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बॉलीवुड के अनकहे किस्से वनमाला : राजकुमारी नायिका से संन्यास तक

Date : 27-May-2023

 साल 1954 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार देने शुरू किए थे। और इस वर्ष सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रपति स्वर्ण कमल पुरस्कार मराठी फिल्म श्यामची आई को दिया गया था। मराठी पत्रकार/ लेखक साने गुरुजी की आत्मकथात्मक कहानी पर बनी इस फिल्म का निर्देशन पीके अत्रे ने किया था और निर्माण अभिनेत्री वनवाला ने। उन्होंने इस फिल्म में स्वयं मां का यादगार अभिनय भी किया था। चालीस और पचास के दशक की मशहूर अभिनेत्री वनमाला (मूल नाम सुशीला पंवार ) की यह अंतिम फिल्म थी। अपने समय की सबसे सुशिक्षित, सुंदर और शालीन इस अभिनेत्री ने इसके बाद अपने पिता के कहने पर फिल्मों से संन्यास लेकर अध्यात्म की शरण ली थी।

ग्वालियर के सिंधिया राजघराने के नजदीकी कर्नल रायबहादुर बापूराव आनंदराव पंवार के घर 23 मई, 2015 को उज्जैन में जन्मी वनमाला का बचपन ग्वालियर में राजकुमारों के बीच गुजरा। उन्हें राजघराने के अनुरूप ही पढ़ाने और लिखाने के साथ ही घुड़सवारी, तीरंदाजी, तैराकी, पोलो और शिकार आदि का भी प्रशिक्षण दिया गया। वे कथक और कथकली और मणिपुरी नृत्य में भी पारंगत थी ।

आगरा विश्वविद्यालय से बीए करने के बाद बाद वह पढ़ाई के लिए बंबई गई। 1935 में अपनी मां की मृत्यु के बाद वे अपनी मौसी के पास पूना चली गईं जो वहां आचार्य अत्रे द्वारा स्थापित स्कूल की प्राचार्य थीं। वे इसी स्कूल में पढ़ाने लगीं। इस स्कूल में मराठी और हिंदी फिल्मों की नामी-गिरामी हस्तियों का आना जाना लगा रहता था । सब उनकी सुंदरता और शालीनता से प्रभावित थे और उन्हें अपनी फिल्मों में लेना चाहते थे लेकिन तब फिल्मों में काम करना बेहद घटिया समझा जाता था और उनका परिवार तो वैसे भी राजपरिवार का नजदीकी था । पर सबके समझाने पर आखिरकार 1936 में उन्होंने नवयुग चित्रपट द्वारा बनाई जा रही लपांडव (आंख-मिचौनी) फिल्म स्वीकार की।

इस फिल्म को देखते ही सोहराब मोदी ने तुरंत अपनी फिल्म सिकंदर की नायिका रुखसाना का रोल उन्हें दे दिया। इसके बाद तो सफल फिल्मों का सिलसिला चल पड़ा। चित्र मंदिर की वसंत सेना (शाहू मोडक ) वी. शांताराम की पर्वत पे अपना डेरा, इजरा मीर की बीते दिन ओर वाडिया ब्रदर्स की शरबती आंखें वनमाला के करिअर की अन्य उल्लेखनीय फिल्में हैं। उन्हें उस दौर के तमाम नामी नायकों के साथ काम करने का मौका मिला। पहाड़ी सान्याल (कादंबरी), सुरेंद्र (परिदें), और मोतीलाल ने फिल्म मुस्कराहट में उनके साथ काम किया। अपनी अंतिम फिल्म श्यामची आई जो कि नायिका प्रधान थी में उन्होंने एक ऐसी मां का रोल निभाया था, जिसका पति एक छोटा बेटा छोड़कर मर जाता है। वह सिलाई कढ़ाई जैसे घरेलू काम कर संघर्ष के साथ बेटे को शिक्षित कर एक बड़ा आदमी बनाने में सफल होती है। पचास के दशक की इस आदर्शवादी फिल्म ने समाज को बहुत प्रेरित किया था और इसकी व्यापक चर्चा हुई थी। इस फिल्म के बाद वनमाला ने फिल्मों से ही नहीं बल्कि अपने जीवन में भी संन्यास ले लिया।

बंबई से लौटकर वनमाला पुनः ग्वालियर अपने पिता के घर आकर रहने लगीं । उनके परिवार ने उन्हें माफ कर दिया। अध्यात्म की शरण में जाकर उन्होंने समाज सेवा को जीवन का लक्ष्य बनाया। वृन्दावन में श्री स्वामी हरिदास कला संस्थान की नींव रखी। ब्रज कला केंद्र मथुरा की अध्यक्ष रहीं। अनेक ट्रस्टों की ट्रस्टी रहते हुए शैक्षणिक तथा समाज सुधार के अनेक कार्य किए। अपने संन्यासी जीवन में उनका नया नाम सुशीला बहन था। उम्र के आखिरी पड़ाव (92) तक समाज सेवा में धोखे खाने के बाद भी वे लगातार सक्रिय रहीं। एक समय सफलता और लोकप्रियता के चरम पर रही इस अभिनेत्री ने अपना अंतिम समय बेहद सादगी से बिताया । फिल्मी दुनिया के लिए अजूबा बनी रही यह अभिनेत्री 29 मई, 2007 को यह दुनिया छोड़कर चली गईं।


चलते-चलते

वनमाला के पिता उनके फिल्मों में जाने से बेहद नाराज थे और पूरे परिवार ने उनसे अपना नाता रिश्ता खत्म कर लिया था। कहा जाता है कि जब वे उनकी पहली फिल्म देखने ग्वालियर के रीगल सिनेमा घर में गए और पर्दे पर वनमाला दिखाई दीं तो उन्होंने गुस्से में अपने रिवाल्वर से पर्दे पर गोलियां चला दीं । पर्दा फट गया और हॉल में भगदड़ मच गई । इतना ही नहीं उन्होंने ग्वालियर में उनकी लगने वाली सभी फिल्मों को बैन करवा दिया। जब वनमाला ने परिवार में वापस आना चाहा तो उन्हें इस शर्त पर माफी मिली कि वे कभी फिल्मों में काम नहीं करेंगी । वनमाला ने यह शर्त तो मानी ही मानी बल्कि प्रायश्चित स्वरूप अपने पिता को चारधाम की यात्रा भी कराई ।

 
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