( एक हाथ में माला, दूसरे हाथ में भाला मंत्र को अपनाने वाले....)
चमकौर के किले में गुरु गोविंद सिंह को समाचार मिला कि उनके दो बेटे किले की दीवार में जिंदा चुनवा दिए गए हैं। उनके दु:ख में उनकी माता और पत्नी ने प्राण छोड़ दिए हैं। इस हृदय विदारक समाचार को सुनकर भी गुरु गोविंद सिंह विचलित न हुए, रोते हुए साथियों को समझाते हुए बोले -
" भाइयों ! आप लोग उस समाचार पर रो रहे हैं जिसको सुनकर हर्ष- विह्वल हो उठना चाहिए। यह तो खुशी की बात है कि *बच्चों ने प्राण दे दिए लेकिन धर्म नहीं दिया । दु:ख की बात तो तब होती जब वह भय और लोभ में आकर अपना धर्म दे देते।* यदि आप लोग जीवन के सार की ओर न देखकर नश्वर शरीरों का शोक कर रहे हो तो वह ठीक नहीं।"
गुरु गोविंद सिंह बोले, " इस रहस्य को समझो ,आप लोग जमीन पर दो लकीरें खींचो।" साथियों ने लकीरें खींची। उन्होंने फिर कहा, "अब इन्हे मिटा डालो।" साथियों ने लकीरें मिटा दी। गुरु गोविंद सिंह ने पूछा, " क्या आप लोगों को यह लकीरें बनाते हुए कोई आनंद हुआ ? साथियों ने कहा, " नहीं " "क्या आप लोगों को इन्हें मिटाते समय कोई दुख हुआ ? " गुरु गोविंद सिंह ने फिर पूछा। साथियों ने कहा, " नहीं।"
गुरु गोविंद सिंह समझाते हुए बोले, " *बस इसी तरह मानव शरीरों को समझ लो, इन्हीं रेखाओं की तरह बनते और मिटते रहते हैं। जो जन्म लेता है, वह एक दिन मरता भी है।* एक दिन उन दोनों कुमारों ने भी इन्हीं रेखाओं की तरह अस्तित्व पाया और उन्हीं की तरह मिट गए । *उन्होंने धर्म पर अपना बलिदान दे दिया है। इसलिए उनकी मृत्यु बधाई का विषय है, दु:ख अथवा शोक का नहीं।"* गुरु का सार वचन सुनकर सबको ज्ञान हो गया और सभी ' *सत श्री अकाल* ' के घोष के साथ हर्षित हो उठे।
छोटे कुमारों के बलिदान के समाचार की ताजगी अभी कम न हुई थी की तब तक और बलिदान की घड़ी आ गई। मुगलों ने चमकौर पर एक बड़ी फौज के साथ हमला कर दिया और किले को सब तरफ से घेर लिया । साधन और सामग्री की कमी में भी गुरु गोविंद सिंह मोर्चा लेते रहे, किंतु अंत में सब रसद और सैनिकों के नाम पर 'नहीं' का शब्द बनने लगा, तो मैदान में लड़कर बलिदान हो जाने का निश्चय किया गया।
गुरु गोविंद सिंह हथियार बांधकर चले तो उनके बड़े लड़के अजीत सिंह ने हाथ जोड़कर कहा, " पिताजी आप नहीं, पहले मैं युद्ध में जाऊंगा।" गुरु गोविंद सिंह का उत्साह दुगना हो गया। बोले, अजीत! तुम अभी बच्चे हो। शत्रु की ताकत ज्यादा है । इस समय मैदान लेना मृत्यु का आलिंगन करना है। अच्छा हो कि तुम किले में रहो और मुझे मैदान में जाने दो।" अजीत उदास होकर बोला , "आप हमें धर्म पर बलिदान होने से रोकना चाहते हैं।" गुरु गोविंद सिंह ने उस वीर बालक की भावनाएं समझी और अपने हाथ से हथियार बांधकर युद्ध में भेज दिया। जिस समय सैकड़ो शत्रुओं को मौत के घाट उतार कर अजीत सिंह ने वीरगति पाई, गुरु गोविंद सिंह बोल उठे, *"धन्य अजीत सिंह! धर्म के लिए बलिदान होकर तुम अमर हो गए।"