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राष्ट्रगीत के 150 वर्ष पर विशेष : वन्देमातरम्: राष्ट्र भूमि की चेतना का स्वर

Date : 07-Nov-2025


आचार्य संजय तिवारी

वंदे, अर्थात वंदना और मातरम् शब्द का अर्थ है माँ, अर्थात वह , जिसने जन्म दिया। कौन और किसको? भारतीय चिंतन, दर्शन, लोक और ज्ञान परंपरा के अनुसार उत्तर है, मुझे, हमें, सभी को, सभी मनुष्यों को, पशुओं को, पक्षियों को, वनस्पतियों को, नदियों को, पर्वतों को, जंगलों को, समस्त प्राणियों को, समस्त जगत को। उसी ने जन्मा है। उसी ने निर्मित किया है। वहीं कर रही है। उसी के आंगन में, उसी के आंचल में सभी जी रहे हैं। सभी पुष्पित, पल्लवित और विलयित भी हो रहे हैं। मातरम् को वंदे। मातृ तत्व को प्रणाम। वहीं मातृ सत्ता जिसे भारत ने सदा से भू देवी कहा है और उसकी स्तुति की है। उसी को वंदे मातरम् करने का गान रचा है श्रुतियों ने भी और बंकिम चंद्र चटर्जी ने भी। आदिकाल से, सृष्टि के आरम्भ से ही यह स्तुति हमने सदैव की है। वंदे मातरम् के उद्घोष में ही वह शक्ति है जो भारत को ही नहीं बल्कि समस्त जगती को ब्रह्मांड की असीम ऊर्जा जोड़ कर उसे देदीप्यमान करती है। यह अद्भुत है। यह उस शब्द ब्रह्म का ऐसा गान है जिसके स्वर सीधे कॉसमॉस में तरंगित होकर आत्मिक ऊर्जा से गायक को भर देते हैं।

वंदे मातरम्। यह शब्द संस्कृत मूल का है और इसका उपयोग मातृभूमि के लिए भी किया जाता है। वंदे मातरम् का अर्थ है मैं तुम्हें नमन करता हूँ, माँ, जिसमें वंदे का अर्थ वंदना या प्रशंसा में गान करना है और मातरम् का अर्थ माँ या मातृभूमि या समस्त पृथ्वी या समस्त सृष्टि है। यह राष्ट्रीय गीत भारत की संस्कृति और गौरव का प्रतीक है।

माँ के रूप में, मातरम् का सीधा और शाब्दिक अर्थ 'माँ' है। मातृभूमि के रूप में, यह शब्द भारत माता, हमारी मातृभूमि के लिए प्रयुक्त होता है। इस गीत में वंदे मातरम् का अर्थ है कि हम अपनी मातृभूमि की पूजा करते हैं, उसे नमन करते हैं और उसकी वंदना करते हैं। यह शब्द मातृभूमि के प्रति श्रद्धा और सम्मान को व्यक्त करता है। इस गीत की रचना बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने की थी, जो वेदों में वर्णित ऋग्वेद के वंद शब्द से प्रेरित है। 'वंद' शब्द का अर्थ 'प्रशंसा करना', 'आदर करना' या 'पूजा करना' है, जो वेदों के अनुसार है। इसलिए, 'वंदे मातरम्' शब्द का उपयोग वेदों में भूमि को 'माँ' के रूप में दर्शाने की अवधारणा से जुड़ा हुआ है। ऋग्वेद के अतिरिक्त अन्य वेदों में पृथ्वी को भी मातृ के रूप में संबोधित किया गया है। उदाहरण के लिए, अथर्ववेद में कहा गया है, "माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या:", जिसका अर्थ है "हे पृथ्वी माता, मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ"।

