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बॉलीवुड के अनकहे किस्से एक विशिष्ट खलनायक अमरीश पुरी

Date : 22-May-2023


अमरीश पुरी को हिंदी सिनेमा का एक विशिष्ट खलनायक कहा जा सकता है। विशिष्ट इस मायने में कि वे एकरेखीय खलनायक नहीं थे बल्कि ऐसे व्यक्ति थे जो अपनी आंखों, अपने हाव-भाव और आवाज से दुष्टता को संतुलित करते थे और पर्दे पर अपनी एक अलग छाप छोड़ते थे। यही कारण था कि एक समय वे सबसे ज्यादा पैसे पाने वाले खलनायक थे । 22 जून, 1932 को पंजाब के गांव नौशहर जालंधर में जन्मे अम्बरीश उर्फ अमरीश ने बहुत देर से यानी 40 वर्ष की उम्र में फिल्मों में प्रवेश किया, हालांकि उनसे बड़े दो भाई मदन पुरी और चमन पुरी पहले से ही फिल्मों में काम कर रहे थे और अपनी पहचान बना चुके थे। उनको इसमें सहायता उनके चचेरे भाई कुंदन लाल सहगल जो कि प्रख्यात गायक और अभिनेता थे ने की थी।

अमरीश पुरी का बचपन शिमला, दिल्ली और नौशहर में बीता। 1942 में वह शिमला में डीएवी स्कूल में पढ़ रहे थे। कंजी आंखों और गोल मटोल होने के कारण बच्चे उन्हें मोटा बिल्ला कहकर चिढ़ाते थे। इंटर की पढ़ाई उन्होंने होशियारपुर से पूरी की और बीए शिमला से 1952 में पूरा किया। कॉलेज में वे बांसुरी बजाते नाटकों और खेलों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते। 1953 के अंत में वह नौकरी की तलाश में अपने भाई मदन पुरी के पास बॉम्बे (अब मुंबई) पहुंचे। मदन पुरी ने उनका पोर्टफोलियो तैयार कराया जिसे लेकर वे अनेक निर्माता-निर्देशकों से मिले लेकिन उनके कठोर चेहरे और उम्र से बड़े लगने के कारण किसी ने भी उन्हें हीरो बनाने लायक नहीं समझा। निराश अमरीश पुरी ने ईएसआईसी में क्लर्क की नौकरी कर ली और आकाशवाणी में ए श्रेणी के कलाकार के रूप में अपनी सेवाएं देने लगे।


ईएसआईसी में उन्हें अपनी सहकर्मी उर्मिला से प्यार हुआ जो 5 साल तक चला। जनवरी 1959 में परिवार के विरोध और बाद में सहमति पर उन्होंने उनसे विवाह कर लिया। फिल्में उनके जीवन से दूर जा चुकी थीं। लेकिन कुछ कलात्मक करने की उनकी इच्छा अभी मरी नहीं थी। अक्टूबर 1961 में अपने दोस्त के कहने पर वे इब्राहम अलका जी से रंगमंच प्रशिक्षण के सिलसिले में मिले । उनकी अच्छी कद काठी और गहरी आवाज के चलते उन्हें तुरंत आर्थर मिलर के नाटक ए व्यू फ्रॉम द ब्रिज के मुख्य नायक एडी कार्बन की भूमिका दे दी गई और इस तरह नाटकों में उनके अभिनय का सिलसिला दोबारा चल पड़ा। इसी दौरान सत्यदेव दुबे से उनका परिचय हुआ और आगे चलकर गहरी दोस्ती में बदल गया। उन्होंने उनसे रंगमंच के हर शिल्प को बहुत गहराई से जाना समझा। इन कुछ ही वर्षों में वे बंबई के महत्वपूर्ण निर्देशकों के साथ लोकप्रिय भूमिकाएं करके अच्छी खासी प्रसिद्धि पा चुके थे। वैसे भी यह काल हिंदी नाटकों का स्वर्णकाल था।

