एक पत्रकार से फ़िल्म लेखक और फिर निर्माता निर्देशक बने रामानंद सागर को लोकप्रिय और श्रेष्ठ फिल्मकार के रूप में बड़ी पहचान 1965 में उनके अपने बैनर सागर आर्ट्स द्वारा 'आरजू' के निर्माण, निर्देशन और लेखन से मिली। बॉक्स ऑफिस पर सफल रही इस फ़िल्म ने कई इतिहास रचे। इससे पहले रामानंद सागर अपनी कंपनी सागर आर्ट्स कॉरपोरेशन के तहत दो अत्यंत असफल फिल्में मेहमान (1953) और बाजूबंद (1954) का लेखन निर्देशन कर चुके थे। इस बीच दक्षिण के सफलतम स्टूडियो जैमिनी की और से उन्हें काम का निमंत्रण मिला और वे मद्रास पहुंच गए। पहली फिल्म इंसानियत लिखी जो सफ़ल रही फिर तो जैमिनी प्रोडक्शन के लिए उन्होंने कई सफल फिल्में राजतिलक (1958), पैगाम (1959) घराना, गृहस्थी आदि लिखीं। घूंघट तथा जिन्दगी फिल्मों का निर्देशन भी किया। सच्चे मायने में एस. एस. वासन ही उनके सच्चे गुरु थे।
अपने निर्माण हाउस की दूसरी पारी की सफलतम फ़िल्म 'आरजू' ने उन्हें बर्लिन- मास्को-सिडनी सहित अंतरराष्ट्रीय मंच तक स्थापित कर दिया। 1965 से 1970 तक, रामानंद सागर ने एक के बाद एक चार रजत जयंती सफल फिल्मों- आरजू, आँखें, गीत और ललकार का निर्माण, निर्देशन और लेखन किया था, जो भारतीय सिनेमा में एक अद्वितीय कीर्तिमान है। सभी फिल्म समीक्षक 'आरजू' को रामानंद सागर की सर्वश्रेष्ठ कृति मानते हैं। एक बार उन्होंने बताया था कि यह फिल्म 'एन अफेयर टू रिमेंबर' से प्रेरित है- स्पष्ट रूप से 'आरजू' वहाँ से आरंभ होती है; जहाँ 'एन अफेयर टू रिसेंबर' का अंत होता है। आरजू की आउटडोर शूटिंग के दौरान अपने सर्वाधिक स्मरणीय और संभवत: सर्वोत्तम मूक प्रेम दृश्य के लिए पोस्त के लाल रंग के टनों अप्राकृतिक फूल खरीदे और डल झील के किनारे पर बिछा दिए थे, जहाँ राजेंद्र कुमार और साधना साथ-साथ चलते हैं और आपस में केवल उनकी आत्मा और भावनाएँ बात करती हैं- 'यह सड़क कहाँ जाती है ऊषा ... 'तुम इस सड़क की सोच रहे हो और मैं सोच रही हूँ कि जीवन की सड़क हमें कहाँ ले जाएगी...' उनका निःस्वार्थ प्रेम शब्दों से परे प्रेम की बात कर रहा था। श्री गुलाम जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री, शूटिंग स्थल पर आए और उन्होंने रामानंद सागर से आहिस्ता से पूछा कि इस मौसम में पोस्त के लाल फूलों का स्थान कैसे मिल गया? रामानंद सागर केवल मुस्कुरा दिए थे। गीतकार हसरत जयपुरी को भी शूटिंग की सभी लोकेशन सबसे पहले देखने के लिए विशेष रूप से विमान से श्रीनगर बुलाया गया था।
रामानंद सागर ने निःस्वार्थ प्रेमियों के बिछड़ने के दुःख पर मर्मस्पर्शी दुःख भरे गीत के चित्रांकन के लिए उस स्थान को चुना हुआ था, वहीं बैठकर यह मर्मस्पर्शी गीत 'बेदर्दी बालमा तुझको, मेरा मन याद करता है' का चित्रांकन किया जाना था। सरजू और ऊषा के विशुद्ध प्रेम का प्रतीक शांत झील को देखकर वे गीत लिखने के लिए प्रेरित हुए थे 'इस झील का खामोश दर्पण तुझको याद करता है।' गीत के बोल के साथ वास्तविक जीवन जैसे दृश्यों के कारण यह गीत सुपरहिट हो गया और ऊषा के भाग्य पर दर्शक उदास हो गए थे। मैंने अभी तक कोई ऐसा निर्देशक नहीं देखा है, जिसने स्थल से मिलान करते गीत के शब्दों के रंग में बसे दृश्य की परिकल्पना की हो। शरद ऋतु में चिनार के टुकड़े-टुकड़े पत्तों का हूबहू लाल भूरा रंग, जो उन्होंने श्रीनगर में रहते हुए देखा था और वियोग का प्रतिरूप था। रामानंद सागर को पर्यटन विभाग से प्रतिदिन एक फोन आता था और उन्हें चिनार के वृक्षों पर शरद ऋतु का प्रभाव बताया जाता था।
