बरसाना | The Voice TV

Quote :

ज्ञान ही एकमात्र ऐसा धन है जिसे कोई चुरा नहीं सकता - अज्ञात

Travel & Culture

बरसाना

Date : 01-Mar-2023

बरसाना हिन्दुओं का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। यह मथुरा ज़िले की छाता तहसील के नन्दगाँव ब्लॉक स्थित एक क़स्बा और नगर पंचायत है। प्राचीन समय में इसे 'वृषभानुपुर' के नाम से जाना जाता था। बरसाना मथुरा से 42 कि.मी. तथा कोसी से 21 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यह राधा के पिता वृषभानु का निवास स्थान था। यहाँ 'लाड़ली जी' का बहुत बड़ा मंदिर है। यहाँ की अधिकांश पुरानी इमारत 300 वर्ष पुरानी है। राधा को लोग यहाँ प्यार से 'लाड़लीजी' कहते हैं। बरसाना गांव के पास दो पहाड़ियां मिलती हैं। उनकी घाटी बहुत ही कम चौड़ी है। मान्यता है कि गोपियां इसी मार्ग से दही-मक्खन बेचने जाया करती थी। यहीं पर कभी-कभी कृष्ण उनकी मटकी छीन लिया करते थे। बरसाना का पुराना नाम 'ब्रह्मासरिनि' भी कहा जाता है। 'राधाष्टमी' के अवसर पर प्रतिवर्ष यहाँ मेला लगता है।

 

राधा की जन्मस्थली

बरसाना कृष्ण की प्रेयसी राधा की जन्मस्थली के रूप में प्रसिद्ध है। इस स्थान को, जो एक बृहत पहाड़ी की तलहटी में बसा है, प्राचीन समय में 'बृहत्सानु' कहा जाता था।[1] इसका प्राचीन नाम 'ब्रहत्सानु', 'ब्रह्समानु' अथवा 'व्रषभानुपुर' है। इसके अन्य नाम 'ब्रह्समानु' या 'वृषभानुपुर'[2] भी कहे जाते हैं। बरसाना प्राचीन समय में बहुत समृद्ध नगर था। राधा का प्राचीन मंदिर मध्यकालीन है, जो लाल और पीले पत्थर का बना है। यह अब परित्यक्तावस्था में हैं। इसकी मूर्ति अब पास ही स्थित विशाल एवं परम भव्य संगमरमर के बने मंदिर में प्रतिष्ठापित की हुई है। ये दोनों मंदिर ऊंची पहाड़ी के शिखर पर हैं। थोड़ा आगे चलकर जयपुर-नरेश का बनवाया हुआ दूसरा विशाल मंदिर पहाड़ी के दूसरे शिखर पर बना है। कहा जाता है कि औरंगजेब जिसने मथुरा व निकटवर्ती स्थानों के मंदिरों को क्रूरतापूर्वक नष्ट कर दिया था, बरसाने तक न पहुँच सका था।

पुण्यस्थली

 

राधा भगवान श्रीकृष्ण की आह्लादिनी शक्ति एवं निकुंजेश्वरी मानी जाती हैं। इसलिए राधा किशोरी के उपासकों का यह अतिप्रिय तीर्थ है। बरसाना की पुण्यस्थली बड़ी हरी-भरी तथा रमणीक है। इसकी पहाड़ियों के पत्थर श्याम तथा गौरवर्ण के हैं, जिन्हें यहाँ के निवासी कृष्ण तथा राधा के अमर प्रेम का प्रतीक मानते हैं। बरसाना से 4 मील पर नन्दगांव है, जहाँ श्रीकृष्ण के पिता नंद का घर था। बरसाना-नंदगांव मार्ग पर संकेत नामक स्थान है, जहाँ किंवदंती के अनुसार कृष्ण और राधा का प्रथम मिलन हुआ था।[3] यहाँ भाद्र, शुक्ल अष्टमी[4] से चतुर्दशी तक बहुत सुन्दर मेला होता है। इसी प्रकार फाल्गुनशुक्ल अष्टमीनवमी एवं दशमी को आकर्षक लीला होती है।

