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“मनुष्य अपने विश्वासों से बनता है,” जैसा वह विश्वास करता है वैसा ही वह है' - भागवद गीता

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बस्तर की संस्कृति और विरासत

Date : 21-Jan-2023

 बस्तर की कुछ परम्पराएं तो आपको एक रहस्यमय संसार में पंहुचा देती हैं। वह अचंभित किए बगैर नहीं छोड़ती। वनवासियों के तौर तरीके हमें सोचने पर मजबूर करते हैं कि चांद पर पहुंच चुकी इस दुनिया में और भी बहुत कुछ है, जो सदियों पुराना है, अपने उसी मौलिक रूप में जीवित है। बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक दशहरे को देशभर में उत्साह के साथ मनाया जाता है. इस दिन भगवान राम ने लंकापति रावण का वध कर देवी सीता को उसके बंधन से मुक्त किया था. इस दिन रावण का पुतला जलाकार लोग जश्न मनाते हैं. लेकिन भारत में एक जगह ऐसी है जहां 75 दिनों तक दशहरा मनाया जाता है लेकिन रावण नहीं जलाया जाता हैयह अनूठा दशहरा छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाके बस्तर में मनाया जाता है औरबस्तर दशहराके नाम से चर्चित है. इस दशहरे की ख्याति इतनी अधिक है कि देश के अलग-अलग हिस्सों के साथ-साथ विदेशों से भी सैलानी इसे देखने आते हैं. बस्तर दशहरे की शुरुआत श्रावण (सावन) के महीने में पड़ने वाली हरियाली अमावस्या से होती है. इस दिन रथ बनाने के लिए जंगल से पहली लकड़ी लाई जाती है. इस रस्म को पाट जात्रा कहा जाता है. यह त्योहार दशहरा के बाद तक चलता है और मुरिया दरबार की रस्म के साथ समाप्त होता है. इस रस्म में बस्तर के महाराज दरबार लगाकार जनता की समस्याएं सुनते हैं. यह त्योहार देश का सबसे ज्यादा दिनों तक मनाया जाने वाला त्योहार है | मिस्त्र के पिरामिड़ तो पूरी दुनिया का ध्यान खींचते हैं, दुनिया के आठ आश्चर्य में शामिल हैं। लेकिन बस्तर में भी कुछ कम अजूबे नहीं है। यहां भी एक ऐसी ही अनोखी परंपरा है, जिसमें परिजन के मरने के बाद उसका स्मारक बनाया जाता है। भले ही वह मिस्त्र जैसा भव्य हो, लेकिन अनोखा जरूर होता है। इस परंपरा को मृतक स्तंभ के नाम से जाना जाता है। दक्षिण बस्तर में मारिया और मुरिया जनजाति में मृतक स्तंभ बनाए बनाने की प्रथा अधिक प्रचलित है। स्थानीय भाषा में इन्हेंगुड़ीकहा जाता है। प्राचीन काल में जनजातियों में पूर्वजों को जहां दफनाया जाता था वहां 6 से 7 फीट ऊंचा एक चौड़ा तथा नुकीला पत्थर रख दिया जाता था। पत्थर दूर पहाड़ी से लाए जाते थे और इन्हें लाने में गांव के अन्य लोग मदद करते थे।छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों के माड़िया जाति में परंपरा घोटुल को मनाया जाता है, घोटुल में आने वाले लड़के-लड़कियों को अपना जीवनसाथी चुनने की छूट होती है। घोटुल को सामाजिक स्वीकृति भी मिली हुई है। घोटुल गांव के किनारे बनी एक मिट्टी की झोपड़ी होती है। कई बार घोटुल में दीवारों की जगह खुला मण्डप होता है।

विश्व में प्रसिद्ध है बस्तर की ढोकरा शिल्पकला, जानिए कैसे तैयार होती है ढोकरा आर्ट की बेमिसाल मूर्तियां

ढोकरा आर्ट- आदिवासियों के ढोकरा आर्ट को छत्तीसगढ़ की शान कहा जाता है. बस्तर में बनाए जाने वाले ढोकरा आर्ट की मूर्तियों की डिमांड देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी है. अधिकांश आदिवासी शिल्पकारों की रोजी रोटी ढोकरा आर्ट पर निर्भर हैं. लेकिन कोरोना की मार ढोकरा आर्ट से जुड़े शिल्पकारों पर भी पड़ी. लॉकडाउन की वजह से ढोकरा शिल्पकारों को काफी नुकसान उठाना पड़ा है. तंग आकर कई कलाकारों ने ढोकरा आर्ट का काम ही छोड़ दिया है. अब 3 साल बाद एक बार फिर कला को जीवित रखने का बीड़ा प्रशासन ने उठाया है. ज्यादा से ज्यादा लोगों को ढोकरा आर्ट बनाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है. बस्तर में जिला प्रशासन प्रशिक्षण शिविर चला रहा है. शिविर में केवल बस्तर ही नहीं बल्कि तेलंगाना के भी

