विश्वेश्वरैया का जन्म मैसूर (कर्नाटक) के कोलार जिले के चिक्काबल्लापुर तालुक में 15 सितंबर, 1861 को एक तेलुगु परिवार में हुआ था। उन्हीं की याद में भारत में हर साल 15 सितंबर को इंजीनियर्स डे (अभियंता दिवस) मनाया जाता है। वह 100 वर्षों से अधिक जीवित रहे थे और अंत तक सक्रिय जीवन ही व्यतीत किया था। उनसे जुड़ा एक किस्सा काफी मशहूर है कि एक बार एक व्यक्ति ने उनसे पूछा, 'आपके चिर यौवन (दीर्घायु) का रहस्य क्या है?' तब डॉ. विश्वेश्वरैया ने उत्तर दिया, 'जब बुढ़ापा मेरा दरवाज़ा खटखटाता है तो मैं भीतर से जवाब देता हूं कि विश्वेश्वरैया घर पर नहीं है और वह निराश होकर लौट जाता है। बुढ़ापे से मेरी मुलाकात ही नहीं हो पाती तो वह मुझ पर हावी कैसे हो सकता है?'
अंग्रेजों को लेकर भी उनसे जुड़ा एक किस्सा काफी प्रसिद्ध है। दरअसल, यह उस समय की बात है जब भारत में अंग्रेजों का शासन था। खचाखच भरी एक रेलगाड़ी चली जा रही थी। यात्रियों में अधिकतर अंग्रेज थे। एक डिब्बे में एक भारतीय मुसाफिर गंभीर मुद्रा में बैठा था। सांवले रंग और मंझले कद का वह यात्री साधारण वेशभूषा में था इसलिए वहां बैठे अंग्रेज उसे मूर्ख और अनपढ़ समझ रहे थे और उसका मजाक उड़ा रहे थे। पर वह व्यक्ति किसी की बात पर ध्यान नहीं दे रहा था।
अचानक उस व्यक्ति ने उठकर ट्रेन की जंजीर खींच दी। तेज रफ्तार में दौड़ती ट्रेन तत्काल रुक गई। सभी यात्री उसे भला-बुरा कहने लगे। थोड़ी देर में गार्ड भी आ गया और उसने पूछा, 'जंजीर किसने खींची है?' उस व्यक्ति ने बेझिझक उत्तर दिया, 'मैंने खींची है।' कारण पूछने पर उसने बताया, 'मेरा अनुमान है कि यहां से लगभग एक फर्लांग (220 गज) की दूरी पर रेल की पटरी उखड़ी हुई है।'
मोक्षागुंडम विश्वेश्वरैया के सिद्धांत इस प्रकार है -
1.लगन से काम करो | मेहनत से जी न चुराओं | आराम कड़ी मेहनत के उपरांत ही अच्छा लगता है |
2.निर्धारित कार्यों का समय नियत करो | समय पर काम करने की आदत डालने से काम अधिक भी होता है और अच्छा भी | इसलिए सबसे जरूरी है काम को निश्चित समय पर पूरा करना | यदि ऐसा नहीं करेंगे तो काम की अवधि बढ़ती रहेगी और अंतत: काम पूरा नहीं होगा |
3.यह सोचते रहो कि आज की अपेक्षा कल किस तरह अधिक अच्छा काम हो सकता है | जो सिख चुके हो, उससे अधिक सीखने का प्रयत्न करो | सोचो, योजना बनाओ, गुण-दोषों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के उपरांत काम में हाथ डालो|
4.अहंकारी न बनो | अपना स्वभाव नम्र बनाओ तथा साथियों के साथ मिलजुलकर काम करने की आदत डालो |
डाॅ. बीआर आम्बेडकर वाकई भारत रत्न हैं। प्रख्यात मनीषी, संविधान सर्जक व श्रद्धेय राष्ट्रनिर्माता। वे अद्वितीय थे, प्रेरक थे, अमर थे। उन्होंने भारतीय सार्वजनिक जीवन में हस्तक्षेप किया। उनके व्यक्तित्व, कृतित्व और विचार आधुनिक राजनीति को भी लगातार प्रभावित कर रहे हैं। वे अपने जीवनकाल से ज्यादा आधुनिक काल में भी प्रभावी हैं। वर्तमान जैसे विद्यमान श्रीमान है। प्रखर राष्ट्रवादी हैं। डाॅ. आम्बेडकर अपने समकालीन विद्वानों, राजनेताओं के मध्य श्रेष्ठ बुद्धिजीवी थे। राष्ट्रनिष्ठ और बहुपठित थे। वे भारतीय समाज संरचना के तर्कनिष्ठ आलोचक थे। उन्होंने ऋग्वेद सहित सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय वाड्.