श्रुति सार और मातृ स्तुति

मातृ देवो भव के श्रुति संदेश का सार है वंदे मातरम। इस सार तत्व में ही समस्त भारतीय संस्कृति समाहित है। मातृ के अर्थ अनेक हैं। मातृ मिट्टी भी है। मातृ जननी अर्थात जन्म देने वाली माता भी है। समस्त पृथ्वी, समस्त प्रकृति, समस्त नदियां मातृ स्वरूप हैं। इसीलिए भारतीय संस्कृति में ये सभी पूज्य हैं। मातृ शक्ति की अवधारणा केवल भारत के वांग्मय ही स्थापित करते हैं। इसी अवधारणा के कारण वंदेमातरम गीत को राष्ट्र गीत के रूप में अंगीकार किया गया है। बंकिम चंद्र चटर्जी के उपन्यास आनंद मठ में इस गीत के कुल पांच अंतरे हैं । इनमें से आरंभ के दो अंतरे ही गायन में प्रचलन में हैं। इस उपन्यास में यह गीत भवानन्द नाम के संन्यासी द्वारा गाया गया है। बाद में इसकी धुन यदुनाथ भट्टाचार्य ने बनायी थी।

यह कविता की दृष्टि से जितनी उत्कृष्ट रचना है उससे भी महत्वपूर्ण इसका भाव है। यह मनुष्य के जीवन संस्कृति का वह समस्त आधार तत्व प्रस्तुत करने में सक्षम है जिसे गोस्वामी तुलसी दास जी ने मर्यादा पुरुषोत्तम की स्थापना में बालकाण्ड में ही परिभाषित कर दिया है। मानव जीवन के सभी सनातन तत्व इस गीत में विद्यमान हैं जिनकी अलग अलग स्तुतियाँ मनुष्य अलग अलग समय पर करता है। वह चाहे धरती हो, आकाश हो, वनस्पतियां हों, प्रकृति हो, दैवीय शक्तियां हों, लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा हों या ऐसे वे सभी प्रतीक जिनसे मनुष्य शक्ति सम्पन्न होकर जीवन यात्रा करना चाहता है या करता है।

वंदेमातरम ठीक वैसा ही सम्पूर्ण है जैसा हमें सत्यमेव जयते अथवा तमसो मा ज्योतिर्गमय के उच्चारण से आभास होता है। इस गीत में मनुष्य और परमसत्ता अर्थात ईश्वर के बीच का ऐसा संवाद रचा गया है जो ठीक वैसा ही समर्पण दर्शाता है जैसे कि माता के आंचल में संरक्षित शिशु।

1. वन्दे मातरम की पहली पंक्ति सुजलां सुफलाम् मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलाम् ही हमें प्रकृति से जोड़ने का काम करती है। जीवन के लिए जरुरी संसाधन जैसे शीतल जल, हरे भरे खेत, अच्छे फलों, सुगन्धित हवाओं की वंदना किया जाना न केवल आज के समय की आवश्यकता है बल्कि यह हमेशा से ही जीवनदाता रहा है।

2. कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले , अबला केन मा एत बले। बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं रिपुदलवारिणीं मातरम् ,

यह मातृ शक्ति की सर्वोपरिता को द्योतित करती है। पश्चिम के पुरुष सत्तात्मक समाज ने स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक बना कर रख दिया जिसके लिए आज नारी सशक्तिकरण : सरकार की मिशन शक्ति का सहारा लेना पड़ रहा है ।

3.वन्दे मातरम की वैज्ञानिकता , संगीत, भाषा और महत्त्व को देखते हुए बीबीसी द्वारा 2003 में किए गए 155 देशों के सर्वेक्षण में शीर्ष 10 में स्थान दिया गया।

4. 65 सेकंड में गया जाता है वन्दे मातरम गीत।

5.भारतीय मनीषियों की कल्पना जो देश के विकास के लिए जरुरी है जैसे- विद्या, धर्म, भक्ति, कर्म, प्राण को इस गीत में समाहित करके यह बताया गया है कि देश के सर्वांगीण विकास के लिए सभी पक्षों का विकास जरुरी है।

