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मुस्लिम अपराधियों और माओवादी हिसकों से राजनीतिक सद्भाव के मायने

Date : 25-Apr-2024

 लुटेरों और अपराधी कबीलों को सेना से जोड़कर कर सत्ता तक पहुंचने का काम मध्यकाल में आक्रांताओं ने किया। लेकिन स्वतंत्रत भारत में भी एक चिंतनधारा ऐसी है जो मुस्लिम समाज में केवल अपराधियों और वनवासियों में माओवादी हिसकों के प्रति सहानुभूति या सद्भाव दिखाकर अपने राजनीतिक लाभ का आकलन करती है । ऐसी झलक किसी एक प्रांत में नहीं अपितु लगभग पूरे भारत में दिखती है ।

भारत विविधताओं से भरा देश है । यह विविधता भाव, भाषा, भूषा और भोजन में ही नहीं, लोकजीवन की परंपराओं में भी है । यह हम कश्मीर, केरल, कर्नाटक, बंगाल, उत्तर प्रदेश और सुदूर वनवासी अंचल बस्तर के समाज जीवन से समझ सकते हैं। किन्तु इस विविधता के बीच एक सूत्र है जो इन सभी प्रांतों में बिल्कुल एक जैसा दिखाई देता है, वह है माओवादी हिंसक आंतकियों और मुस्लिम समाज से संबंधित अपराधियों के अपराध की गंभीरता को कम करने लिये विषयान्तर करने संबंधी राजनीतिक वक्तव्य ।

ऐसा करने वाले कोई दर्जन भर राजनीतिक दल हैं जो इन दोनों विषयों से संबंधित घटनाओं और अपराध पर ऐसे वक्तव्य देते हैं जिनसे लोग अपराध पर नहीं अपितु राजनीति पर चर्चा करने लगते हैं । ऐसे कुछ दलों में तो आपसी राजनीतिक तालमेल भी नहीं है । पर इन दोनों विषयों पर सबकी शैली एक है, एक दूसरे के स्वर में स्वर मिलाते हैं। पता नहीं क्यों इन दलों को अपना हित अपराधियों के प्रति सद्भाव प्रदर्शित करने में क्यों दिखता है। मुस्लिम समाज में डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम जैसे वैज्ञानिक, केके मोहम्मद जैसे पुरातत्व विशेषज्ञ और अब्दुल हमीद जैसे बलिदानी भी हुए।

किन्तु इन विभूतियों के लिये वैसी लामबंदी नहीं होती जैसी माफिया डाॅन मुख्तार अंसारी और शाहजहां शेख, दो मासूम बच्चों के हत्यारे साजिद, लव जिहाद में हत्या के आरोपी फैयाज और बस्तर के एनकाउंटर में मारे गये नक्सलियों के प्रति देखी गई । मुस्लिम समाज से संबंधित किसी अपराधी या माफिया डान का नाम आते ही कुछ राजनीतिक दल के नेता ऐसे वक्तव्य जारी करने लगते हैं जिनसे या तो अपराध की गंभीरता कम होती है अथवा सुरक्षा बलों की लक्ष्य मूलक कार्रवाई पर प्रश्न उठने लगते हैं ।



यदि हम अतीत में घटी असंख्य घटनाओं को छोड़ दें, जिनमें गोधरा कांड के अपराधियों को बचाने का अभियान, बटाला हाउस एनकाउंटर में मारे गये आतंकवादी के लिये किसी नेता की आंख में आंसू आने की चर्चा, पाकिस्तान प्रायोजित कश्मीर के आतंकवाद में संलग्न आतंकवादियों को भटके हुये नौजवान कहना, पालघर में साधुओं की हत्या पर राजनीति करके हत्याओं की गंभीरता को कम करना, कुख्यात आतंकवादी अफजल की बरसी मनाने और उसमें भारत के टुकड़े होने के नारे लगाने जैसी घटनाएं घटीं हैं, केवल पिछले एक माह के भीतर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में घटी कुछ घटनाओं को देखें तो भी इस तथ्य को आसानी से समझा जा सकता है ।

इनमें कश्मीर की तीन टारगेट किलिंग, कर्नाटक में लव जिहाद किलिंग, केरल में लड़कियों के गायब होने और उन्हें धर्म विशेष का प्रचारक बनाने का विवरण सामने आना, बंगाल के संदेशखाली में महिलाओं के सामूहिक शोषण, बस्तर में नक्सलियों और बदायूं में दो मासूम बच्चों के हत्यारे के एनकाउंटर और माफिया डाॅन मुख्तार की मौत पर जो राजनीतिक वक्तव्य आये, इन सबमें एक ही शैली है। जिससे अपराधियों और देश विरोधी तत्वों को राजनीतिक परदे में छिपने का अवसर मिला ।



