- डॉ. प्रियंका सौरभ
सिख लड़की ने कप्तानी की, क्रिश्चियन लड़की ने सेमीफाइनल जिताया, बंगाली लड़की की पावर हिटिंग से टीम 300 के करीब पहुंच पाई, जाट की लड़की शेफाली फाइनल में प्लेयर ऑफ़ द मैच बनीँ और ब्राह्मण की लड़की दीप्ति प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट चुनी गई और आखिरकार भारत वर्ल्ड चैंपियन बन गया। सवाल ये है कि जब इनकी अलग-अलग पहचानें हमें वर्ल्ड चैंपियन बनाने में आड़े नहीं आतीं, तो देश को आगे ले जाने के नाम पर हम इन्हीं पहचानों के नाम पर लड़ते क्यों हैं? ऐसा ही जज़्बा हमें देश की तरक्की के लिए भी चाहिए।
यह पंक्तियाँ आज के भारत की सच्ची तस्वीर पेश करती हैं- वह भारत जहाँ विविधता कोई विभाजन नहीं, बल्कि शक्ति है। जब भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने विश्व कप जीतकर इतिहास रचा तो यह जीत सिर्फ़ बल्ले और गेंद की नहीं थी, बल्कि यह एकता, समानता और भारतीयता की जीत थी। टीम में हर धर्म, हर जाति, हर भाषा और हर क्षेत्र की बेटियाँ थीं लेकिन जब उन्होंने मैदान में कदम रखा तो वे केवल एक पहचान रखती थीं- भारतीय। यही भावना हमें याद दिलाती है कि असली ताकत हमारे नाम, वंश या पंथ में नहीं, बल्कि हमारे सामूहिक प्रयत्न और साझा संकल्प में है।
खेल हमें यह सिखाते हैं कि टीम भावना किसी भी व्यक्तिगत पहचान से बड़ी होती है। जब विकेट गिरता है तो कोई यह नहीं देखता कि गेंदबाज किस राज्य या धर्म से है और जब चौका लगता है तो भीड़ यह नहीं सोचती कि बल्लेबाज़ किस जाति का है। मैदान में सिर्फ़ एक बात मायने रखती है- प्रदर्शन, मेहनत और समर्पण। यही दर्शन यदि हम देश के विकास, राजनीति, समाज और संस्कृति में भी अपनाएँ, तो भारत हर क्षेत्र में “विश्व चैंपियन” बन सकता है।
हमारे समाज में दुर्भाग्य से पहचान की राजनीति, धर्म और जाति के आधार पर विभाजन और अपने-अपने “हम बनाम वो” की मानसिकता गहरी जड़ें जमा चुकी हैँ। चुनावों से लेकर रोज़मर्रा की बातचीत तक हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि हमारी सबसे बड़ी पहचान भारतीयता है। खेल हमें हर बार याद दिलाते हैं कि जब हम मिल कर खेलते हैं तो हम अजेय बन जाते हैं। यही एकजुटता भारत के संविधान, संस्कृति और सभ्यता की आत्मा है। जब हरमन प्रीत कौर मैदान में नेतृत्व करती हैं तो वह सिर्फ़ पंजाब की बेटी नहीं होतीं, वह पूरे भारतीय टीम की कप्तान होती हैं। जब जेमिमा रोड्रिग्स निर्णायक मैच में बेहतरीन बल्लेबाज़ी करती हैं तो यह मायने नहीं रखता कि उनका धर्म क्या है -मायने रखता है उनका योगदान। जब शेफाली वर्मा फाइनल में धुआंधार बल्लेबाज़ी करती हैं या दीप्ति शर्मा पूरे टूर्नामेंट में निरंतर प्रदर्शन से चमकती हैं तो वे हमें यह सिखाती हैं कि सफलता योग्यता और परिश्रम की भाषा बोलती है, किसी जाति या धर्म की नहीं।
आज भारत को इन बेटियों से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। यदि हर नागरिक अपनी छोटी-छोटी पहचान पीछे रखकर देश के बड़े लक्ष्य के लिए काम करे तो न तो विकास की रफ्तार रुकेगी और न ही सामाजिक सौहार्द बिगड़ेगा। हमें समझना होगा कि देश का निर्माण किसी एक वर्ग, एक भाषा या एक संस्कृति से नहीं होता बल्कि सभी के मिलन से होता है। यही कारण है कि भारत “वसुधैव कुटुम्बकम्” का संदेश देता आया है - पूरा विश्व ही एक परिवार है। क्रिकेट के मैदान में जब गेंद सीमारेखा पार करती है तो पूरा स्टेडियम एक साथ गूंज उठता है- “भारत! भारत!” उस क्षण न कोई हिंदू होता है, न मुस्लिम, न सिख, न ईसाई; सब सिर्फ़ भारतीय होते हैं। यह भावना ही राष्ट्र निर्माण का असली आधार