शिक्षाप्रद कहानी:- वैदिक धर्म के उद्धारक
Date : 06-Jul-2024
महाराज काशी नरेश की एक कन्या थी | वह कन्या परम विदुषी के रूप में विख्यात थी | वह दिन – रात वैदिक धर्म की चर्चा किया करती थी | और उसे अपने इस सत्य सनातन धर्म के प्रति बड़ी निष्ठा थी | किन्तु वैदिक धर्म तो बौद्ध धर्म की ओट में उस समय लुप्त होता जा रहा था | काशीराज की कन्या को वैदिक धर्म के उद्धार की बड़ी चिंता थी | इसके लिए वह दिन – रात चिंतित रहा करती थी |
एक दिन अपनी अटारी पर बैठकर वह वैदिक धर्म के उद्धार के लिए अत्यंत ग्लानि के साथ भविष्य का चिंतन कर रही थी | अकस्मात उसके प्रासाद के नीचे से एक भव्य आकृति वाला ब्रम्हचारी गुजरा | कुमारी कन्या की आंखों से निकलने वाले गरम –गरम आँसू ब्रम्हचारी के शरीर पर टपक पड़े | उष्ण अश्रुओं से ब्रम्हचारी का ध्यान उस ओर गया , जहाँ से वे अश्रुविंदु टपके थे | ब्रम्हचारी ने देखा कि कुमारी रो रही हैं | उसे यह देखकर महान आश्चर्य हुआ | भला एक राजकन्या इस प्रकार अटारी पर बैठकर रोये ? क्या रहस्य है इसका ?
“आप क्यों रो रही हैं | आपके रोने का कारण क्या है ?’’
ब्रम्हचारी कुमारिल ने पूछने का साहस कर ही लिया |
वह कन्या साधारण बालिका नही थी | उसने परिस्थिति और पुरुष को भली प्रकार भाँप लिया था | बोली –“ वैदिक धर्म के उद्धार की मुझे चिंता हैं | कौन ऐसा पुरुष है , जो वैदिक धर्म का उद्धार कर सकेगा ?’’
‘’आप इसके लिए तनिक भी चिंता न करें कुमारी ! यह कुमारिल भट्ट ही वह पुरुष हैं , जो वैदिक धर्म का उद्धार करेगा | ‘’
कुमारिल भट्ट ने धीरता के साथ राजकुमारी को आश्वासन दिया | कुमारिल भट्ट ने जो प्रतिज्ञा की वह बड़ी दुस्तर थी | कुमारिल ने समझ लिया कि वैदिक धर्म के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि बौद्ध धर्म का , जो इस समय पाखंडियों के हाथ में है , खण्डन किया जाए | पर यह उस काल में कोई साधारण बात नहीं थी | सर्वप्रथम बौद्ध धर्म का अध्ययन और तब उसका खण्डन संभव था |
बौद्ध धर्म के अध्ययन के लिए काशी का त्याग करना आवश्यक था , क्योंकि बिना तक्षशिला गये बौद्ध धर्म व बौद्ध दर्शन का अध्ययन संभब नहीं था | ब्रम्हचारी कुमारिल के लिए काशी त्याग एक बहुत बड़ी समस्या हो गयी| परंतु यह परीक्षा का अवसर था | ब्रम्हचारी कुमारिल ने तक्षशिला की राह पकड़ी और वहा पहुचने पर उनका बड़ा सत्कार हुआ |
तक्षशिला के आचार्य ने कुमारिल को बड़ा प्रेम से बौद्ध धर्म के तत्वो का अध्ययन कराया | प्रतिभाशाली कुमारिल अल्पकाल में बौद्ध धर्म के गहन तत्वो और बौद्ध धर्म के पूर्ण ज्ञाता हो गये |
एक दिन कुमारिल को अपनी पूर्व प्रतिज्ञा स्मरण हो आयी और उन्होने अपने पूज्य गुरु से ही शास्त्रार्थ करने की इच्छा व्यक्त की एक ओर अकेले कुमारिल और दूसरी ओर बौद्ध धर्म के समस्त आचार्य | विषय था | “ ईश्वर की सत्ता और उसके कर्मनियता होने का प्रमाण |’’
शास्त्रार्थ छिड़ गया | दोनों ओर से मध्यस्थ की अवश्यकता पड़ी | मगधराज सुधन्वा मध्यस्त्र बनाने गये | शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ उस समय ऐसा जाना पड़ता था | कि कुमारिल की जिहवा पर मानो सरस्वती आकार बैठ गयी हो | विषय का निर्णय असंभव हो गया अंततोगत्वा कुमारिल भट्ट के आगे वह का अध्यापक मंडली को झुकना पड़ा | कुमारिल की प्रतिभा और शास्त्रार्थ से सभी प्रभावित हुए |
किन्तु ईश्वर के तत्त्व को यों ही तर्क से मानने के लिए बौद्ध आचार्य तैयार नही थे | ईश्वर सत्ता का प्रत्यक्ष निर्णय करने के लिए बौद्धों ने एक युक्ति सोची और घोषित किया –‘’ यदि दोनों पक्ष अपना सिद्धांत सिद्ध करके विजय प्राप्त करना चाहते हैं , तो पर्वत की ऊंची चोटी से कूदने पर उनमे जो सुरक्षित रह जायेगा,
वही विजयी माना जायेगा | अतः दोनों शास्त्रार्थ पर्वत की ऊंची
चोटी से कूदकर अपने सिद्धांत की विजय सिद्ध करें |
उक्त घोषणा से कुमारिल तनिक भी नहीं घबराये और समस्त राजकर्मचारीयों के सम्मुख पर्वत की ऊंची चोटी पर चढ़कर उन्होने भगवान का स्मरण किया और स्पष्ट घोषणा की –‘’ वेद प्रमाण हैं | भगवान ही रक्षक हैं | सर्वज्ञाता ईश्वर ही शक्तिशाली हैं | आत्मा अजर – अमर है | सत्य ही अमर है | ‘’ यह कहकर कुमारिल उस ऊंचे शिखर से कूदे पड़े | कुमारिल का बाल भी बांका नहीं हुआ |
बौद्धों ने उसे जादुई चमत्कार कहा और जब उनसे आचार्य की बारी आयी , तब वे भाग खड़े हुए | उक्त घटना के बाद समस्त भारत वर्ष में वैदिक धर्म की पताका पुनः फहराने लगी | काशी की राज कुमारी और काशी जनता को इस घटना से बड़ी प्रसन्नता हुई | कुमारिल की विजय की चर्चा समस्त भारतवर्ष में व्याप्त हो गयी |
कुमारिल को इस विजय पर गर्व नही हुआ, उनके मन पर इसका उल्टा ही प्रभाव हुआ था | शास्त्रार्थ में गुरु को पराजित करने का जो पाप हुआ , उसका उन्होने प्रायशिचत करना चाहा , क्योंकि वैदिक धर्म मे गुरु का अपमान महान अपराध माना जाता है | कुमारिल प्रायशिचत के लिए प्रयाग पहुँचे | उनका प्रायशिचत देखने के लिए भारत के कोने-कोने से विद्वान एवं अन्य जन एकत्र हो गये |
यह मान्यता है कि स्वय भगवान शंकराचार्य भी वहा पर पहुचे थे | वीरात्मा कुमारिल ने शास्त्र अनुसार ‘ तुशागिन ’ से शनै:- शनै अपने शरीर को जलाकर प्रायशिचत करके प्राण त्याग तो कर दिया , किन्तु वैदिक धर्म का उद्धार करके वे अमर हो गये |