भूमि पर तो परागण का काम मधुमक्खियां और पक्षी करते हैं। लेकिन समुद्र के अंदर परागण की यह महत्वपूर्ण क्रिया कौन सम्पन्न करता है? आम तौर पर समुद्र में पौधों में परागण जीवों की मदद के बगैर होता है। नर और मादा पौधे अपने शुक्राणु और अंडाणु पानी में छोड़ देते हैं और पानी की हिलोरों से अंडाणु और शुक्राणु संयोग से मिल जाते हैं।
अपवादस्वरूप, पूर्व में छोटे जलीय कृमि और क्रस्टेशियन को समुद्री घास के परागणकर्ता के रूप में पहचाना गया था। और अब एक नया परागणकर्ता मिला है: लाल शैवाल के बीच तैरने वाला लगभग 4 से.मी. लंबा क्रस्टेशियन जिसे आइसोपॉड कहते हैं। लाल शैवाल के शुक्राणु आइसोपॉड के शरीर पर चिपक जाते हैं। यह जब भोजन के लिए किसी अन्य पौधे पर जाता है तो निषेचन भी हो जाता है।
दरअसल फ्रांस की राष्ट्रीय शोध एजेंसी में मिरियम वेलेरो युरोप में लहरों के पानी से बने पोखरों में पनपने वाली लाल शैवाल ग्रेसिलेरिया ग्रैसिलिस की आनुवंशिकी का अध्ययन कर रही हैं। ग्रेसिलेरिया में मादा शैवाल अपने अंडाणु पानी में नहीं छोड़ती, बल्कि उन्हें कीप के आकार के तंतुओं के अंदर रखती है। और नर शुक्राणु किसी तरह उन तक पहुंचते हैं जबकि शुक्राणुओं में तैरने में सहायक पूंछ भी नहीं पाई जाती।
अपने अनुमान की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने अपरागित मादा शैवाल लीं और इन्हें पानी से भरी टंकियों में नर शैवाल के साथ रखा। फिर कुछ टंकियों में आइसोपॉड छोड़े। पाया गया कि आइसोपॉड्स वाले लाल शैवाल प्रजनन में लगभग 20 गुना अधिक सफल रहे। ये नतीजे साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।
वेलेरो का अनुमान है कि इससे दोनों को ही लाभ पहुंचता होगा। अधिकांश इडोटिया रंग में लाल शैवाल जैसे होते हैं। तो आइसोपोड्स को शिकारियों से छिपने में मदद मिलती होगी। दूसरी ओर आइसोपॉड्स शैवाल पर उगने वाले एक-कोशिकीय शैवाल को खाते हैं। देखा गया है कि आइसोपॉड्स द्वारा ऐसे एक-कोशिकीय शैवाल के भक्षण से लाल शैवाल स्वच्छ रहती है और तेज़ी से वृद्धि करती है।
लेकिन सवाल है कि समुद्र में जीवों द्वारा परागण इतना दुर्लभ क्यों है? संभवत: यह पानी की भौतिकी के कारण है - पानी हवा से बहुत अधिक सघन है। ज़ाहिर है, मकरंद से जो ऊर्जा मिलेगी, वह एक फूल से दूसरे फूल तक यात्रा करने में लगने वाली ऊर्जा से अधिक नहीं होगी।
अन्य शोधकर्ता चेताते हैं कि उक्त अध्ययन सिर्फ यह बताता है कि आइसोपोड प्रयोगशाला में शैवाल को परागित कर सकते हैं; इससे यह नहीं कहा जा सकता कि प्रकृति में भी वे इसे इतनी ही कुशलता से कर पाते हैं। हो सकता है शैवाल के शुक्राणु को फैलाने में लहरें ही अधिक प्रभावी हों।