* दूसरी बार उनके दूसरे पुत्र जुझार सिंह ने युद्ध में जाने की आज्ञा मांगी। गुरु गोविंद सिंह ने उसको भी हथियार बांधे। साथी सैनिक कह उठे, "गुरुजी" आप क्या कर रहे हैं? तीन बेटे तो बलिदान कर दिए अब क्या इस अकेले बचे बेटे को भी बलिदान कर देंगे, कुल का दीपक ही बुझा लेंगे क्या? *गुरु गोविंद सिंह ने कहा , "खेद है कि इसके बलिदान देने के बाद मेरे पास कोई भी बेटा न बचेगा। भाइयों! कुल का प्रकाश तो पुत्रों के शरीर से नहीं, उनके सत्कर्मों से होता है। सो ये सब कर ही रहे हैं।"* उन्होंने चौथे पुत्र को भी युद्ध में भेज दिया और उसका बलिदान भी अपनी आंखों से देखा, पर आह नहीं की।
(*अंधविश्वास के विरोधी - गुरु गोविंद सिंह* )
*सिख संप्रदाय की दसवें गुरु - गुरु गोविंद सिंह एक महान योद्धा होने के साथ बड़े बुद्धिमान ,धर्म परायण व्यक्ति थे। धर्म के प्रति उनकी निष्ठा बड़ी गहरी थी। वे धर्म के लिए ही जिए और धर्म के लिए ही मरे।* धर्म के प्रति अडिग- आस्थावान होते हुए भी वे अंधविश्वासी जरा भी न थे और न अंधविश्वासियों को पसंद करते थे।
गुरु गोविंद सिंह सिक्खों का संगठन और शक्ति बढ़ाने की चिंता में रहते थे । उनकी इस चिंता से एक पंडित ने लाभ उठाने की सोची। वह गुरु गोविंद सिंह के पास आया और बोला, " यदि आप सिखों की शक्ति बढ़ाना चाहते हैं, तो दुर्गा देवी का यज्ञ कराइये । यज्ञ की अग्नि से देवी प्रकट होगी और वह सिखों को शक्ति का वरदान देगी।" गुरु गोविंद सिंह यज्ञ करने को तैयार हो गए। उस पंडित ने यज्ञ कराना शुरू किया।
कई दिन तक यज्ञ होते रहने पर भी जब देवी प्रकट नहीं हुई, तो उन्होंने पंडित से कहा, "महाराज! देवी अभी तक प्रकट नहीं हुई" पंडित ने कहा , " देवी अभी प्रसन्न नहीं हुई है। वह प्रसन्नता के लिए बलिदान चाहती हैं। यदि आप किसी पुरुष का बलिदान दे सकें, तो वह प्रसन्न होकर दर्शन दे देंगी । बलिदानी व्यक्ति को स्वर्ग की प्राप्ति होगी।"
देवी की प्रसन्नता के लिए नरबलि की बात सुनकर गुरु गोविंद सिंह उस पंडित की धूर्तता को समझ गए। उन्होंने उस पंडित को पकड़ कर कहा, "बलि के लिए आपसे अच्छा आदमी कहां मिलेगा? आपका बलिदान पाकर देवी तो प्रसन्न हो ही जाएगी, आपको भी स्वर्ग मिल जाएगा। इस प्रकार हम दोनों का काम बन जाएगा।" गुरु गोविंद सिंह का व्यवहार देखकर पंडित घबरा गया। गुरु गोविंद सिंह ने बलिदान दूसरे दिन के लिए स्थगित करके पंडित को एक कोठरी में रख दिया।
