रात के लगभग बारह बजे होंगे | दूर से कुत्तों के भौंकने की आवाजें आ रही थीं | बस्ती के दूसरे छोर पर चौकीदार की सीटी गूंज रही थी |
चोर सब कुछ समझ गया|
चोरों के डर से सोने के गहने छोटी-सी संदुकची में रखकर दबाए गए हैं, यह सोचकर चोर के मुंह में पानी भर आया| वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा| उसने उस जगह को पहचाना| वहां पीपल का एक पेड़ था| उसके नीचे छोटे-से मंदिर के सामने ही गड्ढा खोदकर संदूकची दबाया गया था, पर चोर को मंदिर से क्या लेना! उसने अपने रामपुरी चाकू से मिट्टी खोदी | हाथों से मिट्टी हटाई और संदूकची को बाहर निकाल लिया | रामपुरी चाकू को उसने जेब में रखा, इधर-उधर देखा, दीवार फांदी और संदूकची लेकर अपने घर को और चल दिया |
बहुत दिनों बाद आज उसके हाथ माल लगा था | उसे घर पहुंचने की जल्दी थी | घर पहुंचकर चोर ने संदूकची खोली | आश्चर्य! उसमें न रुपए थे, न गहने | उसमें एक पत्र था | शायद इस पत्र में किसी खजाने के बारे में लिखा हो | चोर को थोड़ा-बहुत पढना आता था | उसने पत्र पढ़ना शुरु किया -
मैं चोर हूँ | मैंने पिजाती की जेब से दस रुपए चुराए हैं | पिताजी बहुत अच्छे हैं | उन्हें मेरी चोरी का पता चल गया है, पर उन्होंने मुझे न पीटा, न डांटा | मेरे बारे में उन्होंने मेरी माताजी से कहा- ‘जो बच्चा बचपन में पैसे चुराता है, वह बड़ा होकर चोर बनता है | उसे कोई प्यार नहीं करता | वह कभी बड़ा आदमी नहीं बन सकता | जो बच्चा बड़ा आदमी बनना चाहता है, वह कभी चोरी नहीं करता | वह सच्चाई के रास्ते पर चलता है |’