मय पढ़ा। उपनिषद पुराण और स्मृति ग्रन्थ भी उनके प्रिय विषय रहे। उन्होंने प्राचीन इतिहास का गहन अध्ययन किया। मार्क्सवाद पढ़ा और भारतीय परिस्थितियों खासतौर से दलितों के लिए अनुपयोगी बताया। उन्होंने बहुचर्चित ‘आर्य आक्रमण के सिद्धांत’ का प्रतिकार किया। भारतीय इतिहास बोध के प्रेमी उनके ऋणी रहेंगे।
राजनीति ने ‘जाति और शूद्र’ को भारतीय इतिहास का प्राचीन तत्व बनाया है। ब्रिटिश विद्वान व जातिवादी राजनीति का एक बड़ा धड़ा आर्यों को विदेशी हमलावर और शूद्रों को पराजित नस्ल बताता रहा है। डाॅ. आम्बेडकर ने लिखा, “यह धारणा गलत है कि आर्य आक्रमणकारियों ने शूद्रों को जीता। पहली बात तो यह कि आर्य भारत में बाहर से आए थे और उन्होंने यहां के मूल निवासियों पर आक्रमण किया, इस कहानी के समर्थन के लिए कोई भी प्रमाण नहीं है। भारत ही आर्यों का मूल निवास स्थान था, यह सिद्ध करने के लिए प्रमाण-सामग्री काफी बड़े परिमाण में है। आर्यों और दस्युओं में युद्ध हुआ, यह साबित करने के लिए कोई प्रमाण नहीं है। फिर दस्युओं का शूद्रों से कुछ लेना-देना नहीं है।” (डाॅ. बाबा साहब आम्बेडकर राइटिंग्स एण्ड स्पीचेज खण्ड 7 पृष्ठ 420) आर्यों को विदेशी मानने का झूठ अभी भी जारी है।
डाॅ. आम्बेडकर की पुस्तक “हू वेयर शूद्राज” (शूद्र कौन थे?) (1946) पठनीय है। उन्होंने एक विद्वान अधिवक्ता की तरह पहले पाश्चात्य विद्वानों के विचार दिये हैं। उन स्थापनाओं को तर्क सहित गलत बताया है। उन्होेंने ऐसे विद्वानों की 7 मुख्य स्थापनाएं बनाई - 1. जिन लोगों ने वैदिक साहित्य रचा था, वे आर्य नस्ल के थे। 2. आर्य नस्ल बाहर से आई थी और उसने भारत पर आक्रमण किया था। 3. भारत के निवासी दास और दस्यु रूप में जाने जाते थे और ये आर्यों से नस्ल के विचार से भिन्न थे। 4. आर्य श्वेत नस्ल के थे, दास और दस्यु काली नस्ल के थे। 5. आर्यों ने दासों और दस्युओं पर विजय प्राप्त की। 6. दस और दस्यु विजित होने के बाद दास बना लिए गए और शूद्र कहलाए। 7. आर्यों में रंगभेद की भावना थी। इसलिए उन्होंने चातुर्वण्र्य का निर्माण किया। इसके द्वारा उन्होंने श्वेत नस्ल को काली नस्ल से, यथा दासों और दस्युओं से अलग किया। (वही, खण्ड 7, पृष्ठ 65) इसके बाद सातों विचार बिन्दुओं की सभी स्थापनाओं को गलत बताया। ऋग्वेद के उद्धरण दिये और लिखा “इन (शब्दों) के प्रयोग देखने से निष्कर्ष यह निकलता है कि ये शब्द नस्ल के अर्थ में कहीं भी प्रयुक्त नहीं हुए” (वही पृष्ठ 70) वे आर्यों को विदेशी बताने का तर्क काटते हैं “जहाँ तक वैदिक साहित्य का सम्बंध है, वह इस सिद्धांत के प्रतिकूल है कि आर्यों का मूल निवास भारत से कहीं बाहर था।” (वही) आर्य विदेशी होते तो भारतीय नदियों को माता कहकर प्रणाम न करते। आर्य हम सबके पूर्वज थे।