कश्मीर में टारगेट किलिंग और वक्तव्य: अप्रैल में ही कश्मीर में टार्गेट किलिंग की तीन घटनाएं हुईं । आतंकवादियों ने 8 अप्रैल को शोपियां जिले के पदपावन में ड्राइवर परमजीत सिंह की हत्या की, 17 अप्रैल को अनंतनाग में बिहार के प्रवासी मजदूर शंकर शाह की गोली मारकर हत्या की और इसी सप्ताह राजौरी में एक सिपाही के भाई की हत्या की। कश्मीर में ऐसी हत्याओं के पीछे किसका हाथ है और कौन कर रहा है, इन हत्याओं का उद्देश्य क्या है, यह किसी से छिपा नहीं है । इसके तार सीमापार पाकिस्तान से जुड़े माने जाते हैं । ये गतिविधियां देश के सद्भाव, संविधान और मानवता के विरुद्ध तो हैं हीं ये देश विरोध की सीमा में भी आती हैं । फिर भी कश्मीर के दो प्रमुख नेताओं महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला के वक्तव्यों में हत्यारों के प्रति गुस्सा नहीं सहानुभूति की झलक दिखती है । लगता है कि वे इन अपराधों की गंभीरता से ध्यान हटाकर राजनीतिक बहस खड़ी करना चाहते हैं । पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने घटना की निंदा तो की पर साथ ही भाजपा पर हमला बोला और कहा "इस तरह की घटनाओं का इस्तेमाल देश में मुसलमानों की छवि खराब करने के लिए किया जा रहा है । नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुला ने तो यहां तक कहा कि "ये तब तक नहीं रुकेगा जब तक न्याय नहीं मिलता।" उन्होंने इन घटनाओं को 370 की बहाली से भी जोड़ा। कश्मीर में कौन अन्याय कर रहा है और किसको न्याय चाहिए ? कश्मीर के मूल निवासी तो कश्मीरी पंडित हैं जिन्हें तो खदेड़कर बाहर कर दिया गया । उनके घर मकान सब पर कब्जा कर लिया गया। तो अन्याय किसके साथ हुआ ? यदि भारत के लोग संसार भर के अन्य देशों में जाकर काम कर सकते हैं तो अपने देश के प्रांत कश्मीर में क्यों नहीं कर सकते ? यदि कश्मीर जाकर काम करने का प्रयास करेंगे तो गोली मार दी जायेगी ? उमर अब्दुल्ला क्यों 370 की बहाली चाहते हैं ? यदि भारतीय नागरिक अमेरिका और ब्रिटेन में जाकर बस सकते हैं और संपत्ति खरीद सकते हैं तब देश के ही प्रांत कश्मीर में क्यों नहीं ? सर्दी के दिनों में कश्मीरी नागरिक भारत के कोने-कोने में जाकर शाल बेचते हैं। उन्हें तो कोई कहीं से नहीं भगाता लेकिन कश्मीर में किसी अन्य कोई स्थान नहीं। उन्हें मार डाला जाता है और कुछ राजनेता अपराध की गंभीरता से ध्यान हटाकर घटनाओं को राजनीतिक मोड़ देने का प्रयास करते हैं।

बदायूं और बस्तर में एनकाउंटर पर उठाए गए सवाल: इस माह के भीतर दो चर्चित एनकाउंटर हुये । एक उत्तर प्रदेश के बदायूं में और दूसरा छत्तीसगढ़ के बस्तर में। सुरक्षा बलों ने बदायूं में साजिद नाम के युवक का एनकाउंटर किया जिसने घर में घुसकर दो मासूम बच्चों की हत्या की थी । जब साजिद उस घर में पहुंचा तो उन बच्चों की मां साजिद के लिए चाय बनाने चली गई और ये बच्चे पानी लेकर पहुंचे। साजिद इन दोनों बच्चों की हत्या कर भाग गया। जब पुलिस पकड़ने पहुंची तो साजिद ने पुलिस पर हमला किया, एनकाउंटर हुआ और साजिद मारा गया । इसके लिए सुरक्षा बलों की प्रशंसा की जानी थी लेकिन समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने इस एनकाउंटर पर सवाल उठाए और सुरक्षा बलों की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगाए ।

