इतिहास पुरुष स्वामी विवेकानंद | The Voice TV

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तुम खुद अपने भाग्य के निर्माता हो - स्वामी विवेकानंद

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इतिहास पुरुष स्वामी विवेकानंद

Date : 04-Jul-2025

स्वामी विवेकानंद इतिहास पुरुष हैं। वे सनातन के महान प्रतिनिधि हैं। वे भारतीय संस्कृति के स्वभाव को दुनिया के देशों में ले गए। उस कालखंड में यह कार्य असम्भव था। वे भारत को भी प्राचीन संस्कृति का स्मरण कराते रहे। उनका राष्ट्र धर्म विश्व धर्म था। उन्होंने वेद उपनिषद, ब्रह्म सूत्र, मीमांसा, न्याय, वैशेषिक, योग का अध्ययन कर ज्ञान योग की बात की। वे ग्रन्थों से भारत के ऋषियों के ज्ञान विज्ञान की संस्कृति जन जन तक ले जाने के कर्म योग में थे। स्वामी विवेकानंद जितना प्रभावशाली अपने जीवनकाल में रहे उनके न रहने के बाद उनका प्रभाव बढ़ा है। वे युवाओं को राष्ट्र प्रेम से सम्बद्ध करते हैं। संस्कृति सभ्यता से जोड़ते हैं। वे युवाओं में विशेष ऊर्जा का संचरण करते हैं। वह मौलिक बात करते हैं। वे धर्म की बात प्राथमिक न कह कर सीधे भौतिक प्रश्न करते हैं।

वे कहते हैं जो भूखे हैं उन्हें प्राथमिकता में पहले भोजन का प्रबंध हो। जो वस्त्रहीन हैं उन्हें वस्त्र चाहिए। बुनियादी प्रश्नों के हल के बाद हम धर्म की बात कर सकते हैं। वह वंचितों के लिए प्रश्न खड़े कर रहे हैं। वह किसी पूजा, उपासना की बात प्राथमिक नहीं करते हैं। वे अधिक जोर कर्म पर ही दे रहे हैं। वह अभाव को ईश्वरीय देन नहीं मानते। तभी तो वह उठो जागो और लक्ष्य की प्राप्ति तक मत रुको का संदेश दे रहे थे। वे भक्ति, पूजा, उपासना, प्रेम,श्रद्धा की ओर प्रत्येक को ले जाना चाहते हैं। वह विश्व बंधुत्व की बात कर रहे हैं। वे प्रत्येक में व्यक्ति ईश्वरत्व देखते हैं। प्रत्येक व्यक्ति में अनंत ऊर्जा देखते हैं। विवेकानंद चाहते थे कि लोग राष्ट्रभक्ति भाव से भर जाएं। वह उपनिषदों का अध्ययन करने के बाद निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उपनिषदों का प्रत्येक पृष्ठ मुझे शक्ति का संदेश देता है। उपनिषद कहते हैं ,हे मानव तेजस्वी बनो। दुर्बलता को त्याग दो। संपूर्ण जगत के साहित्य में इन्हीं उपनिषदों में भयशून्य यह शब्द बार-बार प्रयोग हुआ। और संसार के किसी भी शास्त्र में ईश्वर या मानव के प्रति भय शून्य यह विशेषण प्रयुक्त नहीं हुआ है, कि निर्भय बनो। उपनिषदों द्वारा मुक्ति और स्वाधीनता का उद्द्घोष किया गया है।

यहां पर लाहौर में दिए गए उनके तीन वक्तव्यों का उल्लेख आवश्यक प्रतीत हो रहा है। पहला "हिंदू धर्म के सामान्य आधार" पर ,दूसरा भक्ति पर ,तीसरा वक्तव्य वेदांत पर था। उन्होंने कहा यह वही पवित्र भूमि है जो आर्यावर्त में पवित्रम मानी जाती है। यह वही ब्रह्मावर्त है। इसका उल्लेख हमारे महर्षि मनु ने किया है। यह वही भूमि है जहां आत्म तत्व आकांक्षा का प्रबल स्रोत प्रवाहित हुआ है। जैसा कि इतिहास से प्रकट है। जहां वेगवती नदियों की तरह समान आध्यात्मिक महत्वाकांक्षाएं उत्पन्न हुई। फिर धीरे-धीरे एक धारा में होकर शक्ति संपन्न हुई है। आर्यावर्त में हमलावर बर्बर जातियों के प्रत्येक हमले का सामना इसी वीर भूमि ने छाती खोलकर किया। वही भूमि है जहां गुरु नानक ने विश्व प्रेम का उपदेश दिया। जहां केवल हिन्दुओं को ही नहीं मुसलमान को भी गले लगाने के लिए अपने हाथ फैलाए। गुरु गोविंद सिंह ने धर्म रक्षा के लिए अपना और प्रिय जनों का रक्त बहा दिया। लोगों ने उनके साथ छोड़ दिया। हे पंचनद के भाइयों अपनी इस प्राचीन भूमि में तुम लोगों के सामने आचार्य रूप में नहीं खड़ा हुआ हूं। मैं तो यह खोजने आया हूं कि हम लोगों की मिलन भूमि कौन सी है। यहां मैं जानने आया हूं कि कौन सा आधार है कि हम लोग आपस में सदा भाई बने रह सकते हैं। कुछ रचनात्मक कार्यक्रम रखने आया हूं। स्वभावतः इस देश में मेधा संपन्न महापुरुषों का जन्म हुआ। उनके हृदय में सत्य,न्याय, के प्रति प्रबल अनुराग था। पुनर्निर्माण का समय आ गया है। बिखरी शक्तियों को एक ही केंद्र में लाकर सदियों से रुकी उन्नति में अग्रसर करने का समय आ गया है। मैं हिंदू शब्द का प्रयोग बुरे अर्थों में नही कर रहा।जो बुरा मानते हैं अर्थ समझते हो।

