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"लक्ष्य निर्धारित करना अदृश्य को दृश्य में बदलने का पहला कदम है" -टोनी रॉबिंस

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अमृतकाल में शिक्षा को जरूरत है संजीवनी की

Date : 31-Jan-2023

 आज के युग में किसी देश की उन्नति बहुत हद तक वहां की शिक्षा की गुणवत्ता पर ही निर्भर करती है। सूचना, ज्ञान और प्रौद्योगिकी की स्पर्धा में ज्यादा से ज्यादा बढ़त पाने को सभी देश आतुर हैं। आज जब देश ‘सशक्त’ और ‘आत्म निर्भर’ बनने को आतुर है तो शिक्षा दशा दिशा पर विचार और भी जरूरी हो जाता है हालांकि भारत ने विद्या, ज्ञान और शिक्षा का भौतिक और पारमार्थिक दोनों स्तरों पर महत्व बहुत पहले से पहचान रखा था। ज्ञान सबसे पवित्र था और ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में जितनी प्रगति थी उसकी बदौलत भारत को विश्व गुरु का दर्जा भी मिला था। परंतु औपनिवेशिक काल में शिक्षा पर ताला ऐसा पड़ा शिक्षा के भारतीय ज्ञान को ले कर जो संशय और उदासीनता हुई और हम ज्ञान के क्षेत्र में अनुकरण करने वाले होते गए।

ज्ञान की परनिर्भरता ने सुदृढ़ होती गई और पश्चिम (यूरो-अमेरिकी मॉडल) को एकल, मानक और वैश्विक विकल्प मान बैठे और शेष को उससे विचलन मान लिया। गौरतलब है कि उपनिवेश बनने के पहले भारत विश्व में अधिक समृद्ध देशों में से एक था और कभी यहां विश्वस्तरीय शिक्षा केंद्र भी थे जिन्हें आक्रांताओं ने नष्ट किया था । औपनिवेशिक समुदाय की स्वीकृति के साथ अब नव उदारवादी माहौल में हम पराई दृष्टि में जकड़ते ही चले गए। हमारी पूरी शिक्षा ज्यादातर अनुकरणमूलक होती गई जिसमें यांत्रिक बुद्धि ने सर्जना शक्ति को हाशिए पर भेज दिया। बाहर से आरोपित होने की स्थिति में शिक्षा और समाज का ठीक तालमेल भी नहीं हो सका। आज यदि शिक्षा के प्रति संशय और अन्यमनस्कता है तो इसका एक बड़ा कारण शिक्षा की विषयवस्तु और प्रक्रिया की दुर्बलता और देश के संदर्भ से उसका कटा होना भी है। साथ ही शिक्षा के साथ सरकारी नीति में लगातार उपेक्षा और भेदभाव भी बना रहा। बजट में जो बचा खुचा होता है शिक्षा को मिलता है। आज आंगनवाड़ी, प्राथमिक विद्यालय, हाईस्कूल, माध्यमिक विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय जैसी संस्थाओं की स्थिति संसाधनों और अव्यवस्था के चलते नाजुक होती जा रही है।


खेदजनक है कि यह जानते हुए भी कि शिक्षा सामाजिक परिवर्तन, आर्थिक प्रयत्न, रोजगार के अवसर और सांस्कृतिक विकास की कुंजी है इसे देश की विकास-योजना में कभी भी वह जगह नहीं मिली जो मिलनी चाहिए थी। फलतः शिक्षा में जरूरी निवेश नहीं हुआ, सरकार यानी सार्वजनिक क्षेत्र इससे हाथ खींचने लगा, निजी क्षेत्र हाबी होने लगा, शिक्षा बाजार के हवाले होती गई, वह बाजार का हिस्सा बन गई। फिर शिक्षा का व्यापार शुरू हो गया। सभी बड़े व्यापारी शिक्षा की दुकानें खोलने लगे और शिक्षा की जो भी संरचना थी वह ध्वस्त होने लगी। निजी क्षेत्र में शिक्षा का विस्तार जिस तरह हो रहा है उसके कई परिणाम हो रहे हैं। सम्पन्न घरों के छात्र ऊंची फीस दे कर वहां पढ़ाई कर रहे हैं। दिल्ली के आसपास अशोका, अमिटी, शिव नाडार और जिन्दल के विश्वविद्यालय जहां अंतरराष्ट्रीय स्तर लाने की कोशिश हो रही है शैक्षिक असमानता का एक नया आयाम खुल रहा है। यही हाल पुणे, बेंगलुरु और अन्य महानगरों का भी है। निजी विश्वविद्यालय सरकारी विश्वविद्यालयों की तुलना में कई-कई गुनी फीस ले कर विभिन्न पाठ्यक्रमों की पढ़ाई कर रहे हैं। उनकी नीति और नियम अपने ही ढंग के हैं। संविधान द्वारा शिक्षा के अधिकार सबको देने के बावजूद शिक्षा के अवसर अभिभावक की आर्थिक स्थिति से मजबूती से जुड़ते गए। आज की एक कटु सच्चाई यही है कि हर स्तर पर भारतीय शिक्षा संस्थाओं की कई-कई जातियां, उप जातियां खड़ी होती जा रही हैं। शिक्षालय के साथ कोचिंग की विराट संस्थाएं खड़ी होती गईं और सामान्य विद्यालयी शिक्षा संदिग्ध होती गई। फिलहाल जैसे तैसे प्रवेश और परीक्षा को निपटाना ही शिक्षा के लक्ष्य बने हुए हैं।

