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उत्तराखंड की संस्कृति

Date : 11-Nov-2022

भारत के नवगठित राज्य, उत्तराखंड को प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है। हिमालय की बर्फीली चोटियाँ, असंख्य झीलें, हरी-भरी हरियाली क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत को निहारती है। उत्तराखंड के ग्लेशियर गंगा और यमुना जैसी नदियों का उदय स्थान है। राष्ट्रीय उद्यान और वन इस क्षेत्र में पनपे हैं। यह मंदिरों और तीर्थ स्थानों के लिए एक घर है। चार-धाम पवित्र हिंदू मंदिरों में से एक है। इस प्रकार धार्मिक रीति-रिवाज और वन्यजीव विरासत की समृद्धता उत्तराखंड की भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का सही प्रतिनिधित्व करते हैं।

उत्तराखंड का इतिहासमहाभारत का लेखन महर्षि व्यास ने इसी देवभूमि उत्तराखंड में किया था। उत्तराखंड की सांस्कृतिक और भौतिक विरासत को दो भागों, कुमाऊं और गढ़वाल में बांट सकते हैं। सभी कहानियों में इन दोनों का ज़िक्र ख़ूब मिलेगा। इस देवभूमि उत्तराखंड को हम तपोभूमि की संज्ञा भी देते हैं। उत्तराखंड के ऊपर पुरु वंश ने शासन प्रारंभ किया जिस पर आगे चलकर नंद, मौर्य, कुषाण ने शासन किया। गढ़वाल के पश्चिमी हिस्से में बनी भगवान बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण सम्राट अशोक ने करवाया था। आगे इस पर ब्रिटिशों ने भी राज किया। कुछ ऐसे ही ऐतिहासिक तथ्य उत्तराखंड की गलियों से गुज़रते हुए मिलते हैं जिसमें एक बड़ा नाम चिपको आन्दोलन का है जिसमें देश के बड़े पर्यावरणविदों और नेताओं ने भी साथ दिया और इसने देश के सबसे बड़े अहिंसक आन्दोलन के रूप में अपनी पहचान बनाई।

उत्तराखंड की संस्कृति और त्योहार-उत्तराखंड की संस्कृति में त्योहारों की अधिकता है। उत्तराखंडियों ने भारत के लगभग सभी त्योहारों को उसी तरह से मनाने का अवसर प्राप्त किया है, जैसा कि बाकी भारतीय राज्य करते हैं जिसमें होली, दिवाली, नवरात्रि, क्रिसमस, दुर्गोत्सव आदि शामिल हैं। विशेष रूप से महिलाएं त्योहारों में भाग लेती हैं। महिलायें त्योहारों की तैयारियों में लगी रहती हैं। कुछ स्थानीय त्योहारों को स्थानीय लोगों के रीति-रिवाज़ों और प्रथाओं को ध्यान में रखकर मनाया जाता है। बसंत पंचमी, भिटौली, हरेला, फूलदेई, बटावित्री, गंगा दशहरा, दिक्कड़ पूजा, ओल्गी या घी संक्रांति, खतरुआ, और घुघुतिया उत्तरांचल के कुछ प्रमुख त्योहार हैं। हरेला विशेष रूप से कुमाऊँनी त्योहार है। यह मानसून के आगमन के प्रतीकश्रावणके महीने के पहले दिन आयोजित किया जाता है।

आइये जानते हैं इन त्योहारों के बारे में

भिटौली- ये भाइयों द्वारा अपनी बहनों को उपहार बांटने का त्योहार है, यह चैत्र के महीने में मनाया जाता है। उसी महीने के पहले दिन, फूल देई को उन गावों द्वारा देखा जाता है जो सभी गाँव के घरों में घर-घर घूमते हैं। अपने साथ वे चावल, गुड़, नारियल, हरे पत्ते और फूलों से भरी हुई प्लेट लेकर जाते हैं।

घुघुतिया त्योहार (मकर संक्रांति)- यह त्योहार कुमाऊँ क्षेत्र में माघ माह की 1 जनवरी को मनाया जाता है। स्थानीय भाषा में घुघुतिया त्योहार याघुघुतीत्यार याकाले-कौआ त्योहार भीकहा जाता है। इस त्योहार में आटे के घुघुत बनाये जाते हैं बच्चे इन घुघुत को कौओं को खिलाते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में इसेखिचड़ीत्योहार के रूप में मनाया जाता है।

ओलगिया (घी-संक्राति)- यह त्योहार भादों(भाद्रपद) महीने की 1 गते(संक्राति) को मनाया जाता है। इस दिन पूरे उत्तराखंड में घी खाना शुभ माना जाता है।