6.वन्दे मातरम- ज्ञान, विज्ञान, देश, मानव के सभी विषयों को शब्द रूप में समाहित करता है । ज्ञान होना चाहिए अपने आस-पास की प्रकृति का, जीवन की रक्षा के लिए अस्त्र-शस्त्रों का, मुक्ति के लिए धर्म का और इसके साथ ही साथ अपने शत्रुओं की अच्छाइयों और बुराइयों का। उन्नत विज्ञान होना चाहिए कमल के फूल पर विचरण करने जितना माइक्रो साइंस, गीत संगीत और विद्या का विकास देश के विकास के लिए बहुत जरुरी है।

7.कमलां अमलां अतुलां सुजलां सुफलां मातरम्‌ । आधुनिक सन्दर्भ में जब हम इसे देखते हैं कि हमारा ज्ञान कैसा होना चाहिए कमलां अर्थात धन को उत्पन्न करने वाला हो, आर्थिक सशक्तिकरण को बढ़ाने वाला होना चाहिए, अमलां अर्थात हमारा ज्ञान पवित्र होना चाहिए, दुनिया में जहाँ प्लेगरिज्म चल रहा है वहां हम शुरू से ही ज्ञान की पवित्रता की बात करते रहे हैं। अतुलां हो जिसकी कोई तुलना न हो, सुजलां अर्थात जीवन देने वाली और सुफलां अर्थात अच्छे फल देने वाली हो। हमारे मनीषियों ने ऐसे ज्ञान की कल्पना की है।

वन्दे मातरम्

बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा संस्कृत बाँग्ला मिश्रित भाषा में रचित इस गीत का प्रकाशन सन् 1882 में उनके उपन्यास आनन्द मठ में अन्तर्निहित गीत के रूप में हुआ था। इस उपन्यास में यह गीत भवानन्द नाम के संन्यासी द्वारा गाया गया है। इसकी धुन यदुनाथ भट्टाचार्य ने बनायी थी। इस गीत को गाने में 65 सेकेंड (1 मिनट और 5 सेकेंड) का समय लगता है।

सन् 2003 में, बीबीसी वर्ल्ड सर्विस द्वारा आयोजित एक अन्तरराष्ट्रीय सर्वेक्षण में, जिसमें उस समय तक के सबसे मशहूर दस गीतों का चयन करने के लिये दुनिया भर से लगभग 70 हजार गीतों को चुना गया था और बी०बी०सी० के अनुसार 155 देशों/द्वीप के लोगों ने इसमें मतदान किया था उसमें वन्दे मातरम् शीर्ष के 10 गीतों में दूसरे स्थान पर था।

वन्देमातरम और बंदे मातरम्

यदि बाँग्ला भाषा को ध्यान में रखा जाय तो इसका शीर्षक "बन्दे मातरम्" होना चाहिये "वन्दे मातरम्" नहीं। चूँकि हिन्दी व संस्कृत भाषा में 'वन्दे' शब्द ही सही है, लेकिन यह गीत मूलरूप में बाँग्ला लिपि में लिखा गया था और चूँकि बाँग्ला लिपि में व अक्षर है ही नहीं अत: बन्दे मातरम् शीर्षक से ही बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने इसे लिखा था। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए शीर्षक 'बन्दे मातरम्' होना चाहिये था। परन्तु संस्कृत में 'बन्दे मातरम्' का कोई शब्दार्थ नहीं है तथा "वन्दे मातरम्" उच्चारण करने से "माता की वन्दना करता हूँ" ऐसा अर्थ निकलता है, अतः देवनागरी लिपि में इसे वन्दे मातरम् ही लिखना व पढ़ना समीचीन होगा।

