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" लक्ष्य निर्धारण एक सम्मोहक भविष्य का रहस्य है " -टोनी रॉबिंस

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ब्राह्मण होने का धर्म !

Date : 10-May-2024

"यदि शूद्र में सत्य आदि उपयुक्त लक्षण हैं और ब्राह्मण में नहीं हैं, तो वह शूद्र शूद्र नहीं है, न वह ब्राह्मण ब्राह्मण। युधिष्ठिर कहते हैं कि हे सर्प जिसमें ये सत्य आदि ये लक्षण मौजूद हों, वह ब्राह्मण माना गया है और जिसमें इन लक्षणों का अभाव हो, उसे शूद्र कहना चाहिए"....

धर्मशात्रों में ब्राह्मणों का स्थान अप्रतिम और अमोघ माना गया है। लोग कह सकते है क्योंकि शास्त्रकार सबके सब ब्राह्मण होते थे इसलिए खुद को सर्वोपरि रखा। फिर भी ब्राह्मणत्व में ऐसा कुछ न कुछ तो होगा कि प्रायः प्रत्येक थर्मशास्त्रों में बार बार समाज को सावधान किया गया है कि वह ब्राह्मणों को रुष्ट होने का अवसर नहीं दे। क्योंकि….
भगवान शंकराचार्य से जुड़ी एक कथा है..संन्यास की दीक्षा के उपरान्त वे भिक्षा के लिए एक ब्राह्मणी के घर पहुंचे- मातु भिक्षाम् देहि, की टेर लगाई। ब्राह्मणी अत्यंत गरीब थी। उसके घर अन्न का एक दाना भी न था। वह स्वयं कई दिनों से भूखी थी ..पर याचक अतिथि को कैसे लौटाती। उसके घर एक सूखा आँवला था उसे भिक्षु शंकर को दे दिया। 
यह शंका महाभारतकार महर्षि व्यास के भी मन में भी थी, जिसे उन्होंने वनपर्व में वर्णित युधिष्ठिर-सर्प संवाद में प्रत्यक्ष किया है। सर्प युधिष्ठिर से पूछता है..ब्राह्मण कौन है? इस पर युधिष्ठिर कहते हैं कि ब्राह्मण वह है, जिसमें सत्य, क्षमा, सुशीलता, क्रूरता का अभाव तथा तपस्या और दया, इन सद्गुणों का निवास हो। इस पर सर्प शंका करता है कि ये गुण तो शूद्र में भी हो सकते हैं, तब ब्राह्मण और शूद्र में क्या अंतर है?
ग्यान पर ब्राह्मणों का एकाधिकार कभी नहीं रहा। उसे हर वर्ग के लोगों ने संपन्न किया। विश्व के दो महान ग्रंथ हैं, पहला बाल्मीक कृत रामायण, दूसरा वेदव्यास कृत महाभारत। ये दोनों ही महापुरुष जन्म से ब्राह्मण नहीं हैं। सूतजी जिन्हें कथावाचक या सूत्रधार के रूप में पुराणों को लोकमानस तक  पहुंचाने का श्रेय जाता है वे ब्राह्मण नहीं अपितु वर्ण से शूद्र थे।
 वेद ध्वनि सुनने पर शूद्र और स्त्री के कानों में पिघला हुआ सीसा डाल देने का श्लोक रचने वाले वही स्वार्थी तत्व थे जिन्होंने ने ऋषि परंपरा से निकले ग्यान को कर्मकाण्ड में बदलकर उसे अपनी वृत्ति(पेशा) बना लिया। यह जानना चाहिए कि वेद किन्हीं एक व्यक्ति द्वारा नहीं लिखे गए। यह तत्कालीन समाज की सहकारी रचनाकर्म है जिसमें महिलाओं का योगदान अग्रगण्य है।
 
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