गोंड साम्राज्य का आरंभिक इतिहास विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वत श्रृंखलाओं से जुड़ा है । सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला का निर्माण मुख्य रूप से क्रेटेशियस काल के समय हुआ, जब भारत और गोंडवाना महाद्वीप के अन्य भाग अलग हो रहे थे । यह काल लगभग 6.5 से 10 करोड़ वर्ष पुराना माना जाता है। यहाँ भूमिगत जल कटाव के कारण कार्स्ट टोपोग्राफी से प्राकृतिक सुरंगे और गुफाएं बनी, साथ ही ज्वालामुखी गतिविधियों से निकलने वाले लावे के कारण भी सुरंगे बनी । गढ़ा राज्य इन्हीं विंध्य और सतपुड़ा पर्वत श्रेणियों के ऊपर स्थापित था।
इतिहासकारों ने गढ़ा साम्राज्य की सुरंग व्यवस्था पर कभी प्रकाश नहीं डाला जबकि सामरिक दृष्टि से यहां की सुरंग का विशेष महत्व रहा। गढ़ा साम्राज्य में इस प्रकार के गुप्त मार्ग के बहुत से प्रमाण मिलते हैं। ऐसा कहा जाता है की इस साम्राज्य की सुरंग व्यवस्था बहुत वैज्ञानिक थी। निश्चित ही यह प्राकृतिक और मानव निर्मित हो सकती हैं। जो उस समय भूमिगत मार्गों से मंदिरों, तालाबों, बावलियों और विभिन्न गढ़ों को आपस में जोड़ती थी। इन सुरंगों का उपयोग मुख्य रूप से आंतरिक परिवहन के लिए किया जाता था। जिसका ज्ञान राज परिवार के विशिष्ट सदस्यों और विशेष प्रशासनिक अधिकारियों को होता था। आम नागरिकों को न तो इन सुरंगों की जानकारी थी और न ही उन्हें इनमें प्रवेश करने का अधिकार था। राज परिवार के लोग इनका उपयोग समय बचाने के लिए या आपदा प्रबंधन के लिए किया करते थे।
इन भूमिगत सुरंगों की बनावट इतनी विशाल (चौड़ी और लंबी) थी कि सुरंग के दोनों ओर मशालों को लगाने के पश्चात भी घोड़ों में बैठकर घुड़सवार सरलता से एक छोर से दूसरे छोर जा सकते थे।
कहीं कहीं ये सुरंगे प्रकृति के द्वारा निर्मित थी तो कहीं-कहीं श्रमिकों के द्वारा भूमि के अंदर के कठोर पत्थरों को तरसते हुए इन सुरंगों का निर्माण कराया गया था । जिसमें मदन महल की सुरंग, चौरागढ़ की सुरंग, संग्रामपुर (दमोह )की सुरंग, संग्राम सागर (बाजनामठ) में बनी सुरंग , बादशाह हलवाई मंदिर की सुरंग आदि है। इनका प्रशासनिक , तकनीकी और धार्मिक दृष्टि से विशेष महत्व था । महारानी अपनी प्रजाजनों की कुशलक्षेम लेने के लिए इन्हीं भूमिगत मार्गों से होकर एक गढ़ से दूसरे गढ़ कम समय में पहुँच जाया करती थी। यहाँ तक कि आपातकाल में इन मार्गों के माध्यम से सेना को एक स्थान से दूसरे स्थान भेजने की सुविधा थी। गोरिल्ला युद्ध कला में भी इन सुरंगों की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी।
बचपन में हमने ऐसा सुना था, कि महारानी नर्मदा जी का पूजन करने के लिए मदन महल किले से मंडला तक सुरंग के मार्ग से ही जाती थी। गढ़ा राज्य के विशेष मंदिरों को पूजन हेतु, जलापूर्ति के लिए इन्हीं सुरंगों के माध्यम से तालाबों , बावलियों से जोड़ा गया था। बादशाह हलवाई का शिव मंदिर इसी का एक उदाहरण है।
सुरंग का ज्ञान गढ़ा साम्राज्य के पहले दुर्गावती को अपने चंदेल राजवंश में भी मिला था, जहाँ वह अपने राजमहल (कालिंजर दुर्ग ) से मनियां देवी के मंदिर (मनियागढ़) तक दर्शन के लिए सुरंग मार्ग से जाती थी। यह तकनीक दुर्गावती और उनके ससुर महाराज संग्रामसाहि के लिए के लिए नवीन नहीं थी, क्योंकि दुर्गावती के विवाह के पूर्व भी गढ़ा राज्य में भूमिगत सुरंगों का मार्ग बने हुए थे। हाँ महारानी दुर्गावती ने आवश्यकता के अनुसार तालाबों की तरह कुछ भूमीगत मार्गों का निर्माण अवश्य कराया होगा। दुर्गावती को इस बात का ज्ञान बहुत अच्छे से था, कि इन मार्गों का कब? कहाँ? कैसे? सजगता पूर्वक उपयोग करना है।
लेखक - डॉ नुपूर निखिल देशकर