डाॅ. आम्बेडकर ने रंग (वर्ण) भेद के आधार पर आर्यों और शूद्रों को अलग बताने वाली स्थापना को भी गलत बताया। उन्होंने ऋग्वेद के तमाम उद्धरण दिये और लिखा, “आर्य गौर वर्ण के थे और श्याम वर्ण के भी थे। अश्विनी देवों ने श्याव और रूक्षती का विवाह करवाया। श्याव श्याम वर्ण है, रूक्षती गौर वर्ण है।” डाॅ. अम्बेडकर की स्थापना है “इन उद्धरणों से ज्ञात होता है कि वैदिक आर्यों में रंगभेद की भावना नहीं थी। ऋग्वेद के एक ऋषि दीर्घ तमस् है, वे श्याम वर्ण के, और कण्व भी श्याम वर्ण के थे।” आर्यों के दोनों अवतारी पुरुष श्रीराम व श्रीकृष्ण सांवले थे। महाभारत के प्रतिष्ठित योद्धा अर्जुन भी श्याम रंग के थे। समूचा आर्य समाज एक था। हिन्दू प्राचीन आर्य समाज की ही नई संज्ञा है।
डाॅ. आम्बेडकर ने लिखा “हिन्दुओं से अछूतों को अलग करने की मांग पर मुसलमानों ने जोर दिया था। 27 जनवरी 1910 को उन्होंने सरकार के सामने एक आवेदन प्रस्तुत किया था। उनका दावा था कि देश की राजनीतिक संस्थाओं में उनके प्रतिनिधित्व का अनुपात सभी हिंदुओं की संख्या के अनुसार निश्चित न किया जाना चाहिए वरन् सवर्ण हिंदुओं की संख्या के अनुरूप ही निश्चित होना चाहिए। उनका कहना था कि अछूत हिंदू नहीं हैं।” (खण्ड 5 पृष्ठ 7) लिखा कि “1909 में मुसलमानों की ओर से आगा खां ने वायसराय मिंटों के सामने आवेदन पेश किया था-राजनीतिक संस्थाओं और सार्वजनिक सेवाओं में मुसलमानों को पृथक् और पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। 1901 में जो मर्दुमशुमारी हुई थी उसमें मुसलमान कुल आबादी का चैथाई या पांचवां हिस्सा थे। यदि हिन्दू समुदाय से अस्पर्श्य अंगों को निकाल दिया जाए, जो प्रकृति पूजक हैं या छोटे-मोटे धर्म मानने वाले हैं, वे निकाल दिये जाएँ, तो बहुसंख्यक हिंदुओं के मुकाबले मुसलमानों की संख्या का अनुपात पहले से बढ़ जाता है।” (खण्ड 7, पृष्ठ 311-12)
ऋग्वेद में कहीं भी 4 वर्ण नहीं है। शब्द ब्राह्मण का भी वर्ण के अर्थ में प्रयोग नहीं हुआ। डाॅ. रामविलास शर्मा ने लिखा (भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेष, पृष्ठ 53) है, “ऋग्वेद में ब्रह्मन् शब्द बहुत बार आया है। इसका अर्थ ब्राह्मण वर्ण नहीं है। ब्रह्मन् की तरह अनेक बार ब्रह्मा का भी प्रयोग हुआ है। इसका मूल अर्थ प्रषस्तिपरक काव्य है। कवि इन्द्र से कहता है, हम तेरे लिए अभूतपूर्व स्तोत्र कहते हैं। (8.90.3) ब्रह्मन् की तरह ब्रह्मा भी कवि, गायक, स्तोता हैं। वशिष्ठ इसी अर्थ में ब्रह्मन् है। (8.90.3) इन्द्र वशिष्ठ से कहते हैं-हे वशिष्ठ, ब्राह्मन्, तू उर्वषी के मन से उत्पन्न हुआ है। (7.33.11) इन तमाम संदर्भों में स्तुति और स्तोत्र की चर्चा है। ब्राह्मणाम् का अर्थ ब्राह्मण जाति या वर्ण नहीं, कवि, ब्र्ह्मकार गायक है।”
राष्ट्र सर्वोपरि आस्था है। डाॅ. आम्बेडकर ने लिखा, “भारत एक भौगोलिक इकाई है। इस इकाई का निर्माण प्रकृति ने किया है। यह सही है कि भारतवासी आपस में झगड़ते रहते हैं परन्तु इन झगड़ों से उस एकता का नाश नहीं हो सकता जो प्रकृति के समान ही सनातन है। भौगोलिक एकता के साथ ही यहांँ सांस्कृतिक एकता भी है।”
