बॉलीवुड के अनकहे किस्से आनंद बक्शी : मां का फोटो था जिनके लिए अनमोल | The Voice TV

Quote :

तुम खुद अपने भाग्य के निर्माता हो - स्वामी विवेकानंद

Art & Music

बॉलीवुड के अनकहे किस्से आनंद बक्शी : मां का फोटो था जिनके लिए अनमोल

Date : 25-Feb-2023

 जीवन से जुड़े हर लम्हे, हर जज्बात और हर रिश्ते के लिए आनंद बक्शी ने लगभग साढ़े तीन हज़ार गीत लिखे। उनका हर गीत फिल्मों के किरदारों से निकलता था और फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने वाला होता था। उनकी सफलता ने उन्हें मिथक बना दिया था। उनकी शोहरत की तो अनेक कहानियां हैं, लेकिन इसके पीछे एक लंबा संघर्ष भी है जिसे हर कोई नहीं जानता।

उनके जीवन में सबसे बड़ा उलटफेर हुआ दो अक्टूबर 1947 को। यह दिन आज गांधी जयंती के रूप में मनाया जाता है। तब कुछ हफ़्तों पहले ही भारतीय उपमहाद्वीप का बंटवारा हुआ था और एक देश के बीच एक सरहद खींच दी गई थी, जिसकी वजह से लाखों लोगों को रातों-रात 'रिफ्यूजी' की तरह भारत आना पड़ा। प्रकाश वैद बख़्शी या 'नंद' भी उन्हीं में से एक था। आपको बता दें कि उनकी मांजी उन्हें प्यार से 'नंद' पुकारती थीं और पिता उन्हें प्यार से अज़ीज़' कहते थे। उस वक़्त उनकी उम्र 17 बरस की थी और उनका परिवार रावलपिंडी छोड़ रहा था। रातों-रात उन्हें अपने पुश्तैनी घर के सुकून और हिफ़ाज़त को छोड़कर जाना पड़ा था। ये भी भरोसा नहीं था कि ज़िंदगी बचेगी या नहीं। ग्यारह बरस पहले 'नंद' ने इससे भी बड़ी तकलीफ़ सही थी। अपनी मां, 'मित्रा' को खो देने की तकलीफ़, जिन्हें वो 'मांजी' कहकर पुकारते थे। उस वक़्त नंद छह बरस के थे जब पेट में एक और बच्चा था, सेहत बिगड़ी और उनकी मां चल बसीं।

बख़्शी परिवार एक डकोटा विमान से रावलपिंडी से सुरक्षित दिल्ली आ गया, क्योंकि आनंद बक्शी के बाऊजी पुलिस के सुप्रिंटेन्डेन्ट थे; पंजाब की जेलों, लाहौर और रावलपिंडी के इंचार्ज। जब ये संयुक्त परिवार बदहवासी में बॉर्डर के पार भागा, अफ़रा-तफ़री में जो कुछ भी ले सकते थे पैसे, कपड़े या निजी सामान- वो परिवार ने समेट लिया। इस परिवार में थे- नंद के सौतेले भाई-बहन, सौतेली मां, पापा जी और उनके नाना-नानी, बाऊजी और बीजी। अपनी जड़ों से कटा ये बदहवास परिवार अगले दिन दिल्ली पहुंचा। ये लोग कुछ घंटे देव नगर में रहे और फिर पूरा परिवार (पुणे) चला गया ताकि अपना रिफ्यूजी रजिस्ट्रेशन करवा सकें। जब ज़रा-सा सुकून मिला तो बाऊजी और पापा जी ने अपने बुज़ुर्गों से पूछा, "आप लोग घर से क्या-क्या लेकर आए हैं?” ये बात 17 बरस के नंद से भी पूछी गई कि मिलिट्री के ट्रक पर चढ़ने से पहले उसने क्या-क्या अपने साथ लिया था? आनंद बक्शी ने बताया कि उन्होंने परिवार की तस्वीरें ले ली थीं। उनमें से कुछ तस्वीरें उनकी मांजी की थीं। जब ये बात सुनी तो परिवार के लोग उन पर चिल्लाए, “क्या बेकार की चीजें तुम लेकर आए हो! हम बिना कीमती चीज़ों के यहां कैसे परिवार चलाएंगे?”