है। यही वह चेतना है जो हमें जातीय हिंसा, धार्मिक कट्टरता और क्षेत्रीय संकीर्णता से ऊपर उठने की शक्ति देती है। आज राजनीति से लेकर सामाजिक मीडिया तक, हमें बार-बार अपनी पहचान के चश्मे से चीज़ें देखने के लिए उकसाया जाता है। पर सवाल यह है- क्या कोई देश सिर्फ़ पहचानों से बनता है? नहीं। देश तब बनता है जब लोग अपने मतभेदों को दरकिनार कर साझा लक्ष्य के लिए एकजुट होते हैं। आज भारत के सामने अनेक चुनौतियाँ हैं- गरीबी, बेरोज़गारी, शिक्षा, पर्यावरण, लैंगिक समानता- पर इन सबका समाधान तभी संभव है जब हम टीम इंडिया की भावना से सोचें, न कि “मेरे समाज” की संकीर्ण मानसिकता से।
हमारी महिला क्रिकेट टीम ने वह कर दिखाया जो राजनीति, समाज और धर्मशास्त्र नहीं कर पाए- उन्होंने हमें दिखाया कि “एकता में कितनी शक्ति” होती है। मैदान में उन्होंने यह साबित कर दिया कि कोई किसी से कम नहीं, और सब एक-दूसरे के लिए समर्पित हैं। किसी ने नेतृत्व किया, किसी ने बल्ला घुमाया, किसी ने गेंद को हवा में उछाला, किसी ने कैच पकड़ा और सबने मिलकर इतिहास रच दिया। यही मॉडल भारत के सामाजिक जीवन के लिए भी लागू हो सकता है। हर नागरिक यदि अपनी भूमिका जिम्मेदारी से निभाए -चाहे वह किसान हो, शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर या सिपाही -तो भारत के विकास की डगर कोई नहीं रोक सकता। जैसे टीम में हर खिलाड़ी अपने हिस्से की भूमिका निभाता है, वैसे ही देश के हर नागरिक को अपनी जगह ईमानदारी से काम करना होगा। तब कहीं जाकर भारत “विकसित राष्ट्र” के सपने को साकार करेगा।
इस जीत में एक और बड़ा संदेश छिपा है- महिला सशक्तिकरण का। इन बेटियों ने न केवल खेल के मैदान में बल्कि समाज के उस सोच पर भी प्रहार किया है जो अक्सर यह मानती रही कि कुछ क्षेत्र पुरुषों के लिए ही हैं। उन्होंने यह साबित कर दिया कि यदि अवसर और विश्वास मिले तो महिलाएँ किसी भी क्षेत्र में देश को गौरवान्वित कर सकती हैं। उनकी यह सफलता आने वाली पीढ़ियों की लड़कियों के लिए प्रेरणा बनेगी, जो अब यह जानती हैं कि “सीमाएँ” सिर्फ़ सोच में होती हैं, प्रतिभा में नहीं। जब हम किसी की पहचान को देखकर निर्णय लेते हैं तो हम उसकी असली क्षमता देखने से चूक जाते हैं। लेकिन जब हम पहचान से परे जाकर सहयोग करते हैं, तो असंभव भी संभव हो जाता है। यही सबक हमारी महिला टीम ने दिया है कि देश की सेवा के लिए पहले दिलों का मेल ज़रूरी है, न कि सिर्फ़ संसाधनों का।
भारत को आगे बढ़ाने के लिए आज जिस चीज़ की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, वह है सामाजिक एकता और परस्पर सम्मान। हम सब अलग-अलग भाषाएँ बोल सकते हैं, अलग-अलग रीति-रिवाज़ निभा सकते हैं लेकिन हमारा सपना एक ही है - एक मज़बूत, समृद्ध और खुशहाल भारत। यह सपना तभी साकार होगा जब हम “मैं” से ऊपर उठकर “हम” की सोच अपनाएँ। जिस दिन हम सब भारतीय इस बात को आत्मसात कर लेंगे कि किसी की सफलता हमारी सामूहिक जीत है, उस दिन भारत न सिर्फ़ खेल के मैदान में, बल्कि हर क्षेत्र में विश्वगुरु बनेगा। यह टीम की तरह काम करने का समय है, न कि एक-दूसरे को दोष देने का। इसलिए जब अगली बार कोई यह पूछे कि “तुम कौन हो?”, तो उत्तर बस इतना ही होना चाहिए - “मैं भारतीय हूँ।” जब तक हम यही पहचान लेकर चलेंगे, तब तक कोई ताकत हमें रोक नहीं सकती। जैसे मैदान में भारत की बेटियाँ जीतकर लौटीं, वैसे ही एक दिन हमारा देश भी विकास और एकता का विश्व चैंपियन बनेगा क्योंकि जो देश अपनी विविधता में एकता ढूँढ़ना सीख जाता है, वह कभी हारता नहीं।
(लेखिका, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