18 आदिवासी शिल्पकार प्रशिक्षण ले रहे हैं. दो स्थानीय कलाकार तेलंगाना के शिल्पकारों को प्रशिक्षित कर रहे हैं

ऐसे तैयार होती है ढोकरा आर्ट की मूर्तियां

बस्तर की बेल मेटल, काष्ठ  कला और ढोकरा आर्ट पूरे देश में प्रसिद्ध है खासकर ढोकरा आर्ट की मूर्तियों की काफी डिमांड है. देश के बड़े महानगरों में बकायदा ढोकरा आर्ट के शोरूम भी हैं. शोरूम आदिवासियों के बनाए ढोकरा आर्ट की मूर्तियों की काफी डिमांड है. आखिर बस्तर के ढोकरा आर्ट की डिमांड क्यों होती है? स्थानीय शिल्पकार लैदुराम ने बताया कि ढोकरा आर्ट को बनाने के लिए काफी मेहनत लगती है. ढोकरा आर्ट को बनाने में करीब 15 प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है.

अधिकतर ढोकरा शिल्पकला में आदिवासी संस्कृति की छाप होती है. देवी देवताओं और पशु आकृतियों में हाथी, घोड़े, हिरण, नंदी, गाय और मनुष्य की आकृति होती है. इसके अलावा शेर, मछली, कछुआ, मोर भी बनाए जाते हैं. लैदुराम के मुताबिक ढोकरा आर्ट की एक मूर्ति बनाने में एक दिन का समय लगता है. सबसे पहले चरण में मिट्टी का प्रयोग होता है और मिट्टी से ढांचा तैयार किया जाता है. काली मिट्टी को भूंसे के साथ मिलाकर बेस बनता है और मिट्टी के सूखने पर लाल मिट्टी की लेप लगाई जाती है.

लाल मिट्टी से लेपाई करने के बाद मोम का लेप लगाते हैं. मोम के सूखने पर अगले प्रोसेस में मोम के पतले धागे से बारीक डिजाइन बनाई जाती है और सूखने पर अगले चरण में मूर्ति को मिट्टी से ढक देते हैं. इसके बाद सुखाते के लिए धूप का सहारा लेना होता है. धूप में सुखाने के बाद फिर मिट्टी से ढकते हैं. अगले चरण में ऊपर से दो-तीन मिट्टी से कवर करने के बाद पीतल, टिन, तांबे जैसी धातुओं को पहले हजार डिग्री सेल्सियस पर गर्म कर पिघलाया जाता है.

धातु को पिघलाने में चार से पांच घंटे का समय लगता है. पूरी तरह पिघलने के साथ ही ढांचा को अलग भट्टी में गर्म करते हैं. तरह गर्म होने पर मिट्टी के अंदर का मोम पिघलने लगता है. खाली स्थान पर पिघलाई धातु को ढांचे में धीरे धीरे डाला जाता है और मोम की जगह को पीतल से ढक दिया जाता है. फिर 4 से 6 घंटे तक ठंडे होने के लिए रखा जाता है.

ठंडा होने के बाद छेनी- हथौड़ी से मिट्टी निकालने के लिए ब्रश से साफ किया जाता है और इसके बाद मूर्तियों पर पॉलिश किया जाता है. इन सब प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही ढोकरा आर्ट की मूर्तियां पूरी तरह से तैयार होती हैं और इसकी फिनिशिंग की वजह से बस्तर के ढोकरा आर्ट की काफी डिमांड होती है.

कला को दोबारा जीवित करने की कोशिश 

लॉकडाउन में कई आदिवासी शिल्पकारों ने ढोकरा आर्ट के काम को छोड़ दिया. लेकिन अब फिर से लोगों की जिंदगी पटरी पर लौट रही है. शिल्पकार धीरे-धीरे ढोकरा शिल्प को बनाने में जुट गए हैं. लैदुराम ने बताया कि बादल संस्था की मदद से कला को जीवित रखने के लिए जिला प्रशासन लोगों को प्रशिक्षित कर रहा है और मास्टर के तौर पर स्थानीय लोगों के साथ-साथ तेलंगाना से आए 18 शिल्पकारों को शिल्प बेहतर बनाने और आर्ट की बारीकियां भी सिखा रहे हैं ताकि तेलंगाना के शिल्पकार इलाके में बेहतर तरीके से बना कर बेच सकें. उन्होंने बताया कि 15 दिन के प्रशिक्षण शिविर में बकायदा तेलंगाना के शिल्पकारों को पूरी तरह से ढोकरा कला का प्रशिक्षण दिया जा रहा है.

 

 
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