पंडित घबराकर गुरु गोविंद सिंह के पैरों पर गिर पड़ा और गिडगिडाने लगा, "मुझे नहीं मालूम था कि बलिदान की बात मेरे सिर पर ही आ पड़ेगी, गुरु जी मुझे छोड़ दीजिए। मैं आपसे क्षमा मांगता हूं।" गुरु गोविंद सिंह ने कहा "अब क्यों घबराते हो ? बलिदान से तो स्वर्ग मिलेगा, क्यों पंडित जी, बलिदान की बातें तभी तक अच्छी लगती हैं न, जब तक वह दूसरों के लिए होती हैं! अपने सिर आते ही असलियत खुल गई न।"
पंडित बोला," इस बार क्षमा कर दीजिए महाराज! अब कभी ऐसी बातें न करूंगा।" गुरु गोविंद सिंह ने उसे छोड़ दिया और समझाया, " इस प्रकार का अंधविश्वास समाज में फैलाना ठीक नहीं। *देवी अपने नाम पर किसी के प्राण लेकर प्रसन्न नहीं होती। वह प्रसन्न होती है अपने नाम पर किए गए अच्छे कामों से । "* बाद में गुरु गोविंद सिंह ने उसे रास्ते का खर्च देकर भगा दिया।
( ' *एक हाथ में माला ,दूसरे हाथ में भाला'* मंत्र को अपनाने वाले आगे आएं .... )
गुरु गोविंद सिंह अपने बड़े लड़कों अजीत सिंह और जुझार सिंह के साथ चमकौर के किले में बैठे मुगलों के विरुद्ध अपनी रणनीति बनाने और योजना को क्रियान्वित करने में व्यस्त थे। यहां पहुंचने से पूर्व ही इनसे मां और दो लड़के फतेह सिंह व जुझार सिंह वाढ़ से बहकर बिछुड गए थे। युद्ध में व्यस्त गोविंद सिंह उन्हें खोजने के बजाय सुरक्षित स्थान खोजकर अपनी बिखरी सेना को व्यवस्थित करने में जुट गए । तभी एक दिन मुखवाल और आनंदगढ़ से कुछ दूत उनके पास संदेश लेकर आए । दूतों ने उन्हें बताया, " गुरुजी! जो सिख आपका साथ छोड़कर चले गए थे, जब वे गांव पहुंचे, तो उनके परिवार वालों ने उन्हें बहुत धिक्कारा। वे आपसे क्षमा मांगने इधर चल पड़े हैं।" गुरु जी ने प्रसन्नता पूर्वक कहा, यह तो बड़ा शुभ समाचार है। *धर्म युद्ध में सभी को अपनी भ्रांतियां दूर कर अब एक हो जाना चाहिए।* जरा मां व हमारे दोनों बेटों की कोई खबर तुम्हें मिली हो तो बताओ।
दूत वस्तुतः दोनों कुमारो के शहीद होने का समाचार हि लाए थे, पर गुरुजी को सुनकर धक्का न लगे, इसी कारण तुरंत बता नहीं पा रहे थे। उन्होंने प्रश्न को टालकर कहा, "मुगलों की सेना आक्रमण करने चमकोर शीघ्र रवाना होने वाली है।" इस समाचार को भी चुनौती के रूप में लेते हुए गुरुजी बोल उठे, "लगता है तुम मेरे बेटों व माता का समाचार इसलिए नहीं दे पा रहे हो कि उन्होंने शत्रुओं को समर्पण कर दिया है अथवा धर्म से विचलित हो गए हैं ।" दूत तुरंत रो पड़े और रूधे कंठ से बोले, " गुरु जी! ऐसा न कहें। दोनों कुमारो ने धर्म के नाम पर बलिदान दे दिया। सरहिंद के नवाब की धमकी व लालच किसी का भी उन पर प्रभाव न पड़ा । उन्हें हमारे देखते-देखते किले की दीवार में जिंदा चुनवा दिया गया । यह समाचार सुनते ही माता ने छत से कूदकर प्राण दे दिए।"
