदियों के कलकल बहने का वर्णन किया जाता है.इस गीत को गाने के साथ ही धनुष, सूपा, हंडी को विशेष तरह से रखकर डंडा से बजाया जाता है. जिससे सुमधुर आवाज निकलती है. गीत गाने वाली प्रमुख को गुरुमाय कहा जाता है.
कोलांग : प्रकृति से अपने प्रेम को प्रदर्शित करने वाले इस कोलांग त्योहार का बस्तर संभाग में विशेष महत्व है. कोलांग एक प्रकार का प्रकृति के बखान का गीत है जिसे प्रकृति गान भी कहा जाता है, जिसे दल का नेतृत्व करने वाले गुरु गाते हैं. इन गुरुओं का भी इस कोलांग दल में विशेष स्थान होता है. जैसे इन गुरुओं के भोजन करने के बाद ही दल के बाकी सदस्य भोजन ग्रहण करते हैं. देव कोंलाग शीतऋतु में, हुलकी महोत्सव वर्षा ऋतु में एवं रैला मांदरी उत्सव भी मनाया जाता है. सभी का अपना अपना महत्व है. ऐसी मान्यता है कि आदिवासी नृत्य के माध्यम से देवी-देवताओं, प्रकृति, जीव-जंतुओं की स्तृति कर समाज में खुशहाली आती है.