हिंदी फिल्मों में चालीस और पचास के दशक को पौराणिक और धार्मिक फिल्मों की अनेक यादगार फिल्मों के लिए जाना जाता है। उस समय के कई अभिनेता और अभिनेत्रियों को उनके धार्मिक किरदारों के रूप में ऐसी पहचान मिली की उनके कैलेंडर और पोस्टर घर-घर में लगे और उन्हें देवी- देवताओं के प्रतीक के रूप पूजा जाने लगा । शोभना समर्थ सीता के रूप में, कृष्ण के रूप में शाहू मोडक, राम के रूप में प्रेम अदीब, पार्वती के रूप में निरूपा राय, हनुमान जी के रूप में दारा सिंह आदि। इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण नाम है भगवान शंकर के रूप में त्रिलोक कपूर का। त्रिलोक कपूर फिल्म इतिहास के पहला परिवार कहे जाने वाले कपूर परिवार से ही थे । वह पृथ्वीराज कपूर के छोटे भाई थे। तीन मार्च, 1912 को मुल्तान में जन्मे त्रिलोक जी की प्रारंभिक शिक्षा पेशावर में हुई।
पृथ्वीराज फिल्मों में भाग्य आजमाने पहले ही कलकत्ता आ चुके थे। त्रिलोक जी भी उनके पद चिह्नों पर चलते हुए जनवरी, 1933 में कलकत्ता पहुंचे और इंडियन नेशनल थियेटर और द ग्रेट एंडरसन कम्पनी ज्वाइन कर ली। उस दौरान त्रिलोक कपूर ने अपने बड़े भाई के साथ 'सीता' फिल्म में छोटी सी भूमिका भी निभाई। उन्हीं दिनों पृथ्वीराज कपूर कलकत्ता की न्यू थियेटर्स कम्पनी छोड़कर बंबई आ गए। फिर तो त्रिलोक भी बंबई आ गए। यहां उन्हें पहली फिल्म मिली 'चार दरवेश'। इस फिल्म के बाद त्रिलोक ने फिल्मकार हेमचंद्र के सहायक के रूप में कुछ समय तक काम सीखा। उस समय धार्मिक फिल्मों के सबसे बड़े निर्माता प्रकाश-पिक्चर्स के विजय भट्ट अभी तक रामायण को अपने बैनर के ब्रॉण्ड की तरह इस्तेमाल कर रहे थे। भट्ट को त्रिलोक कपूर में भगवान शंकर के रूप में नजर आए । उस समय प्रेम अदीब राम के रूप में अपनी सीता शोभना समर्थ के साथ लोकप्रियता के चरम पर थे।
त्रिलोक कपूर की जोड़ी पार्वती बनने वाली अभिनेत्री निरूपा राय के साथ जम गई। फिर तो क्या था फिल्म निर्माताओं ने शंकर-पार्वती से संबंधित आख्यान पर फिल्मों की लाइन ही लगा दी। वैसे भी उन दिनों ग्रामीण और कस्बाई भारत में इन फिल्मों की सफलता की गारंटी रहती थी। इन फिल्मों के नाम थे, 'हर हर महादेव', 'शिव- कन्या', 'शिव-शक्ति', 'जय महादेव', 'गणेश जन्म', 'गणेश-महिमा' आदि। इनमें से 'हर-हर महादेव' फिल्म ने देश के अनेक शहरों में स्वर्ण जयंती मनाई। बंबई के सेन्ट्रल सिनेमा में तो यह फिल्म हीरक जयंती (डायमंड जुबली) तक बनी रही। शिव-पार्वती यानी त्रिलोक कपूर और निरूपा राय के चित्रों से सारे बाजार धर्ममय हो गए। कैलेण्डर्स की बाढ़ आ गई। जिधर देखो त्रिलोक-निरूपा । लोग उनकी आरती पूजा करने लगे थे।
भगवान शंकर का ठप्पा लगने से त्रिलोक कपूर को तो बहुत मुश्किल हो गई। उन्हें अन्य रोल मिलने बंद हो गए। बीच में उन्होंने अन्य भूमिकाएं प्राप्त कर इस छवि को तोड़ने की कोशिश भी की, लेकिन वह सामाजिक फिल्मों में अपने अग्रज पृथ्वीराज के समान स्थान नहीं बना सके। अपने फिल्मी करियर में त्रिलोक कपूर ने करीब 250 फिल्मों में काम किया, लेकिन अधिकांश फिल्मों की भूमिकाएं छोटी-छोटी सी रही। लेकिन कुछ उल्लेखनीय उपलब्धियां भी है। 'मिर्जा साहिबा' (1947) में वह मशहूर गायिका अभिनेत्री नूरजहां के हीरो बने थे, जो विभाजन के बाद पाकिस्तान चली गई। उन्होंने 'उम्मीद पे दुनिया जीती है' नामक फिल्म का निर्माण करना चाहा था, जिसके लिए जयश्री-शांताराम की बेटी राजश्री को अनुबंधित किया था, लेकिन उसके अमेरिका चले जाने से फिल्म डिब्बे में बंद हो गई। उन्होंने 'कच्चे धागे', 'नहले पे दहला' और राजकपूर की 'राम तेरी गंगा मैली' फिल्मों में भी काम किया। उनकी आरंभिक फिल्मों में 'धूपछांव' (1935), 'अछूत' (1940), 'आंख की शर्म' (1943), 'आईना' (1944), 'नल- दमयंती' और 'कृष्णार्जुन-युद्ध (1945), 'आनंद-भवन' और 'राजरतन' (1953) भी कुछ अलग थीं।
चलते-चलते
त्रिलोक कपूर के पिता गांधीजी के अनुयायी थे। अंग्रेजों के खिलाफ होनेवाले आंदोलनों की योजना उनके घर पर ही बना करती थी। एक बार शराबबंदी को लेकर दंगा हुआ, जिसमें करीब दो सौ लोग मारे गए। जुलूस में त्रिलोक भी शामिल हुए थे। उनकी सुरक्षा की दृष्टि से पिता ने पृथ्वीराज को त्रिलोक को भी अपने पास बुला लेने के लिए कहा तो इस तरह उनका भी फिल्मों में प्रवेश का रास्ता खुल गया । फिल्मों से दूर होने के बाद त्रिलोक कपूर समाज कल्याण की अनेक संस्थाओं से लगातार जुड़े रहे। कुछ समय के लिए उन्होंने विशेष कार्यकारी मजिस्ट्रेट का पद भी संभाला। 23 सितंबर, 1988 को वे हमारे बीच नहीं रहे।