प्राचीन काल में उस शब्द का अर्थ था सिंधु नद के दूसरी ओर बसने वाले लोग। हमसे घृणा करने वाले बहुतेरे लोग आज उस शब्द का कुत्सित अर्थ भले लगाते हो, पर केवल नाम में क्या धरा है। हिंदू नाम ऐसी प्रत्येक वस्तु का द्योतक रहे जो महिमामय हो। अध्यात्मिक हो। यदि आज हिन्दू शब्द का कोई बुरा अर्थ है तो उसकी परवाह मत करो। अपने कार्यों आचरण द्वारा दिखाने को तैयार हो जाओ कि समग्र संसार की कोई भी भाषा इससे ऊंचा , महान शब्द अविष्कार नही कर सकी। विवेकानंद कह रहे हैं कि तुम्हें अपनी हिन्दू संस्कृति पर गर्व होना चाहिए। तुम आर्यावर्त की महान संतान हो। तुम सबको साथ लेकर सबको गले लगाकर चलो। यह यात्रा अनंत है। वे दूसरी बात कठोपनिषद की ऋचा,न तत्र सूर्यो भाति न चंद्रतारकम से उधृत कर भक्ति पर कह रहे हैं। वहां सूर्य प्रकाश नही करता। चन्द्र और तारे वहां नही हैं। बिजलियां नहीं चमकती। इस भौतिक अग्नि का कहना ही क्या। वे कहते हैं इस अपूर्व हृदय स्पर्शी कविता सुनते हुए मानो इस इंद्रियगम्य जगत से, बुद्धि से भी दूर पहुंचते हैं। जिसे किसी काल में का ज्ञान विषय नहीं बनाया जा सकता है। वह सदा हमारे पास रहता है। इस तरह भक्ति के बीज पहले से ही विद्यमान है। संहिताओं में हमें परिचय मिलता है। भक्ति के लिये पुराणों को समझना होगा। पुराणों में भक्तिवाद स्पष्ट दिखाई देता है।

तीसरी बात वेदांत की कर रहे हैं। जगत दो हैं। एक बहिर्जगत दूसरा है अंतर्जगत। प्राचीनकाल से मनुष्य दोनों भूमियों में समानांतर रेखाओं की तरह बराबर उन्नति करते आये हैं। मनुष्यों ने पहले समस्याओं के उत्तर की बाह्य प्रकृति से चेष्टा की। ईश्वर तत्व उपासना तत्व अदभुत सिद्धान्त प्राप्त हुए। उस शिव सुंदर का उन्होंने अपूर्व वर्णन किया। इस जगत को विश्व के बाहर के किसी ईश्वर ने नही बनाया। यह अपने आप सृष्ट हो रहा है। अभिव्यक्ति हो रही है।अनन्त सत्ता ब्रम्ह है। (विवेकानंद साहित्य खंड पांच) वे वेदांत को सर्वोपरि कह रहे हैं। वे परम सत्ता के प्रति विनयावनत हैं।

भारतीय दर्शन समग्र की बात करता है। सब अद्वैत है। वह दिखता भिन्न भिन्न रूपों में है। वह है एक ही सत्ता। यह वेदांत के अतिरिक्त किसी दर्शन में नही है। तभी वे कहते हैं यह गर्व की भूमि है। प्रेम, करुणा, दया, क्षमा, शील की भूमि है। आज भी प्रासंगिक हैं विश्व द्रष्टा विवेकानंद। भारत में विदेशी विचारों वाले कचरे का आयात बढ़ा है। कभी सेवा के नाम पर। कभी दवा के नाम पर तो कभी वस्तुओं के कारण पाश्चात्य के संबंध गहरे हुए हैं। पाश्चात्य संस्कृति ने भारत के प्रत्येक आंगन को खंडित किया है। उसकी भरपाई आज की पीढ़ी को करनी होगी? यह बात बिल्कुल भौतिक है। दुनिया के देश भारत की संस्कृति पर सदियों से हमलावर हैं। तलवार के बल पर शासन किया। मतांतरित किया। अंग्रेज भारत को गुलाम बनाने में सफल रहे। प्राचीन काल से भारत आकर्षण का केंद्र रहा है। गुलामी से मुक्ति के लिए बलिदान करने पड़े। जिन शक्तियों ने भारत को गुलाम बनाया वे भारत के हितैषी कैसे हो सकते हैं?

विवेकानंद कह रहे हैं तुम्हारा आत्मबल राष्ट्र के लिए कमजोर क्यों है। वेदांत संपूर्णता की बात करता है। वह भी समग्रता की बात कर रहे हैं। सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, तारे,समुद्र सब परमसत्ता हैं। सनातन संस्कृति तभी रहेगी जब तुम राष्ट्र के प्रति श्रद्धा करोगे। कृष्ण भी कर्मयोग की बात कह रहे हैं। विवेकानंद स्मृति में लाते हैं कि तुम सब शक्तिशाली ऋषियों की संतान हो। वह उपनिषदों के माध्यम से कह रहे हैं कि तुम तेजस्वी बनो। जो पीड़ित है जो वंचित हैं जो दुखी हैं वह तुम्हारे ही हैं। वे राष्ट्र के ही हैं। विवेकानंद कह रहे हैं भारत के उत्कर्ष में ही तुम्हारी उन्नति है। स्मृति दिवस चार जुलाई पर उन्हें श्रद्धांजलि ।

लेखक- अरुण कुमार दीक्षित, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

 
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