संस्कृत मूल गीत

वन्दे मातरम्

सुजलां सुफलाम्

मलयजशीतलाम्

शस्यश्यामलाम्

मातरम्।

शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्

फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्

सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्

सुखदां वरदां मातरम्॥ 1 ॥

कोटि कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले

कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,

अबला केन मा एत बले।

बहुबलधारिणीं

नमामि तारिणीं

रिपुदलवारिणीं

मातरम्॥2॥

तुमि विद्या, तुमि धर्म

तुमि हृदि, तुमि मर्म

त्वम् हि प्राणा: शरीरे

बाहुते तुमि मा शक्ति,

हृदये तुमि मा भक्ति,

तोमारई प्रतिमा गडी मन्दिरे-मन्दिरे॥3॥

त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी

कमला कमलदलविहारिणी

वाणी विद्यादायिनी,

नमामि त्वाम्

नमामि कमलाम्

अमलां अतुलाम्

सुजलां सुफलाम्

मातरम्॥4॥

वन्दे मातरम्

श्यामलाम् सरलाम्

सुस्मिताम् भूषिताम्

धरणीं भरणीं

मातरम्॥5॥

राष्ट्रीय गीत बनने की यात्रा:

वंदे मातरम् भारत का राष्ट्रीय गीत है जिसकी रचना बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा की गई थी। इन्होंने 7 नवम्बर, 1876 ई. में बंगाल के कांतल पाडा नामक गाँव में इस गीत की रचना की थी। वंदे मातरम् गीत के प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बांग्ला भाषा में थे। राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने इस गीत को स्वरबद्ध किया और पहली बार 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में यह गीत गाया गया। अरबिंदो घोष ने इस गीत का अंग्रेज़ी में और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने इसका उर्दू में अनुवाद किया। 'वंदे मातरम्' का स्‍थान राष्ट्रीय गान 'जन गण मन' के बराबर है। यह गीत स्‍वतंत्रता की लड़ाई में लोगों के लिए प्ररेणा का स्रोत था।

पद

वंदे मातरम् गीत का प्रथम पद इस प्रकार है-

वंदे मातरम्, वंदे मातरम्!

सुजलाम्, सुफलाम्, मलयज शीतलाम्,

शस्यश्यामलाम्, मातरम्!

वंदे मातरम्!

शुभ्रज्योत्सनाम् पुलकितयामिनीम्,

फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्,

सुहासिनीम् सुमधुर भाषिणीम्,

सुखदाम् वरदाम्, मातरम्!

वंदे मातरम्, वंदे मातरम्॥

गद्य रूप में श्री अरबिन्‍द घोष द्वारा किए गए अंग्रेज़ी अनुवाद का हिन्‍दी अनुवाद इस प्रकार है-

मैं आपके सामने नतमस्‍तक होता हूँ। ओ माता,

पानी से सींची, फलों से भरी,

दक्षिण की वायु के साथ शान्‍त,

कटाई की फ़सलों के साथ गहरा,

माता!

उसकी रातें चाँदनी की गरिमा में प्रफुल्लित हो रही हैं,

उसकी ज़मीन खिलते फूलों वाले वृक्षों से बहुत सुंदर ढकी हुई है,

हंसी की मिठास, वाणी की मिठास,

माता, वरदान देने वाली, आनंद देने वाली।

मूल गीत

सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्

सस्य श्यामलां मातरंम् .

शुभ्र ज्योत्सनाम् पुलकित यामिनीम्

फुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,

सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम् .

सुखदां वरदां मातरम् ॥

गीत के पहले दो छंदों में मातृभूमि की सुंदरता का गीतात्मक वर्णन किया गया है, लेकिन 1880 के दशक के मध्य में गीत को नया आयाम मिलना शुरू हो गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि बंकिमचंद्र ने 1881 में अपने उपन्यास 'आनंदमठ' में इस गीत को शामिल कर लिया। उसके बाद कहानी की माँग को देखते हुए उन्होंने इस गीत को लंबा किया। बाद में जोड़े गए हिस्से में ही दशप्रहरणधारिणी (दुर्गा), कमला (लक्ष्मी) और वाणी (सरस्वती) के उद्धरण दिए गए हैं।