आज भारत के प्रतिभाशाली विद्यार्थी जिनकी पर्याप्त आर्थिक सामर्थ्य है अवसरों की तलाश में बड़े पैमाने पर विदेश की ओर रुख़ कर रहे हैं। यह प्रवृत्ति कम नहीं हो रही है। इसका कारण भारत में शिक्षा की गुणवत्ता का निरंतर ह्रास है। प्रतिभा-पलायन का क्रम अभी भी जारी है। युवा वर्ग महत्वाकांक्षी है, आगे बढ़ाना चाहता है और पढ़-लिख कर बहु राष्ट्रीय कंपनियों में काम करने के अवसर उनको आकृष्ट करते हैं और देश को उनका लाभ नहीं मिल पाता है। यह देख कर कि विश्व की अनेक बड़ी आईटी कंपिनियां वे चला रहे हैं मन को थोड़ी संतुष्टि होती है, गौरव बोध भी होता है पर यह सोच कर दुख होता है, खीझ भी होती है कि ऐसी प्रतिभाओं के लिए हम शिक्षा और कार्य के अवसर नहीं जुटा पा रहे हैं। साथ ही यह भी गौरतलब है कि औपचारिक शिक्षा भारतीय मूल से कटती गई और हम अपने आप से बिछुड़ते गए। आज इक्कीसवीं सदी हमारे सामने एक वैश्विक दुनिया प्रस्तुत करती है जिसमें संचार और यातायात की क्रान्ति देशकाल को संयोजित करने के लिए नए तौर तरीके गढ़ रही है। टीवी, मोबाइल, लैपटाप, आई पैड आदि सूचना के लेन देन और उनको उपयोग में लाने के अवसरों में अभूतपूर्व क्रांति ला रहे हैं। आज भारत की विशाल जन संख्या के एक छोटे हिस्से तक ही यह सीमित है, पर इसका तेजी से विस्तार हो रहा है। इनके अच्छे-बुरे असर दिखने लगे हैं। यहां पर यह भी गौर तलब है कि युवा वर्ग का जनसंख्या में अनुपात की दृष्टि से भारत युवतम देश हो रहा है। यह उत्पादकता, क्षमता और राष्ट्र-निर्माण का अनोखा अवसर बन रहा है। कुशल और सुसंस्कृत युवा सचमुच भारत का कायापलट करने में सक्षम हो सकता है बशर्ते उसे शिक्षित और ज्ञान-सम्पन्न बनाया जाय। अब स्थिति निरंकुशता की हो रही है और स्वच्छंदता के साथ शिक्षा के नाम पर ऐसा बहुत कुछ हो रहा है ।

चूंकि शिक्षा की उपेक्षा संभव नहीं है इसलिए जब तब कुछ कुछ होता रहा है पर गम्भीर पहल नहीं हो सकी । यदि कुछ हुआ भी तो लड़खड़ाते ढांचे, राजनीतिक हस्तक्षेप और भ्रष्टाचार के चलते सार्थक परिणाम हाथ नहीं लगता। आज भारी भरकम और अंशत: अनुपयोगी विषय वस्तु और सामग्री के साथ बचपन से ही शिक्षा का खिलवाड़ शुरू हो जाता है। पुस्तकों का ज्यादा भार , सांस्कृतिक संवेदना का विकास, चरित्र निर्माण और मातृ भाषा में आरम्भिक शिक्षा जैसे मामलों में भी हम कुछ करने के लिए तैयार ही नहीं हो पाते। उच्च शिक्षा में अनियंत्रित विस्तार और कुशलता के अभाव के चलते बेरोजगारों की फौज बढ़ती जा रही है। इस स्थिति में सुधारों का सिलसिला कब शुरू होगा किसी को पता नहीं पर जमीनी हालात बेकाबू से हो रहे हैं। सरकारी औपचारिक शिक्षा अगली परीक्षा में प्रवेश के लिए भी अपर्याप्त होती है। इसलिए ट्यूशन और कोचिंग अनिवार्य हो गई है और इनका व्यवसाय खूब फलफूल रहा है ।