नंद ने जवाब दिया, “पैसे तो हम नौकरी कर के कमा सकते हैं, मगर मां की तस्वीर अगर पीछे रह जाती तो मैं कहां से लाता? मुझे तो मां का चेहरा भी याद नहीं। इन तस्वीरों के सहारे ही मैं आज तक जीता आया हूं।”

विभाजन से पहले बख़्शी परिवार चिट्टियां-हट्टियां, मोहल्ला कुतुबुद्दीन, रावलपिंडी में एक तीन मंज़िला घर में रहता था। ये घर आज भी क़ायम है। इस घर को 'दरोग़ा जी का घर' या 'दरोगा जी की कोठी' के नाम से जाना जाता था।

नंद का नाम रावलपिंडी के उर्दू मीडियम स्कूल और उसके बाद कैंब्रिज कॉलेज में लिखा दिया गया। कैंब्रिज कॉलेज में, जहां वो उर्दू मीडियम से पढ़ाई कर रहे थे उनका नाम आनंद प्रकाश था। हिंदी उन्होंने कभी नियमित रूप से ना लिखी और ना पढ़ी। उन्हें इंग्लिश और उर्दू में लिखने-पढ़ने में ज़्यादा आसानी होती थी। इसके बाद वो रॉयल इंडियन नेवी और उसके बाद भारतीय फ़ौज में बतौर ‘आनंद प्रकाश' शामिल हो गए। जब 1947 से 1950 के बीच फ़ौज में नौकरी करते हुए आनंद प्रकाश ने पहली बार कविताएं लिखना शुरू किया तो उन्होंने कविताओं के नीचे दस्तख़त किए, 'आनंद प्रकाश बख़्शी'। जब आनंद प्रकाश किशोरावस्था में थे तो उन्होंने एक सपना देखा; फ़िल्मों में काम करने का सपना। पर वो गीतकार नहीं बल्कि गायक बनना चाहते थे। वे हमेशा उर्दू में ही लिखा करते थे और ये सिलसिला फ़िल्मी-गीतकारी के शुरुआती दौर तक चलता रहा। उन्हें गाने अपने निर्देशक और संगीतकार को हमेशा पढ़कर सुनाने पड़ते ताकि वो उन्हें देवनागरी या रोमन हिंदी में लिख लें। सन् 1990 के ज़माने में एक बार किसी ने उनकी तारीफ़ करते हुए ये कहा कि बक्शी साहब आप कितनी कुशलता से रोज़मर्रा के हिंदी शब्दों को गाने में ढाल लेते हैं। उनसे पूछा गया कि ये बेमिसाल क़ाबिलियत उनके भीतर कैसे आई? बक्शी साहब ने कहा- मैंने सिर्फ़ आठवीं कक्षा तक ही पढ़ाई की थी। इसलिए मुझे हिंदी के बहुत ज़्यादा शब्द पता नहीं थे। ज़ाहिर है कि जो शब्द मेरी बोलचाल के थे उन्हीं के ज़रिये मुझे अपनी बात कहनी पड़ती थी। शायद हिंदी को लेकर मेरी जो सीमित जानकारी थी, उसी का मुझे एक गीतकार के रूप में बड़ा फ़ायदा मिला और यही मेरी क़ामयाबी का आधार बन गया, क्योंकि देश के कोने-कोने के लोगों को मेरे गाने समझ में आए और वो उन्हें गुनगुना सके।

चलते-चलतेः सन् 1956 में अपने पहले 4 गानों की रिकॉर्डिंग के बाद सन् 1959 तक उन्हें कोई काम नहीं मिला। यह उनकी जिंदगी का सबसे मुश्किल दौर था। उनकी पहली सुपरहिट फिल्म थी "जब-जब फूल खिले" जो 1965 में आई थी। इसके बाद तो उनकी बॉक्स-ऑफ़िस पर कई सुपर हिट फ़िल्में आईं। कुछ फ़िल्मों के नाम हैं- फ़र्ज़ (1967), राजा और रंक (1968), तक़दीर (1968), जीने की राह (1969), आराधना (1969)- वो फ़िल्म जिससे राजेश खन्ना के स्टारडम का रास्ता तैयार हुआ, उसके बाद- दो रास्ते (1969), आन मिलो सजना (1970), अमर प्रेम (1971)- एक के बाद एक हिट फ़िल्में आती चली गईं। इसके बाद गीतकार आनंद बक्शी को कभी काम मांगने की ज़रूरत नहीं पड़ी। सन् 2002 में उनके निधन तक लगातार उनके पास काम आता चला गया। उन्होंने ज़िंदगी में अपना मक़सद हासिल कर लिया था। सत्तर के दशक के मध्य से आगे तो डिस्ट्रीब्यूटर्स अक्सर प्रोड्यूसरों से पूछते थे कि क्या इस फिल्म में आनंद बक्शी के गीत हैं।

 
RELATED POST

Leave a reply
Click to reload image
Click on the image to reload










Advertisement