गीत के राग व अवधि

वर्षों से 'संगीत सरिता', 'स्वर सुधा' और 'राग-अनुराग' जैसे कार्यक्रम सुनने में आते रहे हैं। इन कार्यक्रमों से यह ज्ञात हो जाता है कि ढेर सारे फ़िल्मी गीत कौन-कौन से राग पर आधारित हैं। पर खेद है कि अब तक यह जानकारी नहीं मिल सकी कि राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् और राष्ट्रीय गान 'जन गन मन' किन रागों पर आधारित हैं। यह दोनों ही रचनाएँ बांग्ला भाषा के कवियों से निकली हैं। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान रची गई इन रचनाओं को ये कवि स्वयं जन सभाओं में गाया करते थे, जिससे लगता है कि यह रचनाएँ 'रविन्द्र संगीत' में निबद्ध है। राष्ट्रीय गान के तो रचनाकार ही रवीन्द्रनाथ टैगोर हैं।

बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय

बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा रचित 'वंदे मातरम्' तो बहुत लम्बी रचना है, जिसमें माँ दुर्गा की शक्ति का भी बख़ान है, पर पहले अंतरे के साथ इसे सरकारी गीत के रूप में मान्यता मिली है और इसे राष्ट्रीय गीत का दर्ज़ा देकर इसकी न केवल धुन बल्कि गीत की अवधि तक संविधान सभा द्वारा तय की गई है, जो 52 सेकेण्ड है। इस तरह लगता है कि 'राष्ट्रीय गान' और 'राष्ट्रीय गीत' के न सिर्फ़ राग बल्कि इसमें बजने वाले साज़ भी लगभग तय है।

निर्माण

1870 के दौरान अंग्रेज़ हुक्मरानों ने 'गॉड सेव द क्वीन' गीत गाया जाना अनिवार्य कर दिया था। अंग्रेज़ों के इस आदेश से बंकिमचंद्र चटर्जी को, जो तब एक सरकारी अधिकारी थे, बहुत ठेस पहुँची और उन्होंने संभवत: 1876 में इसके विकल्प के तौर पर संस्कृत और बांग्ला के मिश्रण से एक नए गीत की रचना की और उसका शीर्षक दिया "वंदे मातरम्"। शुरुआत में इसके केवल दो पद रचे गए थे, जो केवल संस्कृत में थे।

गीत का विरोध

गीत के पहले दो छंदों में मातृभूमि की सुंदरता का गीतात्मक वर्णन किया गया था, लेकिन 1880 के दशक के मध्य में गीत को नया आयाम मिलना शुरू हो गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि बंकिम चंद्र ने 1881 में अपने उपन्यास 'आनंदमठ' में इस गीत को शामिल कर लिया। उसके बाद कहानी की माँग को देखते हुए उन्होंने इस गीत को और लंबा किया। बाद में जोड़े गए हिस्से में ही 'दशप्रहरणधारिणी', कमला और वाणी के उद्धरण दिए गए हैं। लेखक होने के नाते बंकिमचंद्र को ऐसा करने का पूरा अधिकार था और इसको लेकर तुरंत कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं हुई। यानी तब किसी ने ऐसा नहीं कहा कि यह मूर्ति की वंदना करने वाला गीत है या 'राष्ट्रगीत' नहीं है। काफ़ी समय बाद जब विभाजनकारी मुस्लिम और हिन्दू सांप्रदायिक ताकतें उभरीं तो यह राष्ट्रगीत से एक ऐसा गीत बन गया, जिसमें सांप्रदायिक निहितार्थ थे। 1920 और ख़ासकर 1930 के दशक में इस गीत का विरोध शुरू हुआ।