होली तथा समान गायन

'बसंत पंचमी' से बरसाना होली के रंग में सरोबार हो जाता है। टेसू (पलाश) के फूल तोड़कर और उन्हें सुखा कर रंग और गुलाल तैयार किया जाता है। गोस्वामी समाज के लोग गाते हुए कहते हैं- "नन्दगाँव को पांडे बरसाने आयो रे।" शाम को 7 बजे चौपाई निकाली जाती है, जो लाड़ली मन्दिर होते हुए सुदामा चौक रंगीली गली होते हुए वापस मन्दिर आ जाती है। सुबह 7 बजे बाहर से आने वाले कीर्तन मंडल कीर्तन करते हुए गहवर वन की परिक्रमा करते हैं। बारहसिंगा की खाल से बनी ढाल को लिए पीली पोखर पहुँचते हैं। बरसानावासी उन्हें रुपये और नारियल भेंट करते हैं, फिर नन्दगाँव के हुरियारे भांग-ठंडाई छानकर मद-मस्त होकर पहुँचते हैं। राधा-कृष्ण की झांकी के सामने समाज गायन करते हैं।

लट्ठामार होली

ब्रह्मगिरी पर्वत स्थित ठाकुर लाड़ीलीजी महाराज मन्दिर के प्रांगण में जब नंदगाँव से होली का न्योता देकर महाराज वृषभानजी का पुरोहित लौटता है तो यहाँ के ब्रजवासी ही नहीं देश भर से आये श्रृद्धालु ख़ुशी से झूम उठते हैं। पांडे का स्वागत करने के लिए लोगों में होड़ लग जाती है। स्वागत देखकर पांडे ख़ुशी से नाचने लगते हैं। राधा-कृष्ण की भक्ति में सब अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं। लोगों द्वारा लाये गये लड्डुओं को नन्दगाँव के हुरियारे फगुआ के रूप में बरसाना के गोस्वामी समाज को होली खेलने के लिए बुलाते हैं। कान्हा के घर नन्दगाँव से चलकर उनके सखा स्वरूप आते हैं। बरसानावासी राधा पक्ष वाले समाज गायन में भक्तिरस के साथ चुनौती पूर्ण पंक्तियाँ प्रस्तुत करके विपक्ष को मुक़ाबले के लिए ललकारते हैं और मुक़ाबला रोचक हो जाता है।
लट्ठामार होली से पूर्व नन्दगाँव व बरसाना के गोस्वामी समाज के बीच ज़ोरदार मुक़ाबला होता है। नन्दगाँव के हुरियारे सर्वप्रथम पीली पोखर पर जाते हैं। यहाँ स्थानीय गोस्वामी समाज अगवानी करता है। मेहमान-नवाजी के बाद मन्दिर परिसर में दोनों पक्षों द्वारा समाज गायन का मुक़ाबला होता है। गायन के बाद रंगीली गली में हुरियारे लट्ठ झेलते हैं। यहाँ सुघड़ हुरियारी अपने लठ लिए स्वागत को खड़ी मिलती हैं। दोंनों तरफ कतारों में खड़ी हंसी ठिठोली करती हुई हुरियानों को जी भर-कर छेड़ते हैं। ऐसा लगता है जैसे असल में इनकी सुसराल यहाँ है। इसी अवसर पर जो भूतकाल में हुआ, उसे जिया जाता है। यह परम्परा सदियों से चली आ रही है। निश्छल प्रेम भरी गालियां और लाठियां इतिहास को दोबारा दोहराते हुए नज़र आते हैं। बरसाना और नन्दगाँव में इस स्तर की होली होने के बाद भी आज तक कोई एक-दूसरे के यहाँ वास्तव में आपसी रिश्ता नहीं हुआ। आजकल भी यहाँ टेसू के फूलों से 
होली खेली जाती है, रसायनों से अपवित्रता के कारण बाज़ारू रंगों से परहेज़ किया जाता है। अगले दिन नन्दबाबा के गाँव में छटा होती है।

 
RELATED POST

Leave a reply
Click to reload image
Click on the image to reload

Advertisement









Advertisement