सिख धर्म के संस्थापक श्री गुरु नानक देव जी (1469 ई. – 1539 ई.) का जन्म ऐसे समय में हुआ जब भारत में सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक स्थितियाँ अत्यंत विकट थीं। उस काल में मुस्लिम शासकों की हठधर्मिता, धर्मान्धता और अत्याचारों के कारण समाज में अशांति, अन्याय और भय का वातावरण व्याप्त था।
रूढ़िवाद, आडंबर और अंधविश्वास से ग्रस्त समाज में गुरु नानक देव जी ने अपनी अमृतमयी वाणी के माध्यम से नई चेतना का संचार किया। उन्होंने मानवता को सत्य, करुणा और समानता का संदेश दिया और समाज में प्रेम, भाईचारा तथा सामंजस्य स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त किया।
गुरु नानक देव जी की दार्शनिक विचारधारा सामाजिक चेतना से जुड़ी हुई थी। उन्होंने सामाजिक विषमता, जातिगत भेदभाव, अंधविश्वास और कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाई और एक ऐसे आदर्श समाज की कल्पना प्रस्तुत की जिसमें सभी मनुष्य समान हों।
समस्त मानवता को मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए उन्होंने चार प्रमुख धर्म-प्रचार यात्राएँ कीं, जिन्हें “चार उदासियाँ” कहा जाता है। इन यात्राओं के माध्यम से उन्होंने जीवन के हर वर्ग तक प्रेम, सेवा और सत्य का संदेश पहुँचाया।
गुरु जी का हृदय समाज के पीड़ित, पिछड़े और उपेक्षित वर्गों के लिए करुणा से भरा हुआ था। उन्होंने सभी धर्मों के प्रति सहनशीलता और सम्मान की भावना रखी। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि ईश्वर की कृपा वहीं बरसती है जहाँ निम्न, असहाय और गरीबों की सेवा की जाती है। इसी कारण सभी वर्गों और धर्मों के लोग उन्हें अपना ‘गुरु’ और ‘पीर’ मानकर नमन करते हैं।
महान चिंतक भाई गुरदास जी ने गुरु नानक देव जी के इस धरती पर अवतरण के उद्देश्य को इन पंक्तियों में सुंदर रूप से व्यक्त किया है —
“सतिगुरु नानकु प्रगटिआ,
मिटि धुंधु जगि चानणु होआ।
जिउ करि सूरजु निकलिआ,
तारे छपि अंधेरु पलोआ।”
अर्थात् — गुरु नानक देव जी के प्रकट होने से अज्ञानता का अंधकार मिट गया और ज्ञान का प्रकाश फैल गया, जैसे सूर्योदय होते ही अंधेरा छट जाता है और सम्पूर्ण जगत आलोकित हो उठता है।