'वन्देमातरम' गायन

15 अगस्त, 1947 को प्रातः 6:30 बजे आकाशवाणी से पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का राग-देश में निबद्ध 'वन्देमातरम' के गायन का सजीव प्रसारण हुआ था। आज़ादी की सुहानी सुबह में देशवासियों के कानों में राष्ट्रभक्ति का मंत्र फूँकने में 'वन्देमातरम' की भूमिका अविस्मरणीय थी। ओंकारनाथ जी ने पूरा गीत स्टूडियो में खड़े होकर गाया था; अर्थात उन्होंने इसे राष्ट्रगीत के तौर पर पूरा सम्मान दिया। इस प्रसारण का पूरा श्रेय सरदार बल्लभ भाई पटेल को जाता है। पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का यह गीत 'दि ग्रामोफोन कम्पनी ऑफ़ इंडिया' के रिकॉर्ड संख्या STC 048 7102 में मौजूद है।

राष्‍ट्रीय गीत की मान्यता

24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा ने निर्णय लिया कि स्वतंत्रता संग्राम में 'वन्देमातरम' गीत की उल्लेखनीय भूमिका को देखते हुए इस गीत के प्रथम दो अन्तरों को 'जन गण मन..' के समकक्ष मान्यता दी जाय। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा का यह निर्णय सुनाया। "वन्देमातरम' को राष्ट्रगान के समकक्ष मान्यता मिल जाने पर अनेक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय अवसरों पर 'वन्देमातरम' गीत को स्थान मिला। आज भी 'आकाशवाणी' के सभी केन्द्रों का प्रसारण 'वन्देमातरम' से ही होता है। आज भी कई सांस्कृतिक और साहित्यिक संस्थाओं में 'वन्देमातरम' गीत का पूरा-पूरा गायन किया जाता है।

इतिहास

सन 1905 के बंगाल के स्वदेशी आंदोलन ने वंदे मातरम् को राजनीतिक नारे में तब्दील कर दिया। राष्ट्रवादी विरोध-प्रदर्शन की अगुआई करते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे गाया और अरविंद घोष ने बंकिमचंद्र को राष्ट्रवाद का ऋषि कहकर पुकारा। सन 1920 तक सुब्रह्मण्यम भारती तथा दूसरों के हाथों विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर यह गीत राष्ट्रगान की हैसियत पा चुका था। बहरहाल, सन 1930 के दशक में वंदे मातरम् की इस हैसियत पर विवाद उठा और लोग इस गीत की मूर्ति-पूजकता को लेकर आपत्ति उठाने लगे। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में गठित एक समिति की सलाह पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने सन 1937 में इस गीत के उन अंशों को छाँट दिया, जिनमें कथित रूप से बुतपरस्ती के भाव ज़्यादा प्रबल थे। यद्यपि इस गीत में ऐसा कुछ नहीं है। इसके उन अंशों में भी मां के ही अन्यान्य स्वरूप की स्तुति या वंदना है। गीत के उन अंशों को काटने के पीछे केवल सांप्रदायिक तुष्टिकरण ही था जो कांग्रेस शुरू से कर रही थी।

राष्ट्रगीत का दर्जा

जब आज़ाद भारत का नया संविधान लिखा जा रहा था, तब वंदे मातरम् को न राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया और न ही उसे राष्ट्रगीत का दर्ज़ा मिला लेकिन संविधान सभा के अध्यक्ष और भारत के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने 24 जनवरी, 1950 को घोषणा की कि वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत का दर्ज़ा दिया जा रहा है।

स्वाधीनता संग्राम में राष्ट्रगीत की भूमिका

बंगाल में चले आज़ादी के आंदोलन में विभिन्न रैलियों में जोश भरने के लिए यह गीत गाया जाने लगा। धीरे-धीरे यह गीत लोगों में लोकप्रिय हो गया। ब्रिटिश हुकूमत इसकी लोकप्रियता से सशंकित हो उठी और उसने इस पर प्रतिबंध लगाने पर विचार करना शुरू कर दिया। 1896 में 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' के 'कलकत्ता अधिवेशन' में भी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने यह गीत गाया। पाँच साल बाद यानी 1901 में कलकत्ता में हुए एक अन्य अधिवेशन में चरन दास ने यह गीत पुनः गाया। 1905 में बनारस में हुए अधिवेशन में इस गीत को सरला देवी ने स्वर दिया।