ठीक यही शैली बस्तर में हुए नक्सली एनकाउंटर पर कांग्रेस की रही । इस एनकाउंटर में 29 ईनामी नक्सली मारे गए । कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इस एनकाउंटर को फर्जी बताया और आरोप लगाया कि नक्सलियों के नाम पर निर्दोष आदिवासियों को मारा जा रहा है । ये नक्सली माओवादी हिंसक हैं जिन्होंने सैकड़ों निर्दोष आदिवासियों की हत्या की है । उन्होंने इस एनकाउंटर में मरने वालों की सूची जारी की और अपने दल का सदस्य बताया । यह एक प्रकार से सुरक्षा बल के दावे का सत्यापन है लेकिन कांग्रेस नेता भूपेश बघेल ने एनकाउंटर को फर्जी बताया । इस एनकाउंटर पर इस बयान ने खुद कांग्रेस को असहज बना दिया है ।



माफिया मुख्तार अंसारी और कुख्यात अपराधी शाहजहां शेख का महिमा मंडन: माफिया डान मुख्तार अंसारी का उत्तर प्रदेश के दस जिलों में आतंक था । उस पर कुल 61 मुकदमे दर्ज थे, चार में सजा हो चुकी थी भाजपा नेता सहित चौबीस हत्याओं के आरोप थे । समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में उसकी गहरी पैठ थी । उत्तर प्रदेश में जैसे योगी सरकार आई वह पंजाब चला गया । वह उत्तर प्रदेश पुलिस के हाथ न लगे इसके लिए पंजाब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी और सरकारी खजाने के लाखों रुपये व्यय कर दिए । जेल में मुख्तार की मौत हो गई । सपा और बसपा ही नहीं कांग्रेस और एआईएमआईएम के नेता औबेसुद्दीन औबेसी ने भी मुख्तार अंसारी को जननेता बताया, मौत पर हाय तौबा की और सुरक्षा बल की भूमिका पर प्रश्न उठाये ।

इससे दस कदम आगे बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी पूरी सरकार उस शाहजहां शेख को बचाने में पूरी शक्ति लगा रही है जो संदेशखाली में महिलाओं के शोषण और उनकी संपत्ति पर कब्जा करने का आरोपी है । शेख का परिवार बांग्लादेशी है । शेख ने एक मजदूर के रूप में जिन्दगी शुरू की और केवल तीस वर्ष में अरबों की संपत्ति का स्वामी बन गया । उसके शोषण के विरुद्ध कुछ महिलाओं ने आवाज उठाई और पूरे देश के सामने यह प्रकरण आया । जांच के लिये एनआईए टीम गई तो उसपर हमला किया गया। पश्चिम बंगाल ही नहीं पूरे देश में संदेशखाली की घटना से आंदोलित है लेकिन जहां पूरी तृणमूल कांग्रेस शेख का बचाव कर रही है वहीं कांग्रेस, सपा, बसपा, साम्यवादी पार्टी चुप्पी साधे हुए हैं।



कर्नाटक में लव जिहाद: पंथ विशेष के अपराधियों के प्रति कुछ राजनीतिक दलों की सद्भावात्मक शैली केवल वक्तव्यों तक सीमित नहीं है उनके दलों की सरकारों में देखने को मिलती है । पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस सरकार के बाद कर्नाटक की कांग्रेस सरकार में भी ऐसी झलक मिली । कर्नाटक के हुबली स्थित बीवीबी कॉलेज कैंपस में एमबीए प्रथम वर्ष की छात्रा नेहा की फैयाज नामक युवक ने हत्या कर दी । नेहा के पिता कांग्रेस जुड़े हैं और पार्षद हैं फिर भी पुलिस तब सक्रिय हुई जब भाजपा, बजरंग दल आदि प्रदर्शन के लिए सड़क पर आए । नेहा के पिता ने मीडिया के सामने स्वीकार किया कि प्रदेश में लव जिहाद तेजी से फैल रहा है। अब पता नहीं यह कर्नाटक सरकार और कांग्रेस की व्यस्तता थी या आरोप को गंभीर न मानना कि घटना के तीन दिन तक न तो पुलिस की सक्रियता दिखी और न कांग्रेस का कोई पदाधिकारी पीड़ित परिवार के घर पहुंचा। घटना की प्रतिक्रिया पूरे कर्नाटक में हुई लेकिन सरकार घटना की सीआईडी जांच के आगे न बढ़ी। यह सभी घटनाएं अलग-अलग प्रान्तों की हैं लेकिन यही एक बात समान है कि आरोपी या अपराधी पंथ विशेष से संबंधित हैं । ये घटनाएं पहली नहीं हैं और न अंतिम। लेकिन यह प्रश्न अवश्य उठता है कि पंथ विशेष का सद्भाव या समर्थन जुटाने के लिये आखिर आरोपियों और अपराधियों को ही क्यों सिरमौर माना जाता है ।

 

लेखक : रमेश शर्मा

 
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