फूलदेई (फूल संक्राति)- यह त्योहार चैत्र मास के 1 गते (हिन्दू वर्ष का प्रथम दिन) को मनाया जाता है।
इस दिन बच्चे घरघर जाकर देहरी पर फूलों को रखते हैं

हरेला त्योहारयह त्योहार श्रावण माह की पहली गते को मनाया जाता है। हरेले से कुछ दिन पहले हरियाली डाली जाती है 1 गते को हरियाली(हरेला) को काटकर देवी देवताओं को चढ़ाते हैं।

उत्तराखंड की भाषा और साहित्य

लोकभाषाएं

गढ़वालीगढ़वाल मंडल के सभी सातों जिलों में गढ़वाली भाषा बोली जाती है। ग्रियर्सन के अनुसार गढ़वाली के रूप। श्रीनगरिया, नागपुरिया, बधाणी, सलाणी, टिहरियाली, राठी, दसौल्या, मँझ कुमैया। गढ़वाली भाषाविद डॉ गोविंद चातक ने श्रीनगर औऱ उसके आसपास बोली जाने वाली भाषा को आदर्श  गढ़वाली कहा था।

कुमाउँनीकुमाऊँ मंडल के सभी छः जिलों में कुमाऊँनी भाषा बोली जाती है। वैसे इनमें से लगभग हर जिले में कुमाऊँनी का स्वरूप थोड़ा बदल जाता है। गढ़वाल और कुमाऊँ के सीमावर्ती क्षेत्रों के लोग दोनों भाषाओं की बोली समझ और बोल लेते हैं। कुमाऊँनी की दस उपभाषाएँ हैं।

जौनसारीगढ़वाल मंडल के देहरादून जिले के पश्चिमी पर्वतीय क्षेत्र को जौनसार भाबर कहा जाता है। यहां की मुख्य भाषा जौनसारी है। इस क्षेत्र की सीमाएं टिहरी और उत्तरकाशी से लगी हुई हैं, इसलिए इन जिलों के कुछ हिस्सों में भी जौनसारी बोली जाती है।

बंगाणीउत्तरकाशी जिले के मोरी तहसील के अंतर्गत पड़ने वाले क्षेत्र को बगांण कहा जाता है। इस क्षेत्र में तीन पट्टियां मासमोर, पिंगल तथा कोठीगाड़ आती हैं, जिनमें बंगाणी बोली जाती है।

मार्च्छागढ़वाल मंडल के चमोली जिले की नीति और माणा घाटियों में रहने वाली भोटिया जनजाति मार्च्छा और तोल्छा भाषा बोलती हैं। इस भाषा में तिब्बती के कई शब्द बोले जाते हैं।

जोहारीयह भी भोटिया जनजाति की एक भाषा है जो पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी क्षेत्र में बोली जाती है। इन लोगों का भी तिब्बत के साथ लंबे समय तक व्यापार रहा है।

थारूउत्तराखंड के कुमाऊँ मण्डल के तराई क्षेत्रों जैसे नेपाल, उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ क्षेत्रों में थारू जनजाति के लोग रहते हैं। इस जनजाति के लोगों की अपनी अलग भाषा है जिसे उनके नाम पर ही थारू भाषा कहा जाता है। यह कन्नौजी ब्रज भाषा तथा खड़ी बोली का मिश्रित रूप है।

साहित्य:

उत्तराखंड का साहित्य विश्वभर में मान्य है। यहां के साहित्यकारों ने साहित्य को नई दिशा दी है। रविंद्र नाथ टैगोर, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा ने शांत और प्राकृतिक सौंदर्य के बीच ही साहित्य सृजन किया और जो साहित्य कुमाऊं की वादियों में सृजित हुआ उस साहित्य और कविता ने दुनिया में अमिट छाप छोड़ी है। देवभूमि ने ईला जोशी, शिवानी, रमेश उप्रेती, गोविंदलामा, चारुचंद्र पांडे, तारा पांडे अनेक साहित्यकारों का सृजन किया है। 1918 में विनोद समाचार पत्र का प्रकाशन भी नैनीताल से हुआ था।