सही मायनों में उनकी पहली फिल्म रेशमा और शेरा थी जिसमें उन्होंने बूढ़े मुस्लिम पात्र रहमत खान की भूमिका की थी। हालांकि इससे पहले वह देवानंद की फिल्म प्रेम पुजारी में एक छोटा रोल लंदन जाने के लालच में कर चुके थे लेकिन बाद में उसे मुंबई में ही फिल्माया गया था। इस बीच उनके एक अन्य थियेटर गुरु पीडी शिनॉय ने उन्हें अपनी फिल्म सोने के हाथ जिसमें संजय खान बबीता थे में खलनायक का रोल कराया। यह भी रेशमा और शेरा के साथ 1971 में प्रदर्शित हुई और फ्लॉप हो गई। इधर गिरीश कर्नाड ने अपनी कन्नड़ फिल्म काडू में मुख्य भूमिका के लिए उन्हें चुना। इस फिल्म को कई पुरस्कार मिले और उनके काम पर अन्य गंभीर निर्देशकों की नजर पड़ी । श्याम बेनेगल ने उन्हें निशांत में काम दिया। आगे तो उन्होंने उनकी लगभग सभी फिल्मों-मंथन, भूमिका ,मंडी, सूरज का सातवां घोड़ा, कलयुग और जुबेदा में काम किया। यह काल समांतर सिनेमा या कला सिनेमा का भी था जहां रंगमंच से प्राप्त उनकी अभिनय प्रतिभा का सही और बेहतर इस्तेमाल हुआ। वैसे भी अब तक कला और व्यावसायिक फिल्मों के बीच बहुत ज्यादा अंतर नहीं होता था। गोविंद निहलानी की फिल्में इस श्रेणी की ही थी जैसे आक्रोश, अर्धसत्य और विजेता आदि।
1979- 80 तक आते-आते उनके पैर बंबई में जम गए थे। इस समय उनके पास 23 फिल्में थी और अब वे हर दिन दो-तीन शिफ्टों में काम कर रहे थे। खलनायक के रूप में बड़ी कमर्शियल सफलता उन्हें 1980 में फिरोज खान की फिल्म कुर्बानी से मिली । इसके बाद तो हम पांच, दोस्ताना, नसीब, विधाता, अंधा कानून, हीरो, मशाल, मेरी जंग तेरी मेहरबानियां नगीना, लोहा तक वे एक लोकप्रिय और श्रेष्ठ खलनायक के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे। इस पहचान का चरम 1987 में आई उनकी फिल्म मिस्टर इंडिया रही, जिसमें उन्होंने मोगांबों नाम का एक करैक्टर किया था। उसका डायलॉग मोगांबों खुश हुआ ऐसा पॉपुलर हुआ कि बच्चे-बच्चे की जुबान पर चढ़ गया । उसके बाद तो उन्होंने 250 से ज्यादा फिल्मों में खलनायक की भूमिका निभाई। इस बीच उन्होंने कुछ अलग फिल्में जैसे मुस्कुराहट, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, विरासत ,परदेस ,चाची 420, झूठ बोले कौवा काटे, चाइना गेट शरारत आदि की जिनसे उनका अभिनय व्यक्तित्व और निखारा। उन्होंने कई विदेशी फिल्मों मैं भी उल्लेखनीय काम किया। खलनायकी को नए आयाम देने वाला यह अनोखा कलाकार तीन सौ से ज्यादा फिल्मों की सौगात देकर 12 जनवरी 2005 को हमसे जुदा हो गया।

चलते-चलते

थियेटर के दौरान अमरीश पुरी ने अपने ऑफिस से लोन लेकर एक मोटरसाइकिल खरीदी और इसमें उन्होंने विशेष रूप से एक साइड कार भी लगवाई जिससे वे अपने साथ काम कर रही अपनी अभिनेत्रियों को साथ ला ले जा सके। उनकी देखा-देखी सत्यदेव दुबे ने भी एक लेंब्रेटा स्कूटर खरीदा और उसमें साइड कार भी लगवाई जिससे वे अपनी हीरोइनों को साथ लाने का सुंदर सपना पूरा कर सकें,लेकिन पहले दिन ही रास्ते में एक्सीडेंट हो गया और फिर उन्होंने उसे कभी हाथ नहीं लगाया। फिर इसका फायदा अभिनेता अमोल पालेकर ने उठाया।

 
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