वचनपत्र की शब्दावली के अतिरिक्त एक कारण और भी है। दक्षिण भारत में काँग्रेस नेतृत्व की राज्य सरकारों और केरल की वामपंथी सरकार ने बहुत पहले ही मुसलमानों को आरक्षण देना शुरु कर दिया है । वर्ष 2009, 2014 और 2019 के इन राज्यों के चुनाव प्रचार के दौरान केन्द्रीय स्तर भी मुस्लिम समाज को आरक्षण देने का आश्वासन दिया था । अभी जिन प्रांतों में मुस्लिम आरक्षण लागू हुआ वहा आरक्षित वर्गों के लिये निर्धारित कोटे में ही सेंध लगाई गई है । आरक्षण लागू करने की अधिकतम सीमा पचास प्रतिशत है जो एससी एसटी और ओबीसी के लिये निर्धारित है । यदि किसी अन्य वर्ग को आरक्षण की सूची में शामिल किया जाता है तो एससी एसटी और ओबीसी के कोटे में ही कटौती होगी । दूसरा धार्मिक आधार पर मुस्लिम समाज को आरक्षण देना संविधान की मूल भावना के भी विपरीत है। भारत का संविधान धर्म निरपेक्षता का संदेश देता है । इसमें धर्म के आधार पर किसी को आरक्षण नहीं दिया जा सकता । यह संविधान की भावना के विरुद्ध है। इससे बचने के लिये काँग्रेस, वामपंथी और उनके सहयोगी दलों ने पिछले दरबाजे से रास्ता निकाला है । इन राज्यों ने मुस्लिम समाज के जिन लोगों को आरक्षण दिया गया, उन्हें ओबीसी वर्ग में जोड़ दिया गया । इन राज्यों में तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक हैं। कर्नाटक में पिछली बार जब भाजपा सरकार में आई थी तो उसने मुसलमानों को आरक्षण सुविधा बंद कर दी थी । लेकिन अब कर्नाटक में पुनः काँग्रेस सरकार आ गई और मुस्लिम आरक्षण आरंभ हो गया । इन राज्यों के अतिरिक्त पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी सरकार ने आजीविका के आधार पर मुस्लिम समाज के कुछ लोगों को ओबीसी सूची में डालकर आरक्षण देना आरंभ कर दिया । वामपंथी स्वयं को धर्म निरपेक्ष होने का दावा करते हैं लेकिन मुसलमानों के हित संरक्षण और सनातन परंपराओं पर हमला करने में वे "सेकुलरिज्म" भूल जाते हैं । यदि वामपंथी धारा को सेकुलरिज्म का स्मरण होता तो केरल में मुस्लिम आरक्षण लागू न होता । केरल सरकार ने मुसलमानों को आरक्षण देने के लिये ओबीसी कोटे में एक उपवर्ग बनाया है । इस उपवर्ग कोटे में मुसलमानों को दस प्रतिशत आरक्षण दिया जाता है । वर्तमान में केरल की सरकारी नौकरियों में मुस्लिम हिस्सेदारी 12 प्रतिशत और व्यावसायिक एवं शैक्षणिक संस्थानों में 8 प्रतिशत है।