साधना ने अपना सामान तैयार रखा था और फोन पर पर्यटन मंत्री की पुष्टि के कुछ घंटों के भीतर पूरी यूनिट श्रीनगर की शरद घाटी में पहुँच गई।
साधना जैसी अति व्यस्त कलाकार भी शूटिंग की सूचना मिलने के कुछ घंटों के भीतर ही विमान से श्रीनगर पहुँच गईं, क्योंकि शरद ऋतु का उदासीन वातावरण, चिनार के पत्तों पर बर्फ जमने से पहले केवल एक सप्ताह के लिए ही रहनेवाला था। ऑस्कर अवार्ड विजेता वेशभूषा डिजाइनर भानु अथैया द्वारा तैयार की गई शुद्ध सफेद सलवार कमीज ने दृश्य में चार चाँद लगा दिए। यह भी रोचक तथ्य है कि यह सदाबहार गीत कैसे रिकॉर्ड हुआ। रामानंद सागर राजकमल स्टूडियो परेल में शूटिंग कर रहे थे। संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन ने किसी अन्य गीत की रिकॉर्डिंग के लिए सौ वाद्यवृंद कलाकारों की व्यवस्था की थी। गीत की रिकॉर्डिंग रद्द हो गई। जयकिशन तुरंत रामानंद सागर के पास आए 100 श्रेष्ठ वाद्यवृंद कलाकारों का ऑर्केस्ट्रा तैयार है, साउंड रिकॉर्डिंग के माहिर मंगेश देसाई के साथ उनका उच्च तकनीकी रिकॉर्डिंग स्टूडियो भी उपलब्ध है, प्रसिद्ध पार्श्वगायिका लता दीदी (लता मंगेशकर) भी मौजूद हैं, तो हम वह शरद गीत क्यों नहीं रिकॉर्ड कर लें, जो आपकी स्क्रिप्ट और आपके दिमाग में है।' रामानंद सागर जैसे अनजाने में पकड़े गए थे, वे किसी भी हालत में यह अवसर गँवाना नहीं चाहते थे। इन सारी प्रतिभाओं को इकट्ठा करने में महीनों लग जाते हैं, लेकिन एक समस्या थी कि गीत की धुन को अंतिम रूप दिया जाना शेष था और रिहर्सल भी नहीं हुई थी। जयकिशन ने कैमरे का पटला (लकड़ी का चौकोर स्टूल) खींचकर उँगलियों से ड्रम की ताल बजाते हुए गुनगुनाते हुए गीत के धुन की संगीत रचना करनी आरंभ कर दी। धीरे-धीरे स्टूडियो का ध्वनि मंच कलि पंच स्वर में गूंजने लगा, बेदर्दी बालमा... बिना किसी तैयारी के संगीत रचना और रिकॉर्ड किया गया गीत संगीत की धरोहर बन गया। गाने का पूर्वालाप 'आ आ....' लता मंगेशकर का सर्वश्रेष्ठ था। गीत के बोल और गीत आधी सदी से अधिक समय तक संगीत तालिका में सर्वोत्तम था। रामानंद सागर ने दर्शकों के सामने 'आरजू' में ऐसा कश्मीर प्रस्तुत किया था, जैसा पहले कभी देखा नहीं गया था। आज भी कश्मीर पर्यटन की विवरण पुस्तिका/वृत्तचित्रों या मंत्रियों के भाषणों में आरजू में फिल्माए गए कश्मीर को धरोहर चिह्न के रूप में प्रयोग किया जाता है। 'आरजू' प्रदर्शित हुई और पूरे देश में इसका जुनून छा गया था, जिसमें महमूद का संवाद' या इलाही मिट ना जांदी दरदे दिल... भी था।
चलते चलते
गुरु एस.एस. वासन ने शिष्य रामानंद सागर को बुलाया, सागर, मैं 'आरजू' को तमिल भाषा में बनाना चाहता हूँ, क्या मुझे इसके अधिकार मिल सकते हैं, इसके लिए मुझे क्या देना पड़ेगा? रामानंद सागर भावुक हो गए... एक गुरु अपने शिष्य के काम के लिए अनुरोध कर रहा था। आभार व्यक्त करते हुए उन्होंने भावुक स्वर में कहा यह सब आपका ही है, पैसे की बात बिल्कुल मत करिए, आपने सरस्वती की जो कृपा मुझे की थी, मैं उसका भुगतान कभी नहीं कर सकता, मैं अगली फ्लाइट से फिल्म का प्रिंट आपके पास भेज दूँगा।
एक सप्ताह बाद वासन साहब का फोन आया, सागर, मैं यह फिल्म नहीं बना सकता। भावनाओं का प्रयोग और लोकेशन चाहे वे उदास साधना पर गिरते चिनार के पत्ते हों या कमर तक गहरी बर्फ में अपने प्यार के लिए राजेंद्र कुमार का चलना उसे पहचानने से मना कर देना यह सब मैं शूट नहीं कर सकता। सागर मैं रोया हूँ मैंने सोचा, एक बार फिर कोशिश की, मुझे लगा कि 'आरजू' दुबारा बनाना किसी के लिए भी संभव ही नहीं है।
अजय कुमार शर्मा
(लेखक, राष्ट्रीय साहित्य संस्थान के सहायक संपादक हैं।)