कांग्रेस के अधिवेशनों के अलावा भी आज़ादी के आंदोलन के दौरान इस गीत के प्रयोग के काफ़ी उदाहरण मौजूद हैं। लाला लाजपत राय ने लाहौर से जिस जर्नल का प्रकाशन शुरू किया, उसका नाम 'वंदे मातरम' रखा। अंग्रेज़ों की गोली का शिकार बनकर दम तोड़ने वाली आज़ादी की दीवानी मातंगिनी हज़ारा की जुबान पर आख़िरी शब्द 'वंदे मातरम' ही थे। सन 1907 में मैडम भीकाजी कामा ने जब जर्मनी के स्टटगार्ट में तिरंगा फहराया तो उसके मध्य में 'वंदे मातरम्' ही लिखा हुआ था।

आजादी से पहले ही उठा था विवाद

वंदे मातरम आजादी के आंदोलन के दौरान पूरे देश में लोकप्रिय हो गया और कांग्रेस के अधिवेशनों का तो अनिवार्य हिस्सा बन गया था। खुद मोहम्मद अली जिन्ना शुरू में इस गीत को पसंद करते थे। बाद में कुछ मुसलमानों को इस पर आपत्ति होने लगी, क्योंकि इस गीत में देश को देवी दुर्गा के रूप में देखा गया है। उन्हें रिपुदलवारिणी यानी दुश्मनों का संहार करने वाला कहा गया है। इस रिपुदलवारिणी शब्द को लेकर काफी विवाद हुआ था। मुसलमानों को लगा कि इसमें रिपु यानी दुश्मन शब्द का इस्तेमाल उनके लिए किया गया है, जबकि विशेषज्ञों का मानना है कि उस समय अंग्रेजों को रिपु यानी दुश्मन माना गया। हालांकि मुसलमानों का विरोध बढ़ने लगा तो आपत्तियों की पड़ताल के लिए साल 1937 में कांग्रेस ने एक समिति बनाई थी। उसमें गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, मौलाना अबुल कलाम आजाद और पंडित जवाहरलाल नेहरू शामिल थे। इस गीत के पहले दो चरण ही स्वीकृत किए गए, जिनको समावेशी और धर्मनिरपेक्ष माना गया। दरअसल, समिति का मानना था कि इस गीत के शुरुआती दो पद मातृभूमि की प्रशंसा में हैं। इसलिए फैसला लिया गया कि वंदे मातरम के शुरुआती दो पदों को ही राष्ट्रगीत के रूप में इस्तेमाल किया जाए। इस पर गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की लोगों ने आलोचना की तो उन्होंने 2 नवंबर 1937 को एक पत्र लिखा कि कांग्रेस के कलकत्ता (अब कोलकाता) अधिवेशन में यह गीत खुद मैंने गाया था।

सुप्रीम कोर्ट दे चुका है फैसला

वंदे मातरम का विवाद सुप्रीम कोर्ट तक जा चुका है। इससे जुड़ी एक याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि अगर कोई व्यक्ति राष्ट्रगान का सम्मान करता है पर उसे गाता नहीं, तो इसका यह आशय नहीं कि वह इसका अपमान कर रहा है। इसलिए इसे नहीं गाने के लिए किसी व्यक्ति को दंडित अथवा प्रताड़ित नहीं किया जा सकता है। चूंकि वंदे मातरम राष्ट्रगीत है इसलिए इसको जबरदस्ती गाने के लिए मजबूर करने पर भी यही नियम लागू होगा।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

 

 
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