7 फरवरी 1982 : स्वतंत्रता संग्राम सेनानी धर्मसम्राट स्वामी करपात्री महाराज का समाधि दिवस
Date : 07-Feb-2025
ऐतिहसिक आँदोलन इन्हीं नेतृत्व में हुआ था : धर्मसंघ और रामराज्य परिषद के संस्थापक थे
संन्यास के पहले उनका नाम हरि नारायण ओझा था। दीक्षा लेकर दसनामी परम्परा के संन्यासी बने तब उनका उनका नाम " हरिहरानन्द सरस्वती" हुआ । उनमें अद्वितीय विद्वत क्षमता और स्मरण शक्ति थी । वेद, पुराण, अरण्यक ग्रंथ, संहिताएँ, गीता रामायण आदि ऐसा कोई धर्मशास्त्र नहीं जिनका अध्ययन उन्होंने न किया हो। सबके उदाहरण उनके प्रवचनों में होते थे। उनकी इस अद्वितीय विद्वता के कारण उन्हें 'धर्मसम्राट' की उपाधि से संबोधित किया गया । भारत के ऐसी विलक्षण विभूति संत स्वामी करपात्री जी महाराज का जन्म श्रावण मास शुक्ल पक्ष द्वितीया संवत् 1964 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिला अंतर्गत ग्राम भटनी में हुआ था । उस वर्ष यह 11 अगस्त 1907 को थी । पिता श्री रामनिधि ओझा परम् धार्मिक और वैदिक विद्वान थे । उनकी शिक्षा काशी में हुई थी । और माता शिवरानी देवी भी धार्मिक एवं संस्कारों के प्रति समर्पित गृहणी थीं। जन्म के समय उनका नाम 'हरि नारायण' रखा गया। पिता उन्हें भी काशी भेजकर वैदिक विद्वान बनाना चाहते थे । सात वर्ष की आयु में यज्ञोपवीत संस्कार और 9 वर्ष की आयु में विवाह हो गया । पत्नि महादेवी भी संस्कारित परिवार की थीं। गौना पन्द्रह वर्ष की आयु में हुआ । पर उनका मन घर गृहस्थी में न लगा । वे सोलह वर्ष की आयु में गृहत्याग कर सत्य की खोज में चल दिये और ज्योतिर्मठ पहुँचे। वहाँ शंकराचार्य स्वामी श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी से दीक्षा ली और हरि नारायण से ' हरिहर चैतन्य ' बने। उनकी स्मरण शक्ति इतनी विलक्षण थी कि एक बार पढ़ लेने के वर्षों बाद भी पुस्तक और पृष्ठ का विवरण दे सकते थे। काशी में रहकर नैष्ठिक ब्रम्हचर्य श्री जीवन दत्त महाराज से संस्कृत, षड्दर्शनाचार्य स्वामी श्री विश्वेश्वराश्रम महाराज से व्याकरण शास्त्र, दर्शन शास्त्र, भागवत, न्यायशास्त्र और वेदांत अध्ययन, श्री अचुत्मुनी महाराज से अध्ययन ग्रहण किया। अध्ययन के साथ तपस्वी जीवन शैली अपनाई और साधना से आत्मशक्ति जागरण का अभ्यास किया । चौबीस वर्ष की आयु में दंड धारणकर स्वयं अपना आश्रम स्थापित कर "परमहंस परिब्राजकाचार्य 1008 श्री स्वामी हरिहरानंद सरस्वती श्री करपात्री जी महाराज" कहलाए। 1942 के भारत छोड़ो आँदोलन में संतों की टोली बनाकर शोभा यात्रा निकाली और गिरफ्तार हुये । उस समय की राजनीति में स्वामी जी ने दो बातें अनुभव कीं । एक तो भारत विभाजन के वातावरण की तीव्रता और दूसरे राजनीति में नैतिकता, साँस्कृतिक वोध और राष्ट्रभाव का अभाव । स्वामी ने समाज में इन दोनों बातों पर जाग्रति लाने के लिये देशव्यापी यात्रा की । संत और समाज सम्मेलन किये लेखन भी किया । उनके संबोधनों और साहित्य में एक ओर राष्ट्रचेतना और गौरव का भान होता और दूसरी ओर धार्मिक कुरीतियों का निवारण भी । स्वामी ने सनातन धर्म को विकृत करने वाले किस्से कहानियों का तर्क और प्रमाण सहित खंडन किया । इन दोनों उद्देश्य पूर्ति के लिये दो संस्थाओं का गठन किया । पहली अखिल भारतीय धर्म संघ और दूसरी रामराज्य परिषद । आखिल भारतीय धर्मसंघ का गठन 1940 में किया जिसका दायरा व्यापक बनाया । इसका उद्देश्य केवल मनुष्य या हिन्दु समाज ही नहीं प्राणी मात्र में सुख शांति स्थापित करना था ।। उनकी दृष्टि में समस्त जगत और उसके प्राणी सर्वेश्वर, भगवान के अंश हैं और रूप हैं । मनुष्य यदि स्वयं शांत और सुखी रहना चाहता है तो औरों को भी शांत और सुखी बनाने का प्रयत्न होगा। आज धार्मिक आयोजनों के समापन पर "धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो" यह उद्घोष करने की परंपरा स्वामी करपात्री महाराज ने ही आरंभ की थी ।