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"लक्ष्य निर्धारित करना अदृश्य को दृश्य में बदलने का पहला कदम है" -टोनी रॉबिंस

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प्रेरक प्रसंग :- उपदेश तथा आचरण में अंतर

Date : 23-Apr-2024

 

कम्बोज के सम्राट तिंग-भिंग की राजसभा में एक दिन एक बौद्ध भिक्षुक आया और कहने लगा, “महाराज! मैं त्रिपिटिकाचार्य हूँ | पंद्रह वर्षों तक सारे बौद्ध जगत का तीर्थाटन करके मैंने सद्धर्म के गूढ़ तत्वों का रहस्योंद्घाटन किया है | मैं आपके राज्य का पट्टपुरोहित बनने की कामना से आया हूँ | मेरी इच्छा है कि कम्बोज का शासन भगवान् के आदेशानुसार संचालित हो |”
यह सुन सम्राट मुस्कराये और बोले, “आपकी सदिच्छा मंगलमयी है, किन्तु आपसे एक प्रार्थना है कि आप धर्मग्रंथों की एक और आवृत्ति कर डालें |” भिक्षुक को क्रोध आया, किन्तु साक्षात सम्राट जानकार वह अपने क्रोध को व्यक्त न कर सका | उसने सोचा, “क्यों न एक आवृति और कर लूँ | सम्राट को रुष्ट कर राजपुरोहित के प्रतिष्ठित पर क्यों हाथ से जाने दूँ |”
भिक्षुक की धर्माचार्य बनने की महत्वाकांक्षा भस्मसात हो चूकी थी, पांडित्य के आहंकर का स्थान आत्मज्ञान के आनंद ने ले लिया था | उसके अंधरों पर मंद मुस्कान बिखर गयी | वह बोला, “राजन ! सद्धर्म उपदेश की नहीं आचरण की वस्तु ही | उपदेश में अहंकार ही और आचरण में आनंद | मैंने यहाँ आकर आचरण में ही आनंद पाया | भगवान् के आदेश बड़े स्पष्ट हैं | वहां आचार्य की जरूरत नहीं | भगवान् ने एक ही वाक्य में सब कह दिया है- ‘अप्पदीपो भव’ आर्थात ‘अपने स्वयं के दीपक बनो! मुझे राज-पुरोहित का पद नहीं चाहिए |”
 
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