उत्तराखंड की वेशभूषा

उत्तराखंड के पारंपरिक परिधान

पारंपरिक रूप से उत्तराखंड की महिलाएं घाघरा आंगड़ी और पुरुष चूड़ीदार पैजामा कुर्ता पहनते थे। समय के साथ इनका स्थान पेटीकोट, ब्लाउज साड़ी ने ले लिया। सर्दियों में ऊनी कपड़ों का उपयोग होता है। विवाह आदि शुभ कार्यों के अवसर पर कई क्षेत्रों में आज भी शनील का घाघरा पहनने की रवायत है। गले में गलोबंद, चर्यो, जै माला, नाक में नथ, कानों में कर्णफूल, कुंडल पहनने की परंपरा है। सिर में शीशफूल, हाथों में सोने या चांदी के पौंजी पैरों में बिछुवे, पायजेब, पौंटा पहने जाते हैं। घर-परिवार के समारोहों में ही आभूषण पहनने की परंपरा है। विवाहित स्त्री की पहचान गले में चरेऊ पहनने से होती है। विवाह इत्यादि शुभ अवसरों पर पिछौड़ा पहनने का रिवाज भी यहां आम है।

कालांतर में शिक्षा, तकनीकी क्षेत्र में उन्नति और आवागमन के साधनों का प्रभाव वस्त्राभूषणों पर भी पड़ा। नतीजा, धीरे-धीरे लोग परंपरागत पहनावे का त्याग करने लगे। हालांकि, अब एक बार फिर लोग परंपराओं के संरक्षण के प्रति गंभीर हुए हैं और पारंपरिक वस्त्रों को आधुनिक कलेवर में ढालकर पहनने का चलन अस्तित्व में रहा है।

उत्तराखंड का भोजन 

वैसे तो उत्तराखंड के दोनों ही मण्डल यानि कुमाऊं और गढ़वाल में संस्कृति में कुछ भिन्नता देखने को मिलती है मगर इन दोनों ही क्षेत्रों में कुछ विशेष व्यंजनों को छोड़कर लगभग सभी भोजन समान ही दिखते हैं, बस नाम में भिन्नता है। वहीं मौसम के अनुसार भी भोजन में परिवर्तन देखने को मिलता है, जैसे सर्दियों में तिल के लड्डू या मंडवी की रोटियां पसंद की जाती हैं। वहीं गर्मी में छाज-झंगोरा, छोलिया रोटियों के साथ पसंद किया जाता है। इसके अलावा यहां उगने वाली दालों का प्रयोग भोजन में मौसम के अनुसार होता है।

उत्तराखंडियों ने सभी प्रकार के शाकाहारी भोजन के लिए अपना स्वाद विकसित किया है। गोभी, पालक, हरी चने, मटर जैसी सब्जियाँ के साथ-साथ फलों में नारंगी, आम, आड़ू, अमरूद जैसे फलों का भी सेवन किया जाता है, जो लंबे समय में उन्हें स्वस्थ रहने में मदद करते हैं।

उत्तराखंड के लोकप्रिय भोजन:

आलू के गुटकेउत्तराखंड में सबसे लोकप्रिय व्यंजनों में अगर किसी को शामिल किया जाए तो आलू के गुटके हैं। क्योंकि ये कुमाऊं और गढ़वाल दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से बनाए जाते हैं। आलू के गुटके को पूड़ी,ककड़ी और दही के रायते से साथ खाया जाता है। वहीं ये पकवान ज़्यादातर त्योहारों और शादी में भी देखने को मिलता है।

काफुली या कपा – उत्तराखंड के पारंपरिक भोजन में काफुली एक स्वादिष्ट व्यंजन है जिसे सर्दियों के मौसम में सबसे ज़्यादा पसंद किया जाता है। काफुली बनाने के लिए पालक, सरसों और मेथी को उपयोग में लाया जाता है।

गहत के पराठें – गहत के परांठे बनाने के लिए गहत को रात भर भीगाकर उबाल कर उसे पीसा जाता है। फिर उसके अंदर नमक, मिर्च मिलाकर उसे रोटी की तरह पकाया जाता है। अक्सर कई बार इसे पूड़ी जैसा भी तला जाता है जिसको कद्दू की सब्जी के साथ परोसने पर इसका स्वाद कई गुना बड़ जाता है। वहीं इसे घी, मक्खन या फिर भंगीरे की चटनी के साथ भी इसका स्वाद और लज़ीज़ बन जाता है।

कोदे की रोटीकोदा या मंडवा की रोटी और उससे बनने वाले व्यंजनों को उत्तराखण्डी लोग काफी चाव से खाते हैं। कोदे की रोटी को चूल्हे की आग में पकाकर घर के बनें मक्खन, घी, नमक और प्याज, या फिर भंगीरे की चटनी के साथ खाया जाता है।

 
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