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कृतज्ञता एक ऐसा फूल है जो महान आत्माओं में खिलता है - पोप फ्रांसिस

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हिंदी साहित्य का फिल्मांतरण और मन्नू भंडारी की रजनीगंधा

Date : 04-Dec-2022

 विश्व सिनेमा की अब तक की श्रेष्ठ फिल्मों में अधिकतर फिल्में साहित्य पर केंद्रित हैं । मगर भारत में ऐसा बहुत कम है। हालांकि बांग्ला और मलयालम भाषाओं में बनाई जाने वाली अधिकांश फिल्में इन भाषाओं की साहित्यक कृतियों पर आधारित होती हैं। हिंदी साहित्य के फिल्मांतरण का आरंभ 1934 में प्रेमचंद की कहानी पर बनी फिल्म 'द मिल' (मजदूर) से माना जाता है। वैसे तो अब तक हिंदी साहित्य की कृतियों पर लगभग साठ से अधिक फिल्में बन चुकी हैं लेकिन इसमें से कुछ ही फिल्में यादगार या सफल हैं। किंतु हिंदी साहित्य के फिल्मांतरण को न केवल हिंदी साहित्यकारों ने बल्कि पाठकों एवं दर्शकों ने भी कुछ विशेष पसंद नहीं किया । दरअसल फिल्मांतरण को लेकर होनेवाला मुख्य विरोध मूलत: मूल के साथ छेड़छाड़ करने का है। यह आरोप लगाने वाले लोग यह भूल जाते है कि साहित्य और सिनेमा दोनों ही स्वतंत्र कला माध्यम हैं और इनकी अपनी-अपनी क्षमताएं और सीमाएं हैं। 

कोई भी साहित्यकृति फिल्मांतरित होते हुए विभिन्न चरणों से गुजरती है। कथा-पटकथा संवाद , छायांकन, सेट, कॉस्ट्यूम, अभिनय, निर्देशन , संपादन आदि के अनेक चरणों से गुजरकर ही साहित्य शब्दों से पर्दे तक पहुंचता है। अतः साहित्य का फिल्मांतरण अत्यंत कठिन और एक जटिल सृजनात्मक कार्य होता है। हिंदी साहित्य की मारे गए गुलफाम (तीसरी कसम), 'यही सच है' (रजनीगंधा) , 'सद्गति' जैसी कहानियों 'सारा आकाश', 'तमस' 'सूरज का सातवां घोड़ा' जैसे उपन्यासों के नाम सफल फिल्मांतरित रचनाओं के रूप में गिनाए जा सकते हैं। हिंदी साहित्य के फिल्मांतरण के इस क्रम में कुछ रचनाएं फिल्मांतरित होने में असफल भी हुई हैं लेकिन इसके लिए दोषी फिल्मांतरण करनेवाले फिल्म निर्देशक को ठहराया जाना चाहिए न कि रचना या लेखक को। 

एक समय विमल रॉय और बाद में उनके साथ रहे फिल्मकारों ऋषिकेश मुखर्जी , बासु चटर्जी, बासु भट्टाचार्य और गुलजार आदि ने साहित्यिक सिनेमा का परचम लहराया । सत्तर और अस्सी के दशक की बात करें तो मनोहर श्याम जोशी, राही मासूम रजा और कमलेश्वर के बाद एक बड़ा शून्य नजर आता है । लेकिन आज हिंदी के कई ऐसे फिल्मकार हैं, जो अच्छे साहित्य को पर्दे पर लाने के लिए बेताब हैं। साहित्य और सिनेमा के बीच को दूरी को कम करने के लिए हमें साहित्यकारों और फिल्म निर्देशकों को एक साथ एक मंच पर लाने की आवश्यकता है जिससे हिंदी सिनेमा को उत्कृष्ट कथाएं मिल सकें। 

पिछले वर्ष दिवगंत हुईं मन्नू भंडारी नई कहानी आंदोलन की प्रमुख स्तंभ थीं। उनकी कहानी यही सच है पर बासु चटर्जी ने रजनीगंधा नामक सफल फिल्म बनाई थी। बासु चटर्जी इससे पहले उनके पति राजेंद्र यादव के उपन्यास सारा आकाश पर भी फिल्म बना चुके थे। यही सच है कहानी में आधुनिक नारी के प्रेम एवं उसके मानसिक द्वंद्व को आधार बनाया गया है। नायिका प्रधान इस कहानी में दीपा के प्रेम और उसके दो प्रेमियों में से किसी एक के चयन की समस्या एवं अंतर्द्वंद्व को प्रस्तुत करने के लिए कहानी में बहुत कम पात्र रखे गए हैं। कहानी में दीपा, संजय और निशीथ के रूप में तीन प्रमुख पात्र हैं । कहानी की मुख्य पात्र दीपा का चरित्र विद्या सिन्हा ने अभिनीत किया था और संजय की भूमिका अमोल पालेकर तथा निशीथ की भूमिका दिनेश ठाकुर ने निभाई है।

'यही सच है' के भाव-पक्ष के साथ-साथ उसके शिल्प पक्ष का भी सफल फिल्मांतरण बासु चटर्जी ने किया है। डायरी शैली में लिखित मन्नू भंडारी की यह कहानी एक युवा लड़की के मनोविज्ञान पर आधारित है। ऐसे अलग शिल्प में लिखित कहानी को सिने-भाषा में फिल्मांतरित करना किसी भी फिल्म निर्देशक के सामने चुनौती का काम होता, किंतु 'यही सच है' को भावगत तथा भाषागत इन दोनों स्तरों पर फिल्मांतरित करने में बासु चटर्जी बेहद सफल हुए । फिल्मकार ने कहानी की तरह ही फिल्म में भी संवादों का प्रयोग कम ही किया। यह फिल्म कहानी की दीपा के मानसिक द्वंद्व को चित्र एवं ध्वनि के द्वारा पुनर्जीवित एवं मूर्त करने में सफल हुई है। हिंदी साहित्य पर बनी फिल्मों में बहुत कम ऐसी फिल्में हैं, जो सिने-भाषा की श्रेष्ठता के कारण पहचानी जाती हैं। ऐसी स्थिति में रजनीगंधा जैसी सफल फिल्म के द्वारा बासु चटर्जी ने हिंदी साहित्य के फिल्मांतरण के क्षेत्र में एक उच्च मानदंड स्थापित किया। फिल्म का संगीत भी काफी लोकप्रिय हुआ था। विद्या सिन्हा, अमोल पालेकर और दिनेश ठाकुर भी घर- घर के पसंदीदा कलाकार हो गए थे।

चलते-चलते

मन्नू भंडारी ने आगे चलकर रजनी, निर्मला , स्वामी एवं दर्पण आदि धारावाहिकों के लिए भी पटकथा लिखी । उनके पति राजेंद्र यादव भी नई कहानी आंदोलन के प्रमुख स्तंभ थे। दोनों ने मिलकर एक इंच मुस्कान शीर्षक से एक उपन्यास भी लिखा था। लेकिन आगे चलकर यह संबंध उलझ गया और अंत में वे अलग- अलग रहने लगे थे।

 

 

अजय कुमार शर्मा

(लेखक, राष्ट्रीय साहित्य संस्थान के सहायक संपादक हैं। नब्बे के दशक में खोजपूर्ण पत्रकारिता के लिए ख्यातिलब्ध रही प्रतिष्ठित पहली हिंदी वीडियो पत्रिका कालचक्र से संबद्ध रहे हैं। साहित्य, संस्कृति और सिनेमा पर पैनी नजर रखते हैं।)

 
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