डॉ० आम्बेडकर के निष्कर्ष रोमांचकारी हैं। भारत प्रकृति निर्मित राष्ट्र है। राष्ट्र की सांस्कृतिक एकता प्रकृति के समान सनातन है। संविधान निर्माण के आखिरी दिन (25.11.1949) उन्होंने भावुक भाषण दिया। अन्त में कहा, “यहां मैं अपना भाषण खत्म कर देता किन्तु मेरा मस्तिष्क देश की भविष्य चिन्ता से परिपूर्ण है। क्या भारत अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने में कामयाब होगा? जाति और मत-मतान्तर राजनैतिक पक्ष बन रहे हैं। क्या भारतीय मत-मतान्तरों को राष्ट्र से श्रेष्ठ मानेंगे या राष्ट्र के मत मतान्तरों से ऊपर?” डाॅ. आम्बेडकर की आस्था का केन्द्र राष्ट्र था। हम सबको अपने भारत रत्न पर गर्व है।
लेखक : हृदय नारायण दीक्षित
जिसमें ब्रिटिश सैनिकों ने जलियांवाला बाग नामक एक खुली जगह में निहत्थे भारतीयों की एक बड़ी भीड़ पर गोलीबारी की थी। भारत के पंजाब क्षेत्र के अमृतसर में कई सौ लोग मारे गए और सैकड़ों घायल हो गए। यह भारत के आधुनिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था, इसने भारत-ब्रिटिश संबंधों पर एक स्थायी निशान छोड़ दिया और यह एक प्रस्तावना थी। मोहनदास महात्मा गांधी की भारतीय राष्ट्रवाद और ब्रिटेन से स्वतंत्रता के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता।
प्रथम विश्व युद्ध 1914-18 के दौरान भारत की ब्रिटिश सरकार ने दमनकारी आपातकालीन शक्तियों की एक श्रृंखला लागू की , जिसका उद्देश्य विध्वंसक गतिविधियों का मुकाबला करना था। युद्ध के अंत तक, भारतीय जनता के बीच उम्मीदें अधिक थीं कि उन उपायों को आसान बनाया जाएगा और भारत को अधिक राजनीतिक स्वायत्तता दी जाएगी ।1918 में ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत मोंटागु-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट ने वास्तव में सीमित स्थानीय स्वशासन की सिफारिश की थी। हालाँकि, इसके बजाय, भारत सरकार ने जो पारित किया उसे इस नाम से जाना जाने लगा 1919 की शुरुआत में रोलेट अधिनियम , जिसने अनिवार्य रूप से दमनकारी युद्धकालीन उपायों को बढ़ाया।
इन कृत्यों के कारण भारतीयों में, विशेषकर पंजाब क्षेत्र में, बड़े पैमाने पर गुस्सा और असंतोष था। अप्रैल की शुरुआत में गांधीजी ने पूरे देश में एक दिवसीय आम हड़ताल का आह्वान किया। अमृतसर में यह खबर आई कि प्रमुख भारतीय नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया है और उस शहर से निर्वासित कर दिया गया है, 10 अप्रैल को हिंसक विरोध प्रदर्शन हुआ, जिसमें सैनिकों ने नागरिकों पर गोलीबारी की, इमारतों को लूट लिया गया और जला दिया गया, और गुस्साई भीड़ ने कई विदेशी नागरिकों की हत्या कर दी और एक ईसाई मिशनरी को गंभीर रूप से पीटा। ब्रिगेडियर के नेतृत्व में कई दर्जन सैनिकों की एक सेना। जनरलरेजिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर को व्यवस्था बहाल करने का काम दिया गया था। उठाए गए कदमों में सार्वजनिक समारोहों पर प्रतिबंध भी शामिल था।