शिक्षा का आयोजन ज्ञान की अभिवृद्धि, समाज के मानस-निर्माण, शर्म की कुशलता, उत्पादकता तथा सांस्कृतिक और सर्जनात्मक उन्मेष जैसे कई सरोकारों से सीधे-सीधे जुड़ा हुआ है । इसलिए शिक्षा को लेकर सबके के मन में आशाएं पलती रहती हैं । पिछले सात दशकों में शिक्षा केंद्रों की संख्या तो जरूर बढ़ी है पर उतनी नहीं जितनी चाहिए। इस बीच शिक्षा-तंत्र कई तरह के विकारों से ग्रस्त भी होता गया है जिनको सहते हुए शिक्षा अपने लक्ष्यों को पाने में पिछड़ती रही है। शिक्षा से जुड़े मुख्य सवाल जैसे शिक्षा किसलिए और कैसे दी जाय ? शिक्षा का भारतीय संस्कृति और वैश्विक क्षितिज पर उभरते ज्ञान-परिदृश्य से क्या सम्बन्ध हो ? शिक्षा की विषयवस्तु क्या और कितनी हो ? बार-बार उठते रहे हैं और सरकारी नीति के मुताबिक यदा-कदा टुकड़े-टुकड़े कुछ-कुछ तदर्थवादी सोच (एडहाकिज्म) के साथ किया भी जाता रहा है जिनके मिश्रित परिणाम हुए हैं। भारत में शिक्षा की गहराती चुनौतियों पर विचार कर वर्तमान सरकार ने शिक्षा नीति लाने की पहल की। उसके तहत इन प्रश्नों पर ध्यान दिया गया है पर इक्कीसवीं सदी के लिए भारत की तैयारी के लिए जो संलग्नता चाहिए, जो प्रयास होने चाहिए, कार्ययोजना पर अमल भी करना होगा। कथनी और करनी में अंतर को मिटाना होगा । गौरतलब है कि सरकार की ओर से शिक्षा में न पर्याप्त निवेश हो सका और न व्यवस्था ही कारगर हो सकी ।


नई शिक्षा नीति के तहत अमल करते हुए कई कदम उठाए जा रहे हैं । अनुमान किया जाता है कि बन रहे पाठ्यक्रम से ज्ञान, कौशल और मूल्य को संस्कृति और पर्यावरण के अनुकूल ढालने का उद्यम हो रहा है । उससे अपेक्षा है कि नए पाठ्यक्रम नौकरी, नागरिकता, संस्कृति और प्रकृति सभी के लिए प्रासंगिक होगा । वह भारतकेन्द्रित होने के साथ-साथ वैश्विक दृष्टि से भी सम्पन्न होगा । मातृभाषा को माध्यम के रूप में और भारतीय ज्ञान परम्परा को अध्ययन-विषय के रूप में मुख्यतः से स्थान मिलेगा । यह सब कैसे और कब होगा यह भविष्य के गर्भ में है । अगले पचीस वर्ष के ‘अमृतकाल’ की अवधि में एक नए भारत (न्यू इंडिया!) के स्वप्न को साकार करने के लिए अच्छी शिक्षा बेहद जरूरी है। यह एक निर्णायक दौर होगा जिसे अवसर में बदलने के लिए शिक्षा को ठीक रास्ते पर लाना होगा और यह गुणात्मक सुधार से ही हो सकेगा। अमृतकाल का लाभ तभी होगा यदि मरणशील शिक्षा को संजीवनी मिलेगी। आशा है आगामी बजट शिक्षा को वरीयता देगा और उसके विभिन्न अवयवों के लिए समुचित संसाधन उपलब्ध कराने की व्यवस्था करेगा। नए भारत के लिए शिक्षा की सुधि लेनी ही होगी। गिरीश्वर मिश्र (लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

 
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