पिता के रूप में नहीं , धर्मरक्षक, संस्कृति के उद्वारक के रूप में गुरु गोविंद सिंह यह समाचार सुनते ही खुशी से उछल पड़े और कहा, *" धन्य हो मेरे बेटों! तुमने आज धर्म की साख बढ़ा दी। तुमने बता दिया कि धर्म- संस्कृति की रक्षा के लिए तुम बलिदान होना पसंद करोगे न कि विधर्मी बनना।"* तीन सगे- संबंधियों की मृत्यु का समाचार सुनकर भी दुगने उत्साह से बिधर्मियों से लड़ मरने का संकल्प लेने वाले गुरु गोविंद सिंह अवसाद की उन घड़ियों में अवतरित हुए थे, जबकि विदेशियों के बार-बार आक्रमण हो रहे थे और आपसी फूट और विद्वेष के कारण संगठित विरोध कहीं से भी नहीं बन पा रहा था।
*भक्ति भावना प्रधान सिख धर्म को गुरु जी ने नई दिशा दी। अन्याय- अनीति के प्रतिरोध को भी उन्होंने आस्तिकता- ईश्वर भक्ति का पर्याय बताते हुए 'एक हाथ में माला, दूसरे हाथ में भाला' देकर बड़ी संख्या में धर्मप्रेमियों को धर्मयुद्ध के मंच पर ला खड़ा किया।* युद्ध कला से अपरिचित उनकी सेना जब युद्ध में उतरती तो उनकी प्रचंड भावना देखते बनती थी। उन्होंने सेना में कोमल हृदय वालों को सेवा- कार्य सौंपा, तो साहसी, हिम्मत के धनी वीरों को तलवार थमाई। *उनका धर्मयुद्ध किसी मत- संप्रदाय के विरुद्ध नहीं, वरन अत्याचार और बलात धर्म -परिवर्तन के विरुद्ध था।*
दो छोटे पुत्रों की शहादत के बाद उनके दो नवयुवक पुत्र जुझार सिंह और अमर सिंह भी आनंदपुर, मुक्तसर , सिरमातट के युद्ध में काम आए । अपने डेढ़ हजार शिष्यों के साथ ही बहादुरी से चलते हुए उन्होंने चालीस हजारी मुगल बादशाही सेना को परास्त कर दिखाया। *गुरु गोविंद सिंह ने कहा था-*
" *चिड़िया से मैं बाज लडावा ,*
*सवा लाख से एक लडावा।*
*तब जाके गुरु गोविंदसिंह नाम कहावा ।* "
इन संघर्षों के साथ उपासनाक्रम की भी उन्होंने कभी अवहेलना नहीं की। धर्म -साहित्य का सृजन वे निरंतर करते रहे। अपने अनुयायियों में भक्ति भावना भी भरते रहे तथा अपनी सेना में शौर्य का संचार भी करते रहे। *उन्होंने मात्र 42 वर्ष की ही आयु पाई और अपने एक मुसलमान शिष्य के हाथों धोखा खाकर नांदेड़ में शहीद हो गए।*
*गुरु गोविंद सिंह जी ने जिस पराक्रम- पुरुषार्थ को इस अलपावधि में कर दिखाया, उसी की परिणिति आज इस धर्मसहिष्णु भारतवर्ष के रूप में दृष्टिगोचर हो रही है। आवश्यकता के अनुरूप महामानवों को चोला बदल- बदलकर अवतरित होना पड़ा है। आज फिर 'माला और भाला' के मंत्र को जीवन में उतार लेने वालों की आवश्यकता आन पड़ी है। संस्कृति की रक्षा हो अथवा राष्ट्र की सुरक्षा, अनीति से मोर्चा लेने वाले भावनाशील, प्रखर शूरवीर ही हमेशा काम आए हैं। आज जब आस्था का संकट गहन होता जा रहा है, मानवी मूल्यों का हास हो रहा है, समाज की रक्षा के लिए गुरु गोविंद सिंह की सेना की परंपरा में ही 'मन्यु ' जिनका जागृत हो ऐसे सत्साहसियों को भारतवर्ष की रक्षा हेतु एकजुट हो जाना चाहिए।*
-डॉ. नितिन सहारिया ,महाकौशल