13 अप्रैल की दोपहर को, कम से कम 10,000 पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की भीड़ एकत्र हुई जलियांवाला बाग , जो लगभग पूरी तरह से दीवारों से घिरा हुआ था और केवल एक ही निकास द्वार था। यह स्पष्ट नहीं है कि कितने लोग प्रदर्शनकारी थे जो सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबंध का उल्लंघन कर रहे थे और कितने लोग वसंत त्योहार बैसाखी मनाने के लिए आसपास के क्षेत्र से शहर आए थे। डायर और उसके सैनिक आये और बाहर निकलने का रास्ता बंद कर दिया। बिना किसी चेतावनी के, सैनिकों ने भीड़ पर गोलियां चला दीं, कथित तौर पर सैकड़ों राउंड गोलियां चलाईं जब तक कि उनका गोला-बारूद खत्म नहीं हो गया। यह निश्चित नहीं है कि नरसंहार में कितने लोग मारे गए, लेकिन, ब्रिटिश सरकार के अनुसार इस फायरिंग में लगभग 379 लोगों की जान गई थी और 1,200 लोग जख्मी हुए थे, लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुताबिक उस दिन 1,000 से ज़्यादा लोग शहीद हुए थे, जिनमें से 120 की लाशें कुएं में से मिली थीं और 1,500 से ज़्यादा लोग ज़ख़्मी हुए थे.
कई लोग जान बचाने के लिए बाग में बने कुएं में कूद गए थे, जिसे अब 'शहीदी कुआं' कहा जाता है. यह आज भी जलियांवाला बाग में मौजूद है और उन मासूमों की याद दिलाता है, जो अंग्रेज़ों के बुरे मंसूबों का शिकार हो गए थे.
गोलीबारी बंद करने के बाद, सैनिक मृतकों और घायलों को छोड़कर तुरंत वहां से चले गए।
गोलीबारी के बाद पंजाब में मार्शल लॉ की घोषणा कर दी गई जिसमें सार्वजनिक रूप से कोड़े मारना और अन्य अपमान शामिल थे। जैसे ही गोलीबारी और उसके बाद ब्रिटिश कार्रवाई की खबर पूरे उपमहाद्वीप में फैल गई, भारतीयों का आक्रोश बढ़ गया। बंगाली कवि और नोबेल पुरस्कार विजेतारवीन्द्रनाथ टैगोर ने 1915 में प्राप्त नाइटहुड का त्याग कर दिया। गांधी शुरू में कार्य करने से झिझक रहे थे, लेकिन जल्द ही उन्होंने अपना पहला बड़े पैमाने पर और निरंतर अहिंसक विरोध सत्याग्रह अभियान आयोजित करना शुरू कर दिया।असहयोग आंदोलन 1920-22 जिसने उन्हें भारतीय राष्ट्रवादी संघर्ष में प्रमुखता प्रदान की।
भारत सरकार ने घटना की जांच हंटर कमीशन का आदेश दिया, जिसने 1920 में डायर को उसके कार्यों के लिए निंदा की और उसे सेना से इस्तीफा देने का आदेश दिया। हालाँकि, नरसंहार पर ब्रिटेन में प्रतिक्रिया मिश्रित थी। कई लोगों ने डायर के कार्यों की निंदा की - जिनमें शामिल हैंसर विंस्टन चर्चिल , तत्कालीन युद्ध सचिव, ने 1920 में हाउस ऑफ कॉमन्स में एक भाषण दिया था - लेकिन हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने डायर की प्रशंसा की और उसे "पंजाब के उद्धारकर्ता" आदर्श वाक्य के साथ अंकित तलवार दी। इसके अलावा, डायर के समर्थकों द्वारा एक बड़ा फंड इकट्ठा किया गया और उसे प्रस्तुत किया गया। अमृतसर में जलियांवाला बाग स्थल अब एक राष्ट्रीय स्मारक है ।
जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला लेने के लिए 13 मार्च, 1940 को ऊधम सिंह लंदन गए. वहां उन्होने कैक्सटन हॉल में डायर को गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया. ऊधम सिंह को 31 जुलाई, 1940 को फांसी पर चढ़ा दिया गया. उत्तराखंड के ऊधम सिंह नगर का नाम उन्ही के नाम पर रखा गया है.
मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप के दादा महाराजा संग्राम सिंह एक साहसी राजपूत योद्धा थे। महाराणा संग्राम सिंह की आज जयंती मनाई जा रही है। संग्राम सिंह का जन्म 12 अप्रैल 1484 को राजस्थान के मालवा मेवाड़ जिले में हुआ। महाराणा संग्राम सिंह के दादा का नाम राणा कुंभा था, जो अपने समय के सबसे शक्तिशाली राजपूत राजा रहे थे। महाराणा संग्राम सिंह के पिता राजपूत शासक राणा रायमल थे। वह राजपूतों के सिसोदिया वंश के राजा थे। महाराणा संग्राम सिंह को राणा सांगा के नाम से भी जाना जाता है। आइये जानते हैं राणा सांगा के बारे में कुछ रोचक तथ्य।
महाराजा संग्राम सिंह राणा कुंभा के पोते और राणा रायमल के पुत्र थे। राणा सांगा की माता का नाम रानी रतन कुंवर था। रायमल के तीन पुत्रों (पृथ्वीराज और जयमल) में राणा सांगा सबसे छोटे थे। हालांकि, परिस्थितियों के कारण उन्होंने अपने भाइयों के साथ एक भयंकर संघर्ष किया।
राणा सांगा के पिता राणा रायमल ने सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में मेवाड़ पर शासन किया। वह एक दयालु और बहादुर राजा थे, जिन्होंने अपने राज्य के गौरवशाली इतिहास और परंपरा को कायम रखा। उनके तीन बेटे संग, पृथ्वीराज सीसोदिया और जयमल सीसोदिया अक्सर सिंहासन के उत्तराधिकार बनने के लिए एक-दूसरे से झगड़ते थे।
इब्राहिम लोधी और बाबर के बीच साल 1526 में पानीपत की जंग हुई। इस लड़ाई में बाबर जीत गया, लेकिन आगरे तक पहुंचने के लिए उन्हें चित्तौड़ में राणा सांगा और पूर्व में अफगनिस्तानियों से खतरा था। 21 फरवरी 1527 को बयाना में राणा सांगा और बाबर की नेनाओं में युद्ध हुआ। जिसमें बाबर की सेना की सेना हार गई। जिसके बाद अफगानी सेना ने बाबर का साथ छोड़ दिया।
पानीपत की लड़ाई के बाद यह आधुनिक भारत में लड़ी गई दूसरी बड़ी लड़ाई थी। राणा सांगा ने राजपूत को एकजुट किया और मुगल सम्राट बाबर की हमलावर ताकतों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। दोनों सेनाएं बराबर लड़ रही थी। लेकिन राजा शिलादित्य (सिलहड़ी तोमर) अपनी 30 हजार घुड़सवार सेना के साथ बाबर की सेना में शामिल हो गए। इस धोखाधड़ी के कारण, खानवा की जंग में राजपूत हार गए।
बाबर ने पानीपत में मरे हुए सैनिकों की खोपड़ियों से मीनार बनवा दी। युद्ध हारने के बाद राणा सांगा जंगल की तरफ चले गए और जंग की रणनीति बनाने लगे, लेकिन बाकी सैनिक इसके खिलाफ थे। इसलिए कुछ रियासी सरदारों बाबर से डर कर राणा सांगा को जहर दे दिया। जिसके बाद 30 जनवरी, 1528 को महाराणा संग्राम सिंह की मृत्यु हो गई। जिसके बाद भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखी गई। फिर मुगल और राजपूतों में कई जंग हुई। लेकिन राणा सांगा जैसा साहस किसी अन्य राजा में नहीं था। राणा सांगा के इस तप ने आने वाली पीड़ियों को प्रेरित किया।