भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो देशबंधु चितरंजन दास के नाम से परिचित न हो। वे एक बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी — महान राजनीतिज्ञ, वकील, कवि, पत्रकार और सबसे बढ़कर एक सच्चे राष्ट्रभक्त स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने अपने जीवन के सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया और सदैव राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखा।
जब कोलकाता म्युनिसिपल कॉरपोरेशन की स्थापना हुई, तब चितरंजन दास उसके पहले मेयर बने। उन्होंने लंदन से बैरिस्टर की शिक्षा प्राप्त की थी। वकालत का करियर कोलकाता में प्रारंभ होते ही उन्होंने अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध लड़ने वाले क्रांतिकारियों के मुकदमे लेना शुरू कर दिए।
अरविंदो घोष के अलीपुर बम कांड मामले में उनका सफलतापूर्वक बचाव करने से वे क्रांतिकारियों के बीच अत्यंत लोकप्रिय हो गए। अनुशीलन समिति से जुड़े अनेक क्रांतिकारी उनका गहरा सम्मान करते थे। वे न केवल आर्थिक रूप से उनकी सहायता करते थे, बल्कि अदालतों में भी उनके लिए मुखर रूप से खड़े रहते थे। धीरे-धीरे उनका नाम चारों ओर फैल गया और उनके सम्मान में लोगों ने उन्हें ‘देशबंधु’ की उपाधि दी।
लंदन में अध्ययन के दौरान उनका परिचय अरविंदो घोष, सरोजिनी नायडू और दादाभाई नौरोजी जैसे प्रमुख राष्ट्रभक्तों से हुआ। दादाभाई नौरोजी को ब्रिटिश संसद तक पहुँचाने में चितरंजन दास ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बाद में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े और ‘फॉरवर्ड’ नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया, जिसका नाम आगे चलकर ‘लिबर्टी’ रखा गया।
उनकी साहित्यिक रुचि भी गहरी थी — उन्होंने कई कविताएँ लिखीं और दो काव्य-संग्रह प्रकाशित किए। सुभाष चंद्र बोस उन पर अत्यधिक प्रभावित हुए और उन्हें अपना गुरु मानने लगे।
चितरंजन दास और महात्मा गांधी उम्र में लगभग एक वर्ष के अंतर से समकालीन थे। दोनों ने ही लंदन से वकालत की डिग्री प्राप्त की थी। जहाँ गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में अपने आंदोलनों से ख्याति अर्जित की, वहीं चितरंजन दास ने भारत में कांग्रेस के मंच से स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाई।
उनकी पत्नी बसंती देवी और बहन उर्मिला देवी असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण गिरफ्तार होने वाली पहली महिला कार्यकर्ता बनीं — जो उनके परिवार की देशभक्ति का प्रमाण है।
1921 में वे कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गए। अगले अधिवेशन में भी उन्हें अध्यक्ष बनाया गया, परंतु जब गांधीजी के करीबी लोगों को कार्यकारिणी परिषद में शामिल किए जाने का मुद्दा उठा, तब मतभेद के कारण वे असंतुष्ट हो गए।
4 फरवरी 1922 को चौरी-चौरा कांड के बाद गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया, जिससे चितरंजन दास ने अलग राह अपनाई। 1923 में उन्होंने मोतीलाल नेहरू और हुसैन शहीद सुहरावर्दी के साथ मिलकर स्वराज पार्टी की स्थापना की। इस दल का उद्देश्य था — विधानसभाओं के भीतर रहकर अंग्रेज़ी शासन की नीतियों का विरोध और स्वराज की प्राप्ति।
स्वराज पार्टी को बंगाल में मंत्रिमंडल बनाने का अवसर मिला, परंतु देशबंधु ने उसे अस्वीकार कर दिया। उनके दृढ़ विरोध और स्पष्ट विचारों के कारण सरकार को वैधानिक सुधार करने पर विवश होना पड़ा।
राष्ट्रसेवा के लिए उन्होंने सुख-सुविधाओं का त्याग किया और अपना संपूर्ण जीवन स्वाधीनता संग्राम को समर्पित कर दिया। 1925 में उनकी तबियत बिगड़ने पर गांधीजी स्वयं दार्जिलिंग उनसे मिलने पहुँचे, परंतु उसी वर्ष 16 जून 1925 को यह महान नेता संसार से विदा हो गया।
देशबंधु चितरंजन दास न केवल बंगाल के, बल्कि समस्त भारत के आदर्श पुरुष थे। उनका जीवन त्याग, सत्य और सेवा का अद्भुत उदाहरण है। देश आज भी उन्हें श्रद्धा और स्नेह के साथ “देशबंधु” कहकर स्मरण करता है।
