भोजली गीत छत्तीसगढ़ की और एक पहचान है। छत्तीसगढ़ के बधुओं ये गीत सावन के महीने में गाती रहती है। सावन का महीना, जब चारों ओर हरियाली दिखाई पड़ती है। कभी अकेली गाती है कोई बहु - तो कभी सब के साथ मिलकर। छत्तीसगढ़ के नन्हें बच्चे पलते हैं इस सुरीले माहौल में और इसीलिये वे उस सुर को ले चलते हैं अपने साथ, जिन्दगी जीते है उसी सुर के बल पर। बचपन से देखते है वे अपनी माँ को, दादी को, मौसी को। जब नानी धान कूटती है, तो गीत गाती हुई कुटती रहती है। बुआ जब रसोई में खाना बनाती है, तो उसके गीत पूरे माहौल में गुजंते रहते हैं। खेत के बीच से जब बच्चे गुजरते है स्कूल की ओर, खेतों में महिलाये धान निराती है और गाती है भोजली गीत। उसी गीत को अपने भीतर समेटते हुये वहाँ से गुजरते है नन्हें नन्हें बच्चे।
भोजली याने भो-जली। इसका अर्थ है भूमि में जल हो। यहीं कामना करती है महिलायें इस गीत के माध्यम से। इसीलिये भोजली देवी को अर्थात प्रकृति के पूजा करती है।
पानी बिना मछरी।
पवन बिना धाने।
सेवा बिना भोजली के
तरसे पराने।
क्या पानी के बिना मछली रह सकती है? नहीं रह सकती। धान हवा के बिना नहीं रहती - ठीक उसी तरह हम भी भोजली देवी की सेवा करने के लिये तरसते हैं।
छत्तीसगढ़ में महिलायें धान, गेहूँ, जौ या उड़द के थोड़े दाने को एक टोकनी में बोती है। उस टोकनी में खाद मिट्टी पहले रखती है। उसके बाद सावन शुक्ल नवमीं को बो देती है। जब पौधे उगते है, उसे भोजली देवी कहा जाता है।
भोजली सेवा करती है महिलायें - इसका अर्थ है भोजली के पास बैठकर गीत गाती हैं।
रक्षा बन्धन के बाद भोजली को ले जाते हैं नदी में और वहाँ उसका विसर्जन करते हैं। अगर नदी आसपास नहीं है तो किसी नाले में या तालाब में, भोजली को बहा देते हैं। इस प्रथा को कहते हैं - भोजली ठण्डा करना।