बॉलीवुड की तुलना में दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग को हमेशा अधिक अनुशासित और संगठित माना गया है। 1940 के दशक के अंत में, दक्षिण भारतीय फिल्म निर्माताओं ने हिंदी फिल्मों के विशाल बाजार को भुनाने के लिए इस दिशा में कदम बढ़ाया। इस पहल में प्रमुख स्टूडियो मालिकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इनमें जैमिनी स्टूडियो (मद्रास) के के. एस. एस. वासन, ए. बी. एम. स्टूडियो (मद्रास) के ए. वी. मैय्यप्पन चेट्टियार, पक्षीराजा स्टूडियो (कोयम्बटूर) के एस. एम. एस. नायडू, वीनस के कृष्णमूर्ति और 1967 में विजया वाहिनी स्टूडियो (मद्रास) के बी. नागि रेड्डी शामिल थे।
दक्षिण की पहली हिंदी फिल्म – 'चंद्रलेखा'
1948 में एस. एस. वासन द्वारा निर्मित फिल्म 'चंद्रलेखा' को दक्षिण भारतीय निर्माताओं की पहली हिंदी फिल्म माना जाता है। इस फिल्म की जबरदस्त सफलता के बाद, दक्षिण के निर्माता बॉलीवुड के बड़े सितारों को लेकर हिंदी फिल्में बनाने में जुट गए। इससे बॉलीवुड के सितारे भी आकर्षित हुए और उन्होंने दक्षिण की फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया।
बॉलीवुड के सितारों का दक्षिण की ओर रुख
1950 के दशक में, कई प्रमुख बॉलीवुड कलाकारों ने मद्रास में अधिक समय बिताना शुरू किया। इनमें अशोक कुमार, दिलीप कुमार, राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त, ओम प्रकाश, निरूपा रॉय, नूतन, वहीदा रहमान, माला सिन्हा, धर्मेंद्र, किशोर कुमार, संजीव कुमार, जॉनी वॉकर, मुकरी और प्राण शामिल थे। संगीतकारों में सी. रामचंद्र और चित्रगुप्त ने भी दक्षिण की फिल्मों में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
अनुशासन और कार्य संस्कृति
दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग की अनुशासनप्रियता के कई किस्से मशहूर हैं। वहां के निर्माता खुद सितारों से सीधे बातचीत नहीं करते थे, बल्कि उनके प्रोडक्शन कंट्रोलर यह काम संभालते थे। इन कंट्रोलरों को कलाकारों की मौजूदा फीस की पूरी जानकारी होती थी, जिससे वे उचित या कभी-कभी कम कीमत पर भी कलाकारों को साइन कर लेते थे।
मद्रास के स्टूडियो में काम करने के सख्त नियम थे। शूटिंग के दौरान किसी भी बाहरी व्यक्ति को सेट पर आने की अनुमति नहीं होती थी, और किसी को भी सितारों से अनावश्यक बातचीत करने की इजाजत नहीं थी। वहां फिल्म निर्माण को एक गम्भीर व्यवसाय के रूप में देखा जाता था।
प्राण और दक्षिण की फिल्मों का सफर
बॉलीवुड के दिग्गज अभिनेता प्राण ने दक्षिण की फिल्मों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी पहली दक्षिण भारतीय फिल्म 'बहार' (1951) थी, जिसे ए. वी. एम. स्टूडियो के मालिक ने प्रोड्यूस किया था। इस फिल्म में ओम प्रकाश, करण दीवान, वैजयन्ती माला और गीतकार राजेंद्र कृष्ण भी थे। प्राण ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मद्रास में उन्हें और उनके साथियों को भरपूर सम्मान और बेहतरीन पारिश्रमिक मिलता था।
मद्रास में कलाकारों के लिए अनुशासित कार्यशैली अपनाई जाती थी। स्टूडियो की गाड़ी सुबह तय समय पर फाइव-स्टार होटल के बाहर पहुंचती, प्रोडक्शन एक्जीक्यूटिव कलाकारों को रिसेप्शन से फोन कर बुलाते, और फिर उन्हें सम्मानपूर्वक स्टूडियो ले जाया जाता। शूटिंग स्थल पर निर्माता स्वयं कलाकारों का स्वागत करता और पहले शॉट के पूरा होने तक वहीं रहता।
'बहार' का प्रीमियर और प्राण का अनुभव
फिल्म 'बहार' के प्रीमियर के लिए प्राण अपनी पत्नी शुक्ला को साथ ले जाना चाहते थे। अपनी पुरानी गाड़ी दुर्घटना में नष्ट होने के बाद उन्होंने एक नई क्रिस्टल कार खरीदी। यह प्रीमियर उनके लिए खास था, क्योंकि यह उनकी पहली दक्षिण भारतीय फिल्म थी।
'बहार' भारतभर में सुपरहिट रही, जिससे प्राण को और भी दक्षिण भारतीय फिल्मों के प्रस्ताव मिलने लगे। 1950 से 1955 तक उन्होंने हर साल औसतन छह दक्षिण भारतीय फिल्में कीं। शुरुआत में उन्होंने पंजाबी खाने की कमी महसूस की, लेकिन उनके छोटे भाई कृपाल के मद्रास स्थानांतरित होने के बाद यह समस्या भी हल हो गई। यहां तक कि दिलीप कुमार और मनोज कुमार भी उनके घर नियमित रूप से खाना खाने पहुंचते थे।
दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग ने अपनी संगठित कार्यशैली, अनुशासन और व्यावसायिकता के चलते हिंदी फिल्म उद्योग को एक नई दिशा दी। इसने न केवल बॉलीवुड के कलाकारों को बेहतर अवसर दिए, बल्कि फिल्म निर्माण की गुणवत्ता में भी सुधार किया। इससे यह स्पष्ट होता है कि दक्षिण भारतीय फिल्म निर्माताओं का हिंदी सिनेमा पर स्थायी